Book Title: Raidhu Sahitya ki Prashastiyo me Aetihasik va Sanskruti Samagri
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 7
________________ ६६० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय सामाजिक-दृष्टि से कवि ने तत्कालीन कई तथ्यों के साथ ही व्यक्तियों की प्रवृत्तियों पर सुन्दर प्रकाश डाला है. रइधू द्वारा वणित व्यक्ति नैतिक-वातावरण में पला-पुसा मिलता है. वह निरालस्य, उद्योगी, धार्मिक, दानशील, परदुःखकातर, स्वाध्याय जिज्ञासु एवं साहित्य-रसिक, गुणीजनों के प्रति श्रद्धालु तथा दीर्घायुष्य था. निरामिष, सात्त्विक भोजियों का दीर्घायुष्य होना स्वाभाविक भी था. कवि के समय में मनुष्य के सौ वर्षों तक जीवित रहने की धारणा एक साधारण-सी बात थी. रइधू का एक भक्त संसार से निर्विण्ण होकर कवि से कहता है कि "मनुष्य की आयु सौ वर्ष मात्र की है, उसमें से आधा जीवन तो सोने-सोने में निकल जाता है."५ भारत सरकार के इम्पीरियल गजेटियर के अनुसार भी मध्यभारत के जैनियों की आयु अपेक्षाकृत लम्बी देखी गई है : The age statistics show that the Jainas, who are the richest and best mourished community are the longest, while the Animists and Hindus show the gratest fecundity. तत्कालीन समाज की जिनवाणी-भक्ति एवं साहित्य-रसिकता के परिणामस्वरूप ही महाकवि रइधू तथा अन्य कवियों का अमूल्य विशाल साहित्य लिखा जा सका था. उन लोगों के नि:स्वार्थ एवं निश्छल आश्रय में रहकर कविगण मां-भारती की अमूल्य सेवाएं करते रहे. कवियों ने भी अपने परमभक्त एवं श्रद्धालु आश्रयदाताओं की भक्ति से प्रभावित होकर उनका स्वयं का तथा उनकी ६-६, ७-७ पीढ़ियों तक की वंशावलियाँ एवं पारिवारिक इतिहास आदि को अपनी ग्रन्थ-प्रशस्तियों के माध्यम से लिखकर उनके प्रति कृतज्ञता का परिचय देकर एक ओर जहाँ अपनी अमरकृतियों के साथ उन्हें अमर बना दिया, वहीं दूसरी ओर भावी परम्पराओं के लिये एक अमूल्य सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास भी तैयार कर दिया. इस प्रकार अग्रवाल, जैसवाल, खण्डेलवाल, पद्मावति-पुरवाल आदि जातियों से सम्बन्ध रखने वाले बहुमूल्य तथ्य इस साहित्य में उपलब्ध हैं. मालव-जनपद की महिला-समाज से तो कवि इतना अधिक प्रभावित था कि उनके गुणों के वर्णन में कवि की लेखनी अबाधगति से दौड़ती थी. कवि लिखता है कि "वहाँ की नारियाँ दृढ़ शीलव्रत से युक्त थीं. विविध प्रकार के दानों से पात्रों का संरक्षण करती थी. ऐसा प्रतीत होता है मानों वहाँ नारी के रूप में साक्षात् लक्ष्मी ने ही अवतार ले लिया है. वहाँ असुन्दर तो कोई दीखता ही न था. प्रातःकाल क्रियाओं से निवृत्त होकर सुन्दर-सुन्दर मोती जड़े वस्त्राभूषणादि धारण कर पूजा के निमित्त प्रमुदितमन से नारियाँ मन्दिरों की ओर जाती थीं तथा देव एवं गुरु के चरणों में माथा झुकाती थीं. सम्यग्दर्शन के पालन में प्रवीण थीं. पर पुरुषों को अपने भाई के समान मानती थीं. मैं वहाँ के स्त्रीपुरुषों के सम्बन्ध में अधिक क्या कहूँ जहाँ कि बच्चा-बच्चा भी सप्तव्यसनों का त्यागी था." इस प्रकार महाकवि रइधू की नारी परमशीलवती, पतिभक्ता, धार्मिक, गृहकार्यकुशल, उदारचित्त, परदुःखकातर, दानशीला, परिवार-पोषक एवं आलस्यविहीन है. उसे अपने बच्चों के सुसंस्कारों का सदा ध्यान रहता है. उसकी देख-रेख में बच्चों का स्वभाव ऐसा हो जाता है कि वे सप्तव्यसनों तथा अन्य अनैतिक-प्रवृत्तियों से सदा दूर रहकर परम आस्थावान बन जाते हैं. इसे ही माँ का सच्चा मातृत्व कहा जा सकता है. रइधू ने नारी में माँ के दर्शन करके ही उसे ऐसा चित्रित किया है. इसलिए जहाँ उसे नारी-सौन्दर्य के वर्णन करने का अवसर मिला है, वहाँ बस “गइ हंसजीव" (हंस की गति के समान चलने वाली); "ललिय गिरा" (सुन्दर मधुर वाणी बोलने वाली) जैसे विशेषण तक ही उन्होंने अपने को सीमित रखा है. महाकवि केशव, देव, मतिराम या बिहारी अथवा अन्य शृंगार-रस के रसिक धुरन्धर कवियों के समान वासना को उभाड़ने में वे बहुत ही पीछे पड़ गये हैं. उनकी इस सीमा को चाहे उनका दोष माना जाय अथवा गुण, यह बहुत कुछ निष्पक्ष समालोचकों के हाथों में ही है, किन्तु वस्तुस्थिति यही है. १. देखिये सम्मत्त०१.८.१. २. See Imperial Gazetteer Vol. IX Page 353. ३. देखिये-सम्मत्त०१-६-१०-१६ Jainvivar USE Minerary.org

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