Book Title: Punarjanma
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 12
________________ ढड्डाजी से प्रथम मिलन हुआ। लेकिन पहली मुलाकात में ही कुछ वह हुआ जो निकटता बढाता गया। श्री ढङ्गाजी उम्र में मुझ से बड़े होने से एक साथ हम पढे तो नहीं, न एक ही शाला, पाठशाला में पढने बैठे । बाबा साहब श्री गुलाबचन्दजी ढड्डा से सम्पर्क जरुर पहले हुआ। उनके व्यक्तित्व, सौम्यस्वभाव, प्रेमाल प्रोत्साहनकारी व्यवहार, तत्कालीन आभिजात्यवर्ग की वेशभूषा, विद्वत्ता, भाषण-सम्भाषण की प्रभावी शैली की मेरे छोटे विद्यार्थी मानस पर एक छाप पडी थी। सामाजिक पंचायत की बैठकों में अपने पिताश्री या बडे भाई साहब के साथ दर्शक के रूप में में कभी-कभी चला जाता था, वहां बाबा साहब के प्रस्तुत जाति-समाजगत प्रश्नों पर तर्क पूर्ण विवेचन और समन्वय मूलक फैसले काफी बोधक लगते थे। नवयुवक मंडल जैसी जोशीली सुधारक संस्था द्वारा आयोजित उत्सव, समारोह आदि में विशेष अवसर पर बाबा साहब की सशक्त अभिव्यक्ति कई बार अच्छी लगती थी। नवयुवक मण्डल या अन्य संस्था द्वारा आयोजित भा,ण, लेखन प्रतियोगिता में आशीर्वाद के साथ परस्कार बाबा साहब के हाथों मिला। ऐसे प्रसंगों पर बाबा साहब ने कई बार, कई तरह से प्रभावित किया । स्वाभाविक ही उनके प्रति मेरा आकर्षण बढा था, किसी समारोह या अवसर-विशेष पर बाबा साहब के साथ 'भाई साहब' (श्री सिद्धराजजी) रहे होंगे तो उनके प्रति भी मेरा आकर्षण और उनसे मिलने का विचार बना होगा। बहरहाल भाई ढडाजी से 'पहली मुलाकात' की याद नहीं आती। किन्तु वह जब भी और जितनी-सी अवधि की हुई हो, नजरें ही मिली हों, वह ऐसी हुई कि एक अन्य हमउम्र मित्र (जिनका जिक आगे करूंगा) के साथ हम (उस समय बालक या तरुण और अब बुजुर्गों के नजदीक पहुंचे) 'ईन-मीनसाढे-तीन' व्यक्तियों की स्वच्छ सौहार्दपूर्ण मित्रता प्रगाड होती गई हैं और इस पर हमें नाज हैं। नास्तिक और द्रव्य पूजा में अविश्वास करने वालों के लिए इससे बडा जीता जागता उदाहरण और क्या मिल सकता हैं कि पुष्प पूजा के प्रभाव से तिर्यंच योनि से तोता को महामूल्यवान मानव भव प्राप्त हुआ है। तथा उस जमाने के जयपुर के दिवान गुलाबचन्दजी ढड्डा के सपत्र हुए। उस युग में उनके परिवार को पांव में सोना पहनने की राज्य से छूट मिली हुई थी। उन दिनों हर कोई व्यक्ति कानूनन पांव में सोना नहीं पहन सकता था। ऐसे अटूट सम्पत्ति का मालिक एक तोता बिना पुण्य से बन सकता है क्या ? नहीं ! यह भी कहा गया है- प्रभु पूजा से आठों प्रकार के कर्मों का नाश होता है तथा धन, सुख, स्वर्ग तो ठीक क्रम म्से मोक्ष सुख तक प्राप्त होता है। जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वड्डूई । जाव इंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥ -दशावैकालिक सूत्र भावार्थ :- बुढापा आने के पहले - जवानी में, बीमारी बढने के पहले तन्दुरुस्ति में तथा जब तक इंद्रियां सशक्त और सलामत हैं धर्म कर लेना चाहिये।

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