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देखने पर जोर दिया । तब एक दिन निश्चित किया गया और लगभग एक हजार यात्री बालक के पीछे हो लिये। उसने उन्हें वृक्ष की वह शाखा दिखाई जहां तोते का घोंसला था जिसे देखकर सब लोग बहुत संतुष्ट हुए।
पालीताना में ३१ दिन का निवास :
पालीताना की ३१ दिन की यात्रा में इस ४ वर्ष के बालक ने प्रतिदिन पैदल यात्रा की। इस प्रकार पहाड़ पर चढनेउतरने में लगभग ८ मील का फासला तय करना पड़ता था, वह बिना अन्न-जल ग्रहण किये पहाड़ पर चढ़ता था और तीसरे पहर पहाड़ से उतर कर ही भोजन करता था, वह प्रतिदिन अत्यन्त निर्मल चित्त से ध्यानस्थ होकर पूजा करता था।
मुनि श्री हंस विजयजी का निर्णय :
मुनि श्री हंसविजयजी की राय थी कि बालक को जातिस्मरण ज्ञान उस समय हुआ जब मैंने (गुलाबचन्दजी ढड्ढा ने) बालक को गोद में लिया था और उसे सिद्धाचलजी का भजन सुनाया था और उसकी स्मृति तब जागृत हुई जब उसने वालकेश्वर मन्दिर की प्रतिमा के दर्शन किये।
मुनि श्री कपूरविजयजी का निर्णयः
मुनि श्री कपूरविजयजी ने भी कहा कि बालक को जन्म के १० वें दिन ही जाति-स्मरण हो गया था, जब उसे रोते समय सिद्धाचल का भजन सुनाया गया। मात्र १० दिन का होने के कारण उस समय वह अपने विचार प्रगट नहीं कर सकता था किन्तु जब वालकेश्वर के मन्दिर की मूर्ति में उसने आदीश्वर भगवान की पूर्व जन्म से समानता देखी तो उसे अपने उदगार व्यक्त करने का सुअवसर मिल गया।
अभिनन्दन प्रसंग - एक उडती नजर
लेखक: राज. गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष
वरिष्ठ रचनात्मक कार्यकर्त्ता, लेखक और पत्रकार - श्री पूर्णचंद्र जैन 卐
बहुत से व्यक्तियों को शायद यह मालूम नहीं होगा कि
भाई ढड्ढाजी बचपन में लगभग ३ वर्ष के थे तब, 'जाति - स्मरण ज्ञानधारी' थे । इस रहस्य की खोज-जांच की गई तो वैसा प्रमाणित हुआ था, सिद्ध हुआ था, वे कहते थे कि पूर्व जन्म में वे पालीताना तीर्थ में एक वृक्ष-कोटर में रहने वाले तोता थे। उनके बार-बार ऐसा कहते, वही रट लगातार लगाते देखकर, ढड्ढा परिवार के बुजुर्ग उच्च अंग्रेजी-शिक्षा प्राप्त और समाज-सेवा प्रिय, धर्मानुरागी, बाबा साहब श्री गुलाबचन्दजी ढड्डा, साधुसन्तों से सलाहकर, परिवार सहित बालक सिद्धराज को उसके इंगितानुसार पालीताना तीर्थ पर ले गये थे। वहां लोगों से बातचीत करने और निर्दिष्ट वृक्ष तथा आस-पास के स्थान को देखने से बालक ढड्ढा के तोता होने की बात एक तरह से सिद्ध हुई थी । मानव और पशु-पक्षी, मानवेतर प्राणी का परस्पर सम्बन्ध एक से अधिक जन्मों में होना भी प्रामाण्य बनता था। बालक के पूर्व जन्म सम्बन्धी जाति स्मरण ज्ञान की बात सिद्ध हुई इसी से नाम "सिद्धराज" पड़ा होगा। कालान्तर में बालक ढड्ढा का भविष्य जिस तरह ऊंचा और उज्ज्वल होता गया वह घटनाक्रम भी "पूत्र के लक्षण पालने " की किंवदन्ती को प्रत्यक्ष चरितार्थ करता है।
याद नहीं आता कि कब, कहां, किस प्रसंग में भाई श्री