Book Title: Pudgal Vivechan Vaigyanik evam Jain Agam ki Drushti me
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 3
________________ अच्छा या बुरा फल देती हैं। इन कार्मण वर्गणाओं लम्बे समय तक रहता है। तत्वार्थसूत्र अष्टम का फल देने का समय तथा तीव्रता कार्मण वर्ग- अध्याय के सूत्र 14-20 तक विभिन्न कर्मों का / णाओं पर ही निर्भर करती है / जब आत्मा में शुद्ध उत्कृष्ट एवं जघन्य (अधिकतम एवं न्यूनतम) समय तथा सात्विक विचार, प्रेम और सहानुभूति हो तो बताया है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं बेदनीय अच्छी कार्मण वर्गणाएँ उत्पन्न होती हैं तथा उनके कर्म का अधिकतम समय तीस कोडाकोडी सागर, फल देने के समय आनन्द की अनुभूति होती है। मोहनीय कर्म का अधिकतम समय सत्तर कोडाजब किसी कर्म का फल देने का समय समाप्त हो कोडी सागर, नाम एवं गोत्र कर्म का अधिकतम जाता है तो उस कर्म का अस्तित्व भी समाप्त हो समय बीस कोडाकोडी सागर तथा आयु कर्म का 10 जाता है / पूरे संसार में कार्मण वर्गणाओं का खेल अधिकतम समय तेतीस सागर है / वेदनीय कर्म का चल रहा है। जिस प्रकार धान का छिलका उतर न्यूनतम समय बारह महर्त का है। नाम एवं गोत्र ? जाने से चावल में उगने की क्षमता भी समाप्त हो का न्यूनतम समय आठ महर्त का है। शेष पाँच जाती है, उसी प्रकार आत्मा (जीव) पर से समस्त कर्मों का न्यूनतम समय एक अन्तर्मुहर्त का है जो कामण वर्गणाओं की खोल उतर जाने पर आत्मा कि मुहर्त से भी छोटा है। जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाती है / यदि कर्मों। निष्कर्ष-वर्तमान समय में परमाणु भट्टी में के क्षय की गति (निर्जरा) तेज हो तो एक मुहूर्त में रेडियो धर्मी पदार्थों के विच्छेदन से असीम ऊर्जा है भी आत्मा कर्म-रहित हो सकती है। प्राप्त की जा रही है। इस प्रक्रिया में रेडियोधर्मी वैदिक दर्शन म ईश्वर को जगत का नियन्ता पदार्थ की पर्याय भी बदल जाती है / यह प्रक्रिया ! मानने वाले जीव का कार्य करन में स्वतत्र तथा काफी कठिन है। इसी प्रकार यदि मानव शरीर उसका फल भोगन में परतन्त्र मानत है। जन रूपी भटी में समस्त कार्मण वर्गणाएँ सच्ची श्रद्धा, दर्शन के अनुसार कर्म अपना फल स्वयं देते हैं। सच्चे ज्ञान एवं सच्चे आचरण से भस्म कर दी कार्मण वर्गणाओं के वशीभूत होकर जीव ऐसे कार्य जावें तो आत्मा अपने शुद्धतम रूप में प्रकट हो करता है जो सुखदायक अथवा दुखदायक होते हैं। सकती है। ऐसी शुद्धतमा जन्म, जरा एवं मृत्यु के वर्तमान में जीव पिछले कर्मों का फल भोगता है चक्र से हमेशा के लिए मुक्त होकर सिद्धालय में तथा वर्तमान में किये जा रहे कर्मों का फल भविष्य स्थापित हो जाती है। में में प्राप्त करता है। पुद्गल के वर्गीकरण में "सूक्ष्म पुद्गल" __ कर्मों के आठ भेद होते हैं-ज्ञानावरणीय, आचार्य कुन्दकुन्द की महान उपलब्धि है / विज्ञान है। दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र इसको अभी प्रयोगों द्वारा सिद्ध नहीं कर पाया है तथा अंतराय / इन आठ कर्मों में मोहनीय कर्म किन्तु भविष्य में यदि विज्ञान इसके अस्तित्व को बड़ा प्रबल है तथा सब कर्मों का नेता है / यह कर्म सिद्ध करता है तो इसके अनुसंधान का सारा श्रेय संसार के सब दुखों की जड़ है। इसका प्रभाव जैन दर्शन को दिया जाना चाहिये। तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 16. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International Mor Privated Personalise only www.jainelibrary.org

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