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पुद्गल विवेचनवैज्ञानिक एवं जैन आगम की दृष्टि में
जैन सिद्धान्त विश्व को छह द्रव्यों से निर्मित मानता है जो सत् हो अथवा जिसकी सत्ता हो उसे द्रव्य कहते हैं । पर्याय की अपेक्षा से उत्पाद (Modification) एवं व्यय (Disappearance) प्रति समय 10 होता रहता हो तथा गुणों की अपेक्षा से ध्रौव्य (Continuity) हो वह सत् है । विज्ञान की दृष्टि में पदार्थ न तो पैदा किया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है किन्तु उसका रूप परिवर्तित हो । सकता है। अतएव उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य का जैन सिद्धान्त पूर्णतः वैज्ञानिक है।
जैन आगमों में द्रव्य के छह भेद बताये गये हैं-जीव, अजीव | (पुद्गल), धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल । यहाँ हम सिर्फ पुद्गल का | जैन आगम एवं वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन करेंगे । 'पुद्गल'=पुद्+गल से बना है। "पुद्" का अर्थ पूरा होना अथवा मिलना और “गल" का अर्थ है गलना अथवा नष्ट होना। अतएव जो द्रव्य प्रतिसमय मिलता एवं गलता रहे वह पुद्गल कहलाता है । यहाँ मिलना एवं गलना पर्याय की अपेक्षा से है।
आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित “नियमसार" गाथा क्रमांक २१-२४ में पुद्गल का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया गया है
(१) स्थूल-स्थूल-लकड़ी, पत्थर, लोहा जैसे ठोस पदार्थ । (२) स्थूल-जल, तेल आदि द्रव्य पदार्य । (३) स्थूल-सूक्ष्म-प्रकाश, छाया एवं चांदनी ।
(४) सूक्ष्म-स्थूल-ध्वनि ऊर्जा एवं ताप ऊर्जा । इन्हें हम चक्षु इन्द्रिय से नहीं देख सकते हैं किन्तु उसके अतिरिक्त दूसरी इन्द्रियों से अनुभव कर सकते हैं।
(५) सूक्ष्म-इसमें कार्मण वर्गणाएँ आती हैं। हमारे विचारों तथा भावों का प्रभाव इन पर पड़ता है तथा इनका प्रभाव जीव द्रव्य एवं अन्य पुद्गलों पर पड़ता है। इन्हें पंच-इन्द्रियों से अनुभव नहीं कर सकते हैं।
(६) सूक्ष्म-सूक्ष्म - परमाणु में निहित धन एवं ऋण विद्य त आवेश । कार्मण वर्गणाओं से नीचे के स्कन्ध जो अत्यन्त सूक्ष्म हैं, इन्हें भी पंचेन्द्रियों से अनुभव नहीं कर सकते हैं।
पुद्गल का भेद नं० ५ जैन आगम की महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
डॉ० रमेश चन्द्र जैन,
प्रवाचक,
सांख्यिकी विभाग,
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन
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आधुनिक विज्ञान इस विषय पर मौन है क्योंकि अभी इस प्रकार के उपकरण निर्मित नहीं हुए हैं जो किसी पुद्गल पदार्थ पर विचारों एवं भावों का प्रभाव लक्षित कर सके । झूठ पकड़ने वाली मशीनों की खोज इस दिशा में एक छोटा-सा कदम हो सकता है ।
विज्ञान ने संसार के समस्त पदार्थों को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया है- ठोस, द्रव और गैस । इन तीनों में आपस में परिवर्तन होता रहता है । आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि पदार्थ ऊर्जा रूप में भी परिवर्तित किया जा सकता है । परमाणु भट्टियों से विद्युत उत्पादन प्रक्रिया इसका उदाहरण है । जैन सिद्धान्त के अनुसार ठोस, द्रव, गैस एवं ऊर्जा पुद्गल के ही विभिन्न पर्याय हैं और इन पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है । सूर्य की प्रकाश ऊर्जा से पृथ्वी के पेड़-पौधों को पोषण मिलता है । यह ऊर्जा का ठोस पर्याय में परिवर्तन का उदाहरण है ।
पुद्गल में मूलतः चार गुण होते हैं- स्पर्श, रस, गंध एवं रूप अथवा वर्ण । जैनदर्शन में वर्ण मुख्यतः पाँच प्रकार का होता है - लाल, पीला, नीला, कृष्ण (काला) एवं श्वेत । वर्ण पटल में सात रंग होते हैं जो कि क्रमश: कासनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी एवं लाल हैं । इसमें श्वेत एवं श्याम रंग नहीं हैं । किन्तु श्वेत रंग उपर्युक्त सात रंगों के मिश्रण से बनता है तथा कृष्ण रंग श्वेत रंग की
अनुपस्थिति दर्शाता है । जैन दर्शन में श्वेत एवं श्याम वर्णं चक्षुइन्द्रिय की अपेक्षा से हैं । जैन दर्शन वर्ण के अनन्त भेद मानता है जो कि वैज्ञानिक दृष्टि से लाल रंग से कासनी रंग तक के विभिन्न तरंग परिणाम भी अनन्त हैं । अतएव वैज्ञानिक दृष्टि में भी वर्ण के अनन्त भेद हैं ।
विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि यदि किसी भी पुद्गल में उपर्युक्त चार में से कम से कम कोई एक गुण भी विद्यमान है तो उसमें अप्रकट रूप से
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शेष गुण अवश्य होंगे। यह संभव है कि हमारी इन्द्रियाँ इन्हें लक्षित न कर सकें किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक उपकरण शेष गुणों की उपस्थिति लक्षित कर सकते हैं । पुद्गल में अनन्त शक्ति होती है जो कि विज्ञान द्वारा सिद्ध की जा चुकी है। पुद्गल में संकोच एवं विस्तार होता रहता है । सूक्ष्म परिणमन एवं अवगाहन शक्ति के कारण परमाणु एवं स्कन्ध सूक्ष्म रूप में परिणत हो जाते हैं ।
आचार्य उमास्वाति द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र, द्वितीय अध्याय के सूत्र नं० ३६ के अनुसार शरीर पाँच प्रकार का होता है- औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस् एवं कार्मण । कार्मण शरीर सूक्ष्म है तथा इन्द्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता हैं । पुद्गल वर्गणाओं में अत्यन्त महत्वपूर्ण वर्गणा कार्मण वर्गणा के नाम से जानी जाती है । इसमें जीव द्रव्य का पुद्गल परमाणु के साथ संयोग होता है । इस संयोग की विशेषता यह है कि यह संयुक्त होकर भी पृथक्-पृथक् रहता है। मुक्त जीव को यह संयोग नहीं होता है किन्तु संसारी जीव को यह संयोग क्षण - प्रतिक्षण होता रहता है । जिस प्रकार ओर आकर्षित करती एक चुम्बकीय छड़ लोहे के छोटे कणों को अपनी (आत्मा) क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत उसी प्रकार जीव द्रव्य होकर कर्मों से प्रदूषित हो जाती है ! जीव द्रव्य एवं पुद्गल द्रव्य में बंध का मुख्य कारण जीव का अपना भावनात्मक परिणमन एवं पुद्गल प्रक्रिया है । आत्मा जब कर्म द्रव्य के सम्पर्क में आती है तो वहाँ संगलन की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इसके फलस्वरूप नई स्थिति निर्मित होती है । इसे कार्मण वर्गणा कहते हैं । जैन दर्शन में कर्म केवल संस्कार ही नहीं है किन्तु वस्तुभूत पुद्गल पदार्थ है । राग, द्वेष से युक्त जीव की मानसिक, वाचनिक एवं शारीरिक क्रियाओं के साथ कार्मण वर्गणाएँ जीव में आती हैं और जो उसके राग-द्व ेष का निमित्त पाकर जीव से बंध जाती हैं और आगे चलकर
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________________ अच्छा या बुरा फल देती हैं। इन कार्मण वर्गणाओं लम्बे समय तक रहता है। तत्वार्थसूत्र अष्टम का फल देने का समय तथा तीव्रता कार्मण वर्ग- अध्याय के सूत्र 14-20 तक विभिन्न कर्मों का / णाओं पर ही निर्भर करती है / जब आत्मा में शुद्ध उत्कृष्ट एवं जघन्य (अधिकतम एवं न्यूनतम) समय तथा सात्विक विचार, प्रेम और सहानुभूति हो तो बताया है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं बेदनीय अच्छी कार्मण वर्गणाएँ उत्पन्न होती हैं तथा उनके कर्म का अधिकतम समय तीस कोडाकोडी सागर, फल देने के समय आनन्द की अनुभूति होती है। मोहनीय कर्म का अधिकतम समय सत्तर कोडाजब किसी कर्म का फल देने का समय समाप्त हो कोडी सागर, नाम एवं गोत्र कर्म का अधिकतम जाता है तो उस कर्म का अस्तित्व भी समाप्त हो समय बीस कोडाकोडी सागर तथा आयु कर्म का 10 जाता है / पूरे संसार में कार्मण वर्गणाओं का खेल अधिकतम समय तेतीस सागर है / वेदनीय कर्म का चल रहा है। जिस प्रकार धान का छिलका उतर न्यूनतम समय बारह महर्त का है। नाम एवं गोत्र ? जाने से चावल में उगने की क्षमता भी समाप्त हो का न्यूनतम समय आठ महर्त का है। शेष पाँच जाती है, उसी प्रकार आत्मा (जीव) पर से समस्त कर्मों का न्यूनतम समय एक अन्तर्मुहर्त का है जो कामण वर्गणाओं की खोल उतर जाने पर आत्मा कि मुहर्त से भी छोटा है। जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाती है / यदि कर्मों। निष्कर्ष-वर्तमान समय में परमाणु भट्टी में के क्षय की गति (निर्जरा) तेज हो तो एक मुहूर्त में रेडियो धर्मी पदार्थों के विच्छेदन से असीम ऊर्जा है भी आत्मा कर्म-रहित हो सकती है। प्राप्त की जा रही है। इस प्रक्रिया में रेडियोधर्मी वैदिक दर्शन म ईश्वर को जगत का नियन्ता पदार्थ की पर्याय भी बदल जाती है / यह प्रक्रिया ! मानने वाले जीव का कार्य करन में स्वतत्र तथा काफी कठिन है। इसी प्रकार यदि मानव शरीर उसका फल भोगन में परतन्त्र मानत है। जन रूपी भटी में समस्त कार्मण वर्गणाएँ सच्ची श्रद्धा, दर्शन के अनुसार कर्म अपना फल स्वयं देते हैं। सच्चे ज्ञान एवं सच्चे आचरण से भस्म कर दी कार्मण वर्गणाओं के वशीभूत होकर जीव ऐसे कार्य जावें तो आत्मा अपने शुद्धतम रूप में प्रकट हो करता है जो सुखदायक अथवा दुखदायक होते हैं। सकती है। ऐसी शुद्धतमा जन्म, जरा एवं मृत्यु के वर्तमान में जीव पिछले कर्मों का फल भोगता है चक्र से हमेशा के लिए मुक्त होकर सिद्धालय में तथा वर्तमान में किये जा रहे कर्मों का फल भविष्य स्थापित हो जाती है। में में प्राप्त करता है। पुद्गल के वर्गीकरण में "सूक्ष्म पुद्गल" __ कर्मों के आठ भेद होते हैं-ज्ञानावरणीय, आचार्य कुन्दकुन्द की महान उपलब्धि है / विज्ञान है। दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र इसको अभी प्रयोगों द्वारा सिद्ध नहीं कर पाया है तथा अंतराय / इन आठ कर्मों में मोहनीय कर्म किन्तु भविष्य में यदि विज्ञान इसके अस्तित्व को बड़ा प्रबल है तथा सब कर्मों का नेता है / यह कर्म सिद्ध करता है तो इसके अनुसंधान का सारा श्रेय संसार के सब दुखों की जड़ है। इसका प्रभाव जैन दर्शन को दिया जाना चाहिये। तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 16. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Mor Privated Personalise only