Book Title: Pudgal Vivechan Vaigyanik evam Jain Agam ki Drushti me
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 2
________________ आधुनिक विज्ञान इस विषय पर मौन है क्योंकि अभी इस प्रकार के उपकरण निर्मित नहीं हुए हैं जो किसी पुद्गल पदार्थ पर विचारों एवं भावों का प्रभाव लक्षित कर सके । झूठ पकड़ने वाली मशीनों की खोज इस दिशा में एक छोटा-सा कदम हो सकता है । विज्ञान ने संसार के समस्त पदार्थों को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया है- ठोस, द्रव और गैस । इन तीनों में आपस में परिवर्तन होता रहता है । आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि पदार्थ ऊर्जा रूप में भी परिवर्तित किया जा सकता है । परमाणु भट्टियों से विद्युत उत्पादन प्रक्रिया इसका उदाहरण है । जैन सिद्धान्त के अनुसार ठोस, द्रव, गैस एवं ऊर्जा पुद्गल के ही विभिन्न पर्याय हैं और इन पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है । सूर्य की प्रकाश ऊर्जा से पृथ्वी के पेड़-पौधों को पोषण मिलता है । यह ऊर्जा का ठोस पर्याय में परिवर्तन का उदाहरण है । पुद्गल में मूलतः चार गुण होते हैं- स्पर्श, रस, गंध एवं रूप अथवा वर्ण । जैनदर्शन में वर्ण मुख्यतः पाँच प्रकार का होता है - लाल, पीला, नीला, कृष्ण (काला) एवं श्वेत । वर्ण पटल में सात रंग होते हैं जो कि क्रमश: कासनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी एवं लाल हैं । इसमें श्वेत एवं श्याम रंग नहीं हैं । किन्तु श्वेत रंग उपर्युक्त सात रंगों के मिश्रण से बनता है तथा कृष्ण रंग श्वेत रंग की अनुपस्थिति दर्शाता है । जैन दर्शन में श्वेत एवं श्याम वर्णं चक्षुइन्द्रिय की अपेक्षा से हैं । जैन दर्शन वर्ण के अनन्त भेद मानता है जो कि वैज्ञानिक दृष्टि से लाल रंग से कासनी रंग तक के विभिन्न तरंग परिणाम भी अनन्त हैं । अतएव वैज्ञानिक दृष्टि में भी वर्ण के अनन्त भेद हैं । विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि यदि किसी भी पुद्गल में उपर्युक्त चार में से कम से कम कोई एक गुण भी विद्यमान है तो उसमें अप्रकट रूप से २२२ Jain Education International शेष गुण अवश्य होंगे। यह संभव है कि हमारी इन्द्रियाँ इन्हें लक्षित न कर सकें किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक उपकरण शेष गुणों की उपस्थिति लक्षित कर सकते हैं । पुद्गल में अनन्त शक्ति होती है जो कि विज्ञान द्वारा सिद्ध की जा चुकी है। पुद्गल में संकोच एवं विस्तार होता रहता है । सूक्ष्म परिणमन एवं अवगाहन शक्ति के कारण परमाणु एवं स्कन्ध सूक्ष्म रूप में परिणत हो जाते हैं । आचार्य उमास्वाति द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र, द्वितीय अध्याय के सूत्र नं० ३६ के अनुसार शरीर पाँच प्रकार का होता है- औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस् एवं कार्मण । कार्मण शरीर सूक्ष्म है तथा इन्द्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता हैं । पुद्गल वर्गणाओं में अत्यन्त महत्वपूर्ण वर्गणा कार्मण वर्गणा के नाम से जानी जाती है । इसमें जीव द्रव्य का पुद्गल परमाणु के साथ संयोग होता है । इस संयोग की विशेषता यह है कि यह संयुक्त होकर भी पृथक्-पृथक् रहता है। मुक्त जीव को यह संयोग नहीं होता है किन्तु संसारी जीव को यह संयोग क्षण - प्रतिक्षण होता रहता है । जिस प्रकार ओर आकर्षित करती एक चुम्बकीय छड़ लोहे के छोटे कणों को अपनी (आत्मा) क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत उसी प्रकार जीव द्रव्य होकर कर्मों से प्रदूषित हो जाती है ! जीव द्रव्य एवं पुद्गल द्रव्य में बंध का मुख्य कारण जीव का अपना भावनात्मक परिणमन एवं पुद्गल प्रक्रिया है । आत्मा जब कर्म द्रव्य के सम्पर्क में आती है तो वहाँ संगलन की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इसके फलस्वरूप नई स्थिति निर्मित होती है । इसे कार्मण वर्गणा कहते हैं । जैन दर्शन में कर्म केवल संस्कार ही नहीं है किन्तु वस्तुभूत पुद्गल पदार्थ है । राग, द्वेष से युक्त जीव की मानसिक, वाचनिक एवं शारीरिक क्रियाओं के साथ कार्मण वर्गणाएँ जीव में आती हैं और जो उसके राग-द्व ेष का निमित्त पाकर जीव से बंध जाती हैं और आगे चलकर तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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