Book Title: Pravrajyavidhankulakam
Author(s): Pradyumnasuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 278
________________ श्री प्रव्रज्या० श्रीप्रद्यु. म्नीयवृत्ती तरूच्छेदः IN इंदत्तं // 28 // काले सुपत्तदाणं सम्मत्तविसुद्धयोहिलाभं च / अंत समाहिमरणं अभव्वजीवा न पावंति // 29 // अधिरेण थिरो समलेण निम्मलो परवसेण साहीणो। देहेण जइ विहिज्जइ धम्मो ता किं न पज्जत्तं ? // 30 जा दव्वे होइ मई अहवा तरुणीसु रूववंतीसु / सा जइ जिणवरधम्मे करयलमज्झट्ठिआ सिद्धी // 31 // जिणसासणस्स सारो चउदसपुव्वाण जो समुद्धारो। जस्स मणे नवकारो संसारो तस्स किं कुणइ? // 32 / / इइ पव्वज्जाविहाणपगरणं सम्मत्तं // इति चिरन्तनाचार्यविहितं प्रव्रज्याविधानकुलकं श्रीमत्प्रद्युम्नसूरिवरसूत्रितया. वृत्त्या तदर्वाग्भाव्याचार्यरचितया अवचूा च योजितं समाप्तं // 256 // CASSACHCHAGHASE इति वृत्त्यवचूर्णिद्वययुतं प्रव्रज्याविधानकुलकं // समाप्तम् // TE

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