Book Title: Pravrajya Yog Vidhi Author(s): Maniprabhsagar Publisher: Ratanmala PrakashanPage 18
________________ जाता है। जो कुछ उपदेश देना होता है, वह प्रारंभ में या विधि के मध्य में दे दिया जाता है। विधि मार्गप्रपा में आचार्य जिनप्रभसूरि ने धर्मोपदेश की चर्चा में यह भी लिखा है कि सो वि संवेगाइसयओ तहा सुणेइ, जहा अन्नो वि को वि पव्वज्जइ। अर्थात् वह शिष्य इस प्रकार संवेग रस में डूब कर उपदेश श्रवण करे कि उसे देख कर और उपदेश श्रवण कर कोई अन्य भी प्रव्रजित हो सकें । यही बात समाचारी शतक के दीक्षादानविधि के 86वें अधिकार में लिखी है। वैसे महोपाध्याय श्री समयसुंदरजी म. ने इस 86वें प्रश्न के उत्तर के प्रारंभ में ही स्पष्ट कर दिया है कि यह विधि विधिमार्गप्रपा के आधार पर संस्कृत भाषा में अनुदित करके लिख रहा हूँ। एक विशेष तथ्य यह है कि वर्तमान में नामकरण एवं दिग्बंध को एक ही मान लिया गया है। जबकि विधि ग्रन्थों में ये दोनों अलग विधियाँ है। नामकरण में मात्र नये नाम की घोषणा की जाती है। जबकि दिग्बंध में गुरू महाराज अपनी पूरी परम्परा यथा- कोटिक गण, वज्र शाखा, चन्द्र कुल, खरतरबिरूद आदि का वांचन करते हुए नूतन साधु या साध्वी का नाम घोषित करते हुए उसे अपने समुदाय में सम्मिलित करने की घोषणा करते हैं। दिग्बंध का अर्थ होता है नूतन साधु या साध्वी को अपनी परम्परा से जोड़ना! विधिमार्गप्रपा, आचार दिनकर, समाचारी शतक आदि विधि ग्रन्थों में प्रव्रज्या विधि अर्थात् लघु दीक्षा विधि में दिग्बंध करने का विधान नहीं लिखा है। उपस्थापना विधि अर्थात् बड़ी दीक्षा में ही दिग्बंध करने का विधान किया है। यह प्रश्न होता है कि फिर छोटी दीक्षा में दिग्बंध क्यों नहीं करना चाहिये ! तो इसका उत्तर स्पष्ट है कि छोटी दीक्षा मात्र सामायिक चारित्र है । वह कोई भी सकता है और अवधि पूर्ण होने पर उपस्थापना कर छेदोपस्थापनीय चारित्र में भी प्रवेश कर सकता है और चारित्र पालन की असमर्थता में गृहवास भी स्वीकार कर सकता है। इसी कारण छोटी दीक्षा होने के बाद उसे साधु गण अपनी मांडली में सम्मिलित नहीं करते । जब उसे अपनी मांडली में शामिल किया ही नहीं है तो दिग्बंध कैसा ! क्योंकि दिग्बंध का अर्थ तो उसे अपने समुदाय में सम्मिलित करना है। यह युक्तियुक्त ही है कि बड़ी दीक्षा के समय ही समुदाय में सम्मिलित करते हुए दिग्बंध किया जाता है। दिग्बंध के बिना वह समुदाय में सम्मिलित नहीं माना जाता है। इसी कारण साधु साध्वियों के पारस्परिक वंदन व्यवहार में उपस्थापना योग विधि / 11Page Navigation
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