Book Title: Pravrajya Yog Vidhi Author(s): Maniprabhsagar Publisher: Ratanmala PrakashanPage 16
________________ कभी निशाना ख्याल नहीं रख पाने के कारण यदि चावल बाहर गिरते हैं तो लोगों के सामने हँसी होती है । मन में वहम भी रह जाता है। दीक्षार्थी भी हीनभावों से भर जाता है। इस कारण वर्तमान में हम यह विधि नहीं कराते हैं। तब कई पुराने लोगों द्वारा कहा भी जाता है कि महाराज ! यह विधि क्यों नहीं कराते ! हकीकत में नहीं कराने का विधान भी शास्त्र आधारित ही है। विधिमार्गप्रपा का यह विधान द्रष्टव्य है जे पुण परंपरागयसावयकुलप्पसूया तेसिं परिक्खाकरणे न नियमो । अर्थात् जो परंपरागत श्रावक कुल में जन्मा है, उसके लिये परीक्षा का नियम नहीं है। देववंदन की विधि में चार स्तुति के बाद वर्तमान में णमुत्थुणं बोलकर श्री शान्तिनाथ देवाधिदेव की आराधना का कायोत्सर्ग किया जाता है। जबकि आचार दिनकर में चार स्तुति के बाद सीधे शान्तिनाथ प्रभु का कायोत्सर्ग करने का लिखा है । णमुत्थुणं करने का उल्लेख नहीं है । यह कायोत्सर्ग भी वर्तमान में एक नवकार का कराया जाता है, जबकि आचार दिनकर में 27 श्वासोच्छ्वास अर्थात् सागरवरगंभीरा तक एक लोगस्स या चार नवकार का विधान है। आचार दिनकर में दीक्षा विधि की पूर्णता के बाद धर्मोपदेश का विधान किया है, और तत्पश्चात् सर्वविरति सामायिक आरोपण का चार लोगस्स का कायोत्सर्ग करने का विधान है। ततः सर्वविरति सामायिकारोवणिअं करेमि काउसग्गं अन्नत्थ.... । कायोत्सर्गं चतुर्विंशतिस्तवचतुष्टयचिन्तनं पारयित्वा ..... । - आचार दिनकर भाग प्रथम पत्र 78 यह कायोत्सर्ग वर्तमान परम्परा में नामकरण से पूर्व एक लोगस्स का ही कराया जाता है। विधि मार्ग प्रपा तथा समाचारी शतक में आरोपण निमित्त एक लोगस्स के कायोत्सर्ग का ही विधान है तथा यह कायोत्सर्ग नामकरण, स्थिरीकरण के पूर्व ही कराने का उल्लेख है। आचार दिनकर में दीक्षा विधि में थिरीकरणत्थं का कायोत्सर्ग करने के बाद शक्रस्तव बोलने का विधान है। यह विधान विधिमार्गप्रपा आदि अन्य ग्रन्थों में नहीं है। वर्तमान में परम्परा में भी नहीं है। इसी प्रकार दिग्बंध से पूर्व शिष्य को चाहिये कि वह गुरू महाराज की तीन प्रदक्षिणा देते हुए वंदना करें, साथ ही योग विधि / 9Page Navigation
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