Book Title: Pratyaksha Vichar
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 5
________________ 156 6. दोषका निवारण-सिद्धसेनने अपरोक्षत्वको प्रत्यक्ष मात्रका साधारण लक्षण बनाया / पर उसमें एक त्रुटि है जो किसी भी सूक्ष्मप्रज्ञ ताकिंकसे छिपी रह नहीं सकती। वह यह है कि अगर प्रत्यक्षका लक्षण अपरोक्ष है तो परोक्षका लक्षण क्या होगा ? अगर यह कहा जाय कि परोक्षका लक्षण प्रत्यक्षभिन्नत्व या अप्रत्यक्षत्व है तो इसमें स्पष्ट ही श्रन्योन्याश्रय है। जान पड़ता है इस दोपको दूर करनेका तथा अपरोक्षत्वके स्वरूपको स्फुट करनेका प्रयत्न सर्वप्रथम महारक अकलङ्कने किया। उन्होंने बहुत ही प्राञ्जल शब्दों में कह दिया कि जो ज्ञान विशद है वही प्रत्यक्ष हैं-(लघी० 1.3) / उन्होंने इस बाक्यमें साधारण लक्षण तो गर्मित किया ही पर साथ ही उक्त अन्योन्याश्रय दोषको भी टाल दिया / क्योंकि अब अपरोक्षपद ही निकल गया, जो परोक्षत्वके निर्वचनकी अपेक्षा रखता था / अकलङ्क की लाक्षणिकताने, केवल इतना ही नहीं किया पर साथ ही वैशद्यका स्फोट भी कर दिया / वह स्फोट भी ऐसा कि जिससे सांव्यवहारिक पारमार्थिक दोनों प्रत्यक्षका संग्रह हो। उन्होंने कहा कि अनुमानादिको अपेक्षा विशेष प्रतिभास करना ही वैशय है--(लघी० 1. 4) / अकलङ्कका यह साधारण लक्षणका प्रयत्न और स्फोट ही उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर-दिगम्बर तार्किकोंके प्रत्यक्ष लक्षणमें प्रतिबिम्बित हुआ। किसी ने विशद् पदके स्थानमें 'स्पष्ट पद (प्रमाणन०२.२) रखा तो किसीने उसी पदको ही रखा--(परी 2.3) / प्रा. हेमचन्द्र जैसे अनेक स्थलोंमें अकलङ्कानुगामी हैं वैसे ही प्रत्यक्षके लक्षणके बारेमें भी अकलङ्कके ही अनुगामी हैं / यहाँ तक कि उन्होंने तो विशद पद और वैशयका विवरण अकलङ्कके समान ही रखा। अकलङ्ककी परिभाषा इतनी दृढमूल हो गई कि अन्तिम तार्किक उपाध्याय यशोविजयजीने भी प्रत्यक्षके लक्षणमें उसीका आश्रय किया-तर्कभाषा० पृ० 1 / ई० 1636] [प्रमाण मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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