Book Title: Pratyaksha Vichar
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 3
________________ १५० प्रत्यक्ष कहती है' और दूसरेको जो दर्शनान्तरोंमें अलौकिक प्रत्यक्ष कहा जाता है पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहती है । तथा पारमार्थिक प्रत्यक्षके कारणरूपसे लब्धि या विशिष्ट आत्मशक्तिका वर्णन करती है, जो एक प्रकार से जैन परिभाषामें योगज धर्म ही है । २. अलौकिक निर्विकल्पका स्थान - प्रश्न यह है कि अलौकिक प्रत्यक्ष निर्विकल्पक ही होता है या सविकल्पक ही होता है, या उभयरूप ? इसके उत्तर में एकवाक्यता नहीं । तार्किक बौद्ध और शाङ्करवेदान्त परम्पराके सर तो लौकिक प्रत्यक्ष निर्विकल्प ही संभवित है सविकल्पक कभी नहीं । रामानुजका मत* इससे बिलकुल उलटा है, तदनुसार लौकिक हो या अलौकिक कोई भी प्रत्यक्ष सर्वथा निर्विकल्पक संभव ही नहीं पर न्याय वैशेषिक आदि अन्य वैदिक दर्शन के अनुसार अलौकिक प्रत्यक्ष सविकल्पक निर्विकल्पक उभय संभवित जान पड़ता है । यहाँ संभवित शब्दका प्रयोग इसलिए किया है कि भासर्वज्ञ ( न्यायसार पृ० ४) जैसे प्रबल नैयायिकने उक्तरूपसे द्विविध योगि प्रत्यक्षका स्पष्ट ही कथन किया है फिर भी कणादसूत्र और प्रशस्तपादभाष्य श्रादि प्राचीन ग्रन्थोंमें ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश नहीं । जैन परम्परा के अनुसार अलौकिक या पारमार्थिक प्रत्यक्ष उभयरूप है । क्योंकि जैन दर्शनमें जो अवधिदर्शन तथा केवलदर्शन नामक सामान्यबोध माना जाता है वह अलौकिक निर्विकल्पक ही । और जो अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान तथा केवलज्ञानरूप विशेषबोध है वही सविकल्पक है । ३. प्रत्यक्षत्वका नियामक - प्रश्न हैं कि प्रत्यक्षत्वका नियामक तत्त्व क्या है, जिसके कारण कोई भी बोध या ज्ञान प्रत्यक्ष कहा जाता है ? इसका जवाब भी दर्शनों में एकविध नहीं । नव्य शाङ्कर वेदान्तके अनुसार प्रत्यक्षत्वका नियामक है प्रमाणचैतन्य और विषयचैतन्यका भेद जैसा कि वेदान्तपरिभाषा ( पृ० २३ ) मैं सविस्तर वर्णित है । न्याय-वैशेषिक, सांख्य योग, बौद्ध, भीमांसक दर्शन के अनुसार प्रत्यक्षत्वका नियामक है सन्निकर्षजन्यत्व, जो सन्निकर्ष से, चाहे वह सन्निकर्ष लौकिक हो या अलौकिक, जन्य है, वह सब प्रत्यक्ष | जैन दर्शनमें प्रत्यक्ष नियामक दो तत्त्व हैं । श्रागमिक परम्परा के अनुसार तो एक मात्र १. टिप्पणी पृ० २२ ! २. Indian Psychology : Perception. P. 352. प्रत्यक्षस्य कदाचिदपि न निर्विशेषविषयत्वम्' - श्री भाष्य ३. 'अतः पृ० २१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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