Book Title: Pratyaksha Vichar
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ आत्ममात्र सापेक्षत्व ही प्रत्यक्षत्वका नियामक (सर्वार्थ १. १२ ) है। जब कि तार्किक परम्पराके अनुसार उसके अलावा इन्द्रियमनोजन्यत्व भी प्रत्यक्षत्वका नियामक फलित होता है । (प्रमाणमी० १.२०) वस्तुतः जैनतार्किक परम्परा न्याय-वैशेषिक श्रादि वैदिक दर्शनानुसारिणी ही है । ४. प्रत्यक्षत्वका क्षेत्र प्रत्यक्षत्व केवल निर्विकल्पकमैं ही मर्यादित है या वह सविकल्पक में भी है ? इसके जवाब में बौद्ध का कथन है कि वह मात्र निर्विकल्पकमें मर्यादित है। जब कि बौद्ध भिन्न सभी दर्शनोंका मन्तव्य निर्विकल्पक-सविकल्पक दोनों में प्रत्यक्षत्वके स्वीकारका है। ५. जन्य नित्यसाधारण प्रत्यक्ष--अभीतक जन्यमात्रको लक्ष्य मानकर लक्षणकी चर्चा हुई पर मध्ययुगमें जब कि ईश्वरका जगत्कर्तृ रूपसे या वेदप्रणेतृ रूपसे न्याय वैशेषिकादि दर्शनों में स्पष्ट स्थान निर्णीत हुआ तभीसे ईश्वरीय प्रत्यक्ष नित्य माने जानेके कारण जन्य नित्य उभय साधारण प्रत्यक्ष लक्षण बनानेका प्रश्न ईश्वरवादियोंके सामने अाया। जान पड़ता है ऐसे साधारण लक्षणका प्रयत्न भासर्वज्ञने सर्वप्रथम किया । उसने 'सम्यगपरोक्षानुभव' (न्यायसार पृ० २) को प्रत्यक्ष प्रमा कहकर जन्य-नित्य उभय-प्रत्यक्षका एक ही लक्षण बनाया। शालिकनाथ जो प्रभाकरका अनुगामी है उसने भी 'साक्षात्प्रतीति' (प्रकरणप० पृ० ५१) को प्रत्यक्ष कहकर दूसरे शब्दोमैं बाह्यविषयक इन्द्रियजन्य तथा श्रात्मा और ज्ञानग्राही इन्द्रियाजन्य ऐसे द्विविध प्रत्यक्ष (प्रकरण१० पृ० ५१) के साधारण लक्षण का प्रणयन किया । पर आगे जाकर नव्य नैयायिकोंने भासर्वशके अपरोक्ष पद तथा शालिकनाथके साक्षात्प्रतीति पदका 'ज्ञानाकरणकशान' को जन्य-नित्य साधारण प्रत्यक्ष कहकर नव्य परिभाषामें स्पष्टीकरण किया (मुक्ता० ५२)। इधर जैनदर्शनके तार्किकोंमें भी साधारणलक्षणप्रणयनका प्रश्न उपस्थित हुअा जान पड़ता है। जैन दर्शन नित्यप्रत्यक्ष तो मानता ही नहीं अतएव उसके सामने जन्य-नित्यसाधारण लक्षणका प्रश्न न था । पर सांव्यवहारिक, पारमार्थिक उभयविध प्रत्यक्षके साधारण लक्षणका प्रश्न था। जान पड़ता है इसका जवाब सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकरने ही दिया। उन्होंने अपरोक्षरूप ज्ञानको प्रत्यक्ष कहकर सांव्यवहारिक-पारमार्थिक उभयसाधारण अपरोक्षत्वको लक्षण बनाया ( न्याया• ४)। यह नहीं कहा जा सकता कि सिद्धसेनके 'अपरोक्ष'पदके प्रयोगका प्रभाव भासर्वज्ञके लक्षणमें है या नहीं ? पर इतना तो निश्चित ही है कि जैन परम्परामें अपरोक्षत्वरूपसे साधारण लक्षणका प्रारंभ सिद्धसेनने ही किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5