Book Title: Pratikraman Sutra par Ek Prachin Pustak Sankshipta Parichay Author(s): Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 3
________________ 286 15, 17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी मुनिवर प्रमाणरूप से भगवती सूत्र का पाठ देते हैं, किन्तु बात ऐसी नहीं है, हमारे जानते श्रमणसूत्र में बहुत कुछ विमर्श की जरूरत है। क्योंकि आज तक प्रचलित श्रावक प्रतिक्रमण मानने वाले साधुमार्गीय, मन्दिरमार्गीय, तेरापंथी इन तीनों समुदायों में सिर्फ साधुमार्गीय में गिनी हुई सम्प्रदायों में ही इसका प्रचार है। इन सम्प्रदायों में भी श्रमणसूत्र के लिये जो आग्रह आज है, वह पहले नहीं था। मालवा, मेवाड़, दक्षिण में कुछ हिस्सा इस आम्नाय को मानने वाला है, किन्तु मुनि श्री तिलोकऋषि जी सम्पादित सत्यबोध में अपनी आम्नाय के प्रतिकूल श्रावक सूत्र ही दिया और मालवा मरुधर आदि में श्रावक सूत्र वाला प्रतिक्रमण ही कई जगह पढ़ाते थे। किन्तु आज तो उस विषय में आग्रह होने लगा है, प्रसन्नता का विषय है कि श्रावक प्रतिक्रमण में श्रमणसूत्र को आवश्यक का अंग न मानने वाले श्रावक सूत्रानुयायी मुनिगणों ने भी समाज - -हित ये श्रावक प्रतिक्रमण के परिशिष्ट में श्रमण सूत्र को रखा है, अपने मत की रक्षा का लक्ष्य छोड़कर यदि समाज हित को ध्यान में रख सभी विज्ञ मुनिवर व श्रावक विचार करें तो भविष्य में एकता सहज हो । श्रमणसूत्र श्रावक प्रतिक्रमण में आवश्यक है या नहीं? यह विषय गहरे मनन की जरूरत रखता है, क्योंकि आजतक प्रचलित मूर्तिपूजक व तेरापंथ सम्प्रदाय को भी आवश्यक मान्य है, किन्तु उसमें श्रमणसूत्र का प्रवेश इष्ट नहीं रहा, साधुमार्गीय सम्प्रदाय की बात इसमें भी बहुत से समुदायों में श्रमणसूत्र रहित ही पढ़ा जाता है, ऐसी हालात में जो श्रमणसूत्र का पाठ श्रावक प्रतिक्रमण में दाखिल किया गया है, उसका क्या कारण है ? आज इन पाठों की क्या आवश्यकता है? इस पुस्तक में पूज्य उपाध्याय श्री आत्माराम जी म.सा. के द्वारा लिखित भूमिका अतीव उपयोगी है। भूमिका से कुछ विचार यहाँ संकलित हैं “आर्हतमत के आवश्यक में विशेषता यह है कि दोनों समय विधिपूर्वक करने से गृहस्थों को अपनी क्रियाओं का बोध भली भाँति होता रहता है, अन्य उपासनाओं से बढ़कर इस आवश्यक में आत्मविकास के लिये मसाला पर्याप्त है। इस प्रकार छः अध्ययनों के समान लौकिक व आत्मिक विकास का समावेश अन्य किसी भी उपासना में नहीं है, अन्य धर्मों में जो उद्देश्य अनेक धर्मग्रन्थों को पढ़ने से, उपदेश - श्रवण से व सत्संगति से नहीं सिद्ध होता है वह उद्देश्य जैन मत के सविधि आवश्यक करने से ही भली भाँति सिद्ध होता है। आवश्यक की आराधना से क्या नहीं मिलता है? भावना से आत्मा -1 -निज कल्याण कर सकती है, १२ व्रतों के ६० अतिचार गृहस्थाश्रम के तमाम नियमों को सूचित करते हैं, इस प्रकार सर्वथा लाभ कहीं भी अन्य उपासनाओं में नहीं मिलते हैं। अन्य उपासनाओं में जहाँ आत्मा को विषयाभिमुख बनाने का बीज है वहाँ आवश्यक में आत्म-रमणता का भाव भरा है। अतः सर्वथा सर्वातिशयत्व इस आवश्यक में विचारोत्तर सिद्ध होता है। 'नित्य, कर्त्तव्य सूत्रपाठ देश कालानुसार सदा संक्षिप्त ही होते हैं जिससे कि बालवृद्ध रोगी सभी सर्वत्र सुभीता से पढ़ सकें। इस उद्देश्य से इस आवश्यक के छः अध्ययन भी संक्षिप्त ही रखे गये हैं। ये इतने बड़े नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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