Book Title: Pratikraman Sutra par Ek Prachin Pustak Sankshipta Parichay
Author(s): 
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र पर एक प्राचीन पुस्तक : संक्षिप्त परिचय 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 284 सन् १९३३ के अजमेर साधु-सम्मेलन में निर्धारित प्रतिक्रमण निर्णय समिति के द्वारा मान्य श्रावक - प्रतिक्रमण पर एक पुस्तक 'सामायिक प्रतिक्रमण सूत्र' प्रकाशित हुई थी, जो आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमल जी म.सा. द्वारा तैयार की गई थी। इस पुस्तक का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत है । -सम्पादक सामायिक एवं प्रतिक्रमण पर जैन रत्न पुस्तकालय, सिंहपोल, जोधपुर से सन् १९३५ ( संवत् १९९२) में पूज्य श्री हस्तीमल जी म.सा. के सहयोग से सम्पादित एवं सन् १९३३ के अजमेर साधु सम्मेलन द्वारा निर्धारित प्रतिक्रमण समिति के सदस्य मुनियों द्वारा बहुमत से स्वीकृत 'सार्थ सामायिक प्रतिक्रमण सूत्र' पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में स्थानकवासी साधुमार्गीय संघ के लिए सर्वमान्य एक प्रतिक्रमण प्रस्तुत करने का अभिनन्दनीय प्रयास किया गया था। अजमेर सम्मेलन में प्रतिक्रमण के संबंध में कुछ निर्णय हुए थे, वे इस प्रकार हैं १. प्रतिक्रमण में एकरूपता के लिए सात मुनियों की एक समिति नियत की गई तथा यह तय किया गया कि समिति द्वारा कृत निर्णय सर्वमान्य होगा । वे सात मुनिवर्य थे- १. पूज्य श्री हस्तीमल जी म.सा. २. श्री सौभाग्यमुनि जी म.सा. ३. लघुशतावधानी मुनि श्री सौभाग्यचन्द्र जी म. सा. ४. लिम्बड़ी सम्प्रदाय के संत श्री मंगलस्वामी जी म.सा. के शिष्य श्याम जी महाराज सा. ५. उपाध्याय श्री आत्माराम जी म.सा. ६. पूज्य श्री अमोलकऋषि जी म.सा. ७. मुनि श्री छगनलाल जी म.सा. । २. पाँचवें आवश्यक 'कायोत्सर्ग' में चार, आठ, बारह, बीस लोगस्स का ध्यान किया जाये । पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. ने एक प्रश्नावली तैयार करवायी। जिनमें बहुत से प्रश्न तो पाठों के सम्बन्ध में थे और कुछ प्रश्न प्रतिक्रमण की मौलिकता के सम्बन्ध में भी थे। उस समय चतुर्विंशतिस्तव के बाद प्रतिक्रमण न तो मूल प्राकृत भाषा में था और न पूर्ण देशी / हिन्दी भाषा में था, अपितु मूल व हिन्दी भाषा मिश्रित था। प्रश्नावली मुख्य ११ मुनियों की सेवा में सम्मति के लिए भेजी गई। जैन दिवाकर उपाध्याय श्री आत्माराम जी म.सा. की सेवा में पण्डित जी (श्री दुःखमोचन जी झा) गये । सौभाग्यवश उस अवसर पर शतावधानी श्री रत्नचन्द्र जी म.सा., पूज्य अमोलकऋषि जी महाराज, पूज्य श्री काशीराम जी म.सा. भी वहाँ पधारे हुए थे। चारों मुनिवरों के उपयोगी पारस्परिक विमर्श के बाद जो सम्मति बनी, उसका सार था Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी केवली' प्रथम पद में ही बोले जायें, यही योग्य है। प्रतिक्रमण मूल प्राकृत भाषा में और देशी भाषा में स्वतंत्र प्रति पृथक्-पृथक् तैयार की जाय। अभ्यासी लोग अपनी-अपनी श्रद्धा व शक्ति के अनुसार उन दोनों स्वतंत्र प्रतियों में चाहे जिसे अपनावें अर्थात् यह अच्छा और वह बुरा, इस तरह विवाद नहीं करें। ऐसा करने से सर्वथा सुरुचि और प्रचार सभी सुरक्षित रह सकते हैं। श्रमणसूत्र वालों के लिए श्रमण सूत्र और श्रावक सूत्र वालों के लिए श्रावक सूत्र हो तो बहुत ठीक होगा। जब पूज्य श्री चातुर्मासार्थ पाली पधारे तब पुनः इस कार्य का प्रारम्भ शांति पाठशाला, पाली के प्रधानाध्यापक जैन न्याय व्याकरण तीर्थ श्री चाँदमल जी द्वारा करवाया गया। प्राचीन, अर्वाचीन, हिन्दी, गुजराती भाषा को प्रतिक्रमण पुस्तकों एवं उपासकदशांग सूत्र के आधार से प्रतिक्रमण का लेखन हुआ, जिसे प्रतिक्रमण निर्णय समिति के सदस्य मुनिवरों की सेवा में दिखाया गया। साथ ही कुछ विज्ञमुनिवरों की भी सम्मति ली गई। तदनुसार आचार्य श्री हरिभद्रसूरि कृत आवश्यक बृहद् वृत्ति के आधार से तथा आवश्यक की प्राचीनतर हस्तलिखित श्राद्ध प्रतिक्रमणावचूरि के आधार से विशेष परम्परा को भी यथाशक्य सुरक्षित रखते हुए शुद्ध मूल प्राकृत भाषा बद्ध एवं व्रतातिचार मूल व हिन्दी भाषा दोनों में निबद्ध प्रतिक्रमण सूत्र तैयार किया गया। वर्तमान में प्रचलित श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र का आधार संभवतः पूज्य श्री हस्तीमल जी म.सा. द्वारा तैयार किया गया प्रतिक्रमण सूत्र रहा है। विशेष भेद यह है कि पूज्यश्री के द्वारा तैयार किये गये प्रतिक्रमण में श्रावक के बारह व्रतों के अतिचारों के पाठ दो तरह से दिये गये हैं। एक तो पूरी तरह प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं तथा दूसरे हिन्दी भाषा में दिये गये हैं। वर्तमान में प्रचलित प्रतिक्रमण सूत्र में बारह व्रतों के अतिचारों का पाठ पहले हिन्दी भाषा में है तथा फिर प्राकृत एवं हिन्दी की मिश्रित भाषा में है। भाव वन्दना के पाठों में तिलोकऋषि द्वारा रचित सवैया उस समय की पुस्तक में भी उपलब्ध हैं। 'सामायिक-प्रतिक्रमण' नामक इस पुस्तक में प्रतिक्रमण निर्णय-समिति के मान्य मुनिवर्यों की सम्मतियाँ भी प्रकाशित हैं। श्रमण सूत्र को श्रावक-प्रतिक्रमण सूत्र में रखने के सम्बन्ध में सदस्य मुनिवर एकमत नहीं थे। लधु शतावधानी मुनि श्री सौभाग्यचन्द्र जी महाराज ने अपनी सम्मति में अभिव्यक्त किया कि श्रमण सूत्र प्रतिक्रमण पाठ में भले ही रहे किन्तु उसका उपयोग व्रत (पौषध) के दिन ही हो। उपाध्याय श्री आत्माराम जी म.सा. का अभिमत था कि श्रमण सूत्र परिशिष्ट में ही रहना चाहिए। जिसकी इच्छा हो वह पढ़े। पूज्य श्री हस्तीमल जी म.सा. ने मुनिवर्यों की राय में मध्यस्थता एवं बहुमत का पालन करते हुए श्रमणसूत्र के पाँच पाठों को तथा २५ मिथ्यात्व के पाठ और १४ स्थान में उत्पन्न होने वाले सम्मूर्छिम के पाठ को परिशिष्ट में रखना उचित समझा। पूज्य श्री हस्तीमल जी म.सा. का मन्तव्य पुस्तक में सूचना' शीर्षक से निम्नानुसार प्रकाशित है "श्रमण शब्द का अर्थ केवल साधु ही नहीं है किन्तु श्रावक भी इसका अर्थ है, इसमें हमारे आराध्य Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 15, 17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी मुनिवर प्रमाणरूप से भगवती सूत्र का पाठ देते हैं, किन्तु बात ऐसी नहीं है, हमारे जानते श्रमणसूत्र में बहुत कुछ विमर्श की जरूरत है। क्योंकि आज तक प्रचलित श्रावक प्रतिक्रमण मानने वाले साधुमार्गीय, मन्दिरमार्गीय, तेरापंथी इन तीनों समुदायों में सिर्फ साधुमार्गीय में गिनी हुई सम्प्रदायों में ही इसका प्रचार है। इन सम्प्रदायों में भी श्रमणसूत्र के लिये जो आग्रह आज है, वह पहले नहीं था। मालवा, मेवाड़, दक्षिण में कुछ हिस्सा इस आम्नाय को मानने वाला है, किन्तु मुनि श्री तिलोकऋषि जी सम्पादित सत्यबोध में अपनी आम्नाय के प्रतिकूल श्रावक सूत्र ही दिया और मालवा मरुधर आदि में श्रावक सूत्र वाला प्रतिक्रमण ही कई जगह पढ़ाते थे। किन्तु आज तो उस विषय में आग्रह होने लगा है, प्रसन्नता का विषय है कि श्रावक प्रतिक्रमण में श्रमणसूत्र को आवश्यक का अंग न मानने वाले श्रावक सूत्रानुयायी मुनिगणों ने भी समाज - -हित ये श्रावक प्रतिक्रमण के परिशिष्ट में श्रमण सूत्र को रखा है, अपने मत की रक्षा का लक्ष्य छोड़कर यदि समाज हित को ध्यान में रख सभी विज्ञ मुनिवर व श्रावक विचार करें तो भविष्य में एकता सहज हो । श्रमणसूत्र श्रावक प्रतिक्रमण में आवश्यक है या नहीं? यह विषय गहरे मनन की जरूरत रखता है, क्योंकि आजतक प्रचलित मूर्तिपूजक व तेरापंथ सम्प्रदाय को भी आवश्यक मान्य है, किन्तु उसमें श्रमणसूत्र का प्रवेश इष्ट नहीं रहा, साधुमार्गीय सम्प्रदाय की बात इसमें भी बहुत से समुदायों में श्रमणसूत्र रहित ही पढ़ा जाता है, ऐसी हालात में जो श्रमणसूत्र का पाठ श्रावक प्रतिक्रमण में दाखिल किया गया है, उसका क्या कारण है ? आज इन पाठों की क्या आवश्यकता है? इस पुस्तक में पूज्य उपाध्याय श्री आत्माराम जी म.सा. के द्वारा लिखित भूमिका अतीव उपयोगी है। भूमिका से कुछ विचार यहाँ संकलित हैं “आर्हतमत के आवश्यक में विशेषता यह है कि दोनों समय विधिपूर्वक करने से गृहस्थों को अपनी क्रियाओं का बोध भली भाँति होता रहता है, अन्य उपासनाओं से बढ़कर इस आवश्यक में आत्मविकास के लिये मसाला पर्याप्त है। इस प्रकार छः अध्ययनों के समान लौकिक व आत्मिक विकास का समावेश अन्य किसी भी उपासना में नहीं है, अन्य धर्मों में जो उद्देश्य अनेक धर्मग्रन्थों को पढ़ने से, उपदेश - श्रवण से व सत्संगति से नहीं सिद्ध होता है वह उद्देश्य जैन मत के सविधि आवश्यक करने से ही भली भाँति सिद्ध होता है। आवश्यक की आराधना से क्या नहीं मिलता है? भावना से आत्मा -1 -निज कल्याण कर सकती है, १२ व्रतों के ६० अतिचार गृहस्थाश्रम के तमाम नियमों को सूचित करते हैं, इस प्रकार सर्वथा लाभ कहीं भी अन्य उपासनाओं में नहीं मिलते हैं। अन्य उपासनाओं में जहाँ आत्मा को विषयाभिमुख बनाने का बीज है वहाँ आवश्यक में आत्म-रमणता का भाव भरा है। अतः सर्वथा सर्वातिशयत्व इस आवश्यक में विचारोत्तर सिद्ध होता है। 'नित्य, कर्त्तव्य सूत्रपाठ देश कालानुसार सदा संक्षिप्त ही होते हैं जिससे कि बालवृद्ध रोगी सभी सर्वत्र सुभीता से पढ़ सकें। इस उद्देश्य से इस आवश्यक के छः अध्ययन भी संक्षिप्त ही रखे गये हैं। ये इतने बड़े नहीं Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 287 115,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी हैं जो नियत स्थान पर ही पढ़े जा सकते हैं।" "कालक्रम से अथवा रुचि के वैचित्र्य से या देशभेद से जो इस आवश्यक सूत्र में पाठ भेदादि यत्रतत्र उपलब्ध हैं उस भेद को मिटाने के लिये अजमेर के मुनि-सम्मेलन में यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि आवश्यक सूत्र के मूल पाठ एक होना चाहिये। जैसे श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज में आवश्यक के बहुत से पाठ बढ़ गये हैं, इसी प्रकार श्वेताम्बर साधुमार्गीय शाखा में भी कतिपय गुजराती, मारवाड़ी आदि भाषा में भी पाठ देखने में आते हैं। जिससे आवश्यक एक मिश्रित भाषा में हो गया है, अतः मौलिक अर्द्धमागधी भाषा में आवश्यक सूत्र हो तो स्थानकवासी शाखा में एक प्रतिक्रमण हो सकता है।" “आनन्द का विषय है कि हमारे सुहृद्वर्य मरुस्थलीय आचार्यवर्य पूज्य श्री हस्तीमल जी म.सा. ने इस काम को अपने हाथ में लिया। कतिपय प्राचीन आवश्यकों की प्रतियों के आधार से इस मौलिक आवश्यक सूत्र के शुद्ध पाठों का संग्रह कर जनता पर परमोपकार किया है। इस आवश्यक सूत्र में उत्तराध्ययन सूत्र के २९वें अध्ययन में आए हुए छः आवश्यक सूत्र पाठों के क्रम के अनुसार पाठ संग्रह है।" -नौरतन मेहता, सह सम्पादक-जिनवाणी घोड़ों का चौक, जोधपुर (राज.)