Book Title: Pratikraman Katipay Pramukh Bindu
Author(s): Ranidan Bhansali
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 4
________________ 15, 17 नवम्बर 2006] होता है। जिनवाणी खेत्तवत्थुप्पमाणाइकम्मे (अणुव्रत ५वाँ अपनी स्वामित्व की भूमि का अतिक्रमण | खित्तवुड्ढी - (छठा अणुव्रत ) - गमन क्षेत्र का अतिक्रमण । यही दोनों में अन्तर है। 275 किसी भी प्रकार के कायोत्सर्ग अवस्था में आँखे न तो पूरी बंद और न ही पुरी खुली रहनी चाहिये। कुछ खुली और कुछ बंद रखनी चाहिये। आधार तस्स उत्तरीकरणेणं का पाठ । चौथे पद की वंदना में ४ निक्षेप हैं - १. नाम २. स्थापना ३. द्रव्य और ४. भाव । चार प्रमाण- १. T आगम प्रमाण २. प्रत्यक्ष ३. उपमा ४ अनुमान । सात नय- १. नैगम नय २. संग्रह नय ३. व्यवहार नय ४. ऋजुसूत्र नय ५. शब्द नय ६. समभिरूढ नय ७ एवंभूतनय । चार मूलसूत्र हैं। मूलसूत्र की संज्ञा क्यों दी है ? आत्मा के मूलगुण चार हैं- ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । इनमें से ज्ञान - नंदीसूत्र, दर्शन, अनुयोगद्वार सूत्र, चारित्र - दशवैकालिक और तप उत्तराध्ययन सूत्र की अपेक्षा से है। चौथे पद की वंदना में सारए विस्मृत पाठ का स्मरण कराने वाले । वारए पाठों की अशुद्धि बताने वाले। धारए- नया पाठ सिखाने वाले ये अर्थ होते हैं। प्रतिक्रमण में छठा आवश्यक प्रत्याख्यान यदि काल के उपरान्त (सूर्योदय के बाद) धारण करे तो अर्थात् काल का अतिक्रमण करे तो साधु के लिये १ उपवास और श्रावक के लिये १ सामायिक का प्रायश्चित्त बताया है, यहाँ आगम आधार नहीं है, मात्र व्यवस्था रूप है। सातवें व्रत के अतिचारों में जो १५ कर्मादान हैं। उनमें से छठे से दसवें तक दंतवाणिज्जे से विषवाणिज्जे तक ये पाँच व्यापार रूप हैं बाकी के दस कर्मरूप हैं। देवसिय, राइय प्रतिक्रमण में छठे आवश्यक में जो भी पच्चक्खाण करते हैं वह पच्चक्खाण, पच्चक्खाण करते ही चालू हो जाते हैं। चाहे नवकारसी हो, पोरसी हो या कोई भी पच्चक्खाण हो । खुला रखे तो पच्चक्खाण के अनुरूप होते हैं। - दयाव्रत के ११ अणुव्रत में लेना या दसवें में दसवें व्रत में मर्यादित भूमि में हिंसादि आस्रव खुले रहते हैं। दयाव्रत में हिंसादि आस्रवों का यथाशक्ति करण योगों से त्याग किया जाता है। दयाव्रत दसवें व्रत में आ ही नहीं सकता। इसे ग्यारहवें व्रत में समझना चाहिए। कम समय के लिये एक आहार या चारों आहार खुला रखने से देश पौषध होता है। भगवती सूत्र शतक १२ उद्देशक पहले में, पुश्कली जी आदि श्रावकों लिए खाते-पीते पौषध करने का उल्लेख है जिसे अभी दया कहते हैं । Jain Education International जिसने यावज्जीवन के लिए नवकारसी, पोरसी आदि उत्तरगुण रूप पच्चक्खाण लिये हैं, उन्हें प्रतिदिन नवकारसी आदि पच्चक्खाण पालना आवश्यक हैं। यदि ५ अणुव्रत जो श्रावक के लिये देशमूलगुण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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