Book Title: Pratikraman Atmvishuddhi ka Amogh Upay Author(s): Hirachandra Acharya Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 5
________________ | 15,17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी | 191 दलिक इकट्ठे करने लग गये, ये विचार मानसिक थे, इसलिये गहरे पश्चात्ताप से उन्होंने शुद्धीकरण कर केवलज्ञान उपार्जित कर लिया।" सामान्य से लेकर विशेष प्रसंगों तक के स्थानांग सूत्र के छठे ठाणे में भगवान् महावीर ने साधु-साध्वी के लिए छः प्रकार के प्रतिक्रमण कहे हैं- “छविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते तंजहा''१. उच्चारपडिक्कमणे- मल विसर्जन के पश्चात् वापस आने पर ईपिथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना। २. पासवणपडिक्कमणे- मूत्र विसर्जन के पश्चात् वापस आने पर ई-पथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना। ३. इत्तरिए पडिक्कमणे- देवसिय, राइय आदि प्रतिक्रमण करना अथवा भूल हो जाने पर तत्काल मिथ्यादुष्कृत कहकर प्रतिक्रमण करना। ४. आवकहिए पडिक्कमणे- मारणान्तिकी संलेखना के समय किया जाने वाला प्रतिक्रमण । ५. जंकिंचि मिच्छा पडिक्कमणे- साधारण दोष लगने पर उसकी शुद्धि के लिये 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहकर पश्चात्ताप प्रकट करना! ६. सोमणंतिए पडिक्कमणे- दुःस्वप्नादि देखने पर किया जाने वाला प्रतिक्रमण। कर्म आने के पाँच स्थान हैं, अतः प्रतिक्रमण भी पाँच प्रकार का बताया गया है, जिन्हें रूपकों से समझें१. मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण- इसे समझने के लिए रूपक है- लोहे की ताड़ियों का दरवाजा, जिससे आतंककारी, चोर, पशु, पक्षी, दुश्मनों का प्रवेश बंद हो जाये। २. अव्रत का प्रतिक्रमण- छोटी बड़ी तार की जाली, जिससे मक्खी मच्छर का प्रवेश बंद हो जाये। ३. प्रमाद का प्रतिक्रमण- काँच का दरवाजा, जिससे हवा, धूलि, बाहरी शोरगुल बंद हो जाय । ४. कषाय का प्रतिक्रमण- लकड़ी का दरवाजा- जिससे बाहर की शक्ल सूरत भी दिखाई नहीं दे। ५. अशुभयोग का प्रतिक्रमण- छिद्र रहित सपाट दरवाजा, जिससे अति बारीक रज-धूलि भी प्रविष्ट न हो। अनुयोगद्वार सूत्र में प्रतिक्रमण के दो भेद किये गये हैं- द्रव्य आवश्यक एवं भाव आवश्यक। यदि आपने याद किया हो तो वे सूत्र इस प्रकार हैं "तं आवस्सयमितिपदं सिक्खियं, थियं, जियं, मियं, परिमियं, नामसमं, घोसन्सम, अहीणक्खरं, अणच्चक्खरं, अविद्धाक्खरं, अक्खलियं, अमिलियं, अवच्चामेलियं, पडिपुण्णं, पडिपुण्णधोसं, कण्ठोट्ठविमुक्कं, वायणोवगयं दव्वावस्सयं । अणुवओगं।" द्रव्यावश्यक के विविध रूप हैं, यथा- १. शिक्षित- सम्यक् उच्चरित २. स्थित-न भूलने से जो मन में याद रहे ३. जित- दूसरे के पूछने पर शीघ्र उत्तर दे सके ४. मित पद- जो अक्षरों से मर्यादित है ५. परिमितक्रम-विरुद्ध क्रम से आवृत्ति ६. नामसम- शिक्षित आदि पाँचों से युक्त, स्वप्न में भी कह दे ७. घोषसमहस्व, दीर्घ रूप से शुद्ध उच्चारण ८. अहीनाक्षर- एक अक्षर भी कम नहीं ९. अनत्यक्षर- एक अक्षर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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