Book Title: Pratikraman Atmvishuddhi ka Amogh Upay Author(s): Hirachandra Acharya Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 9
________________ 23 ||15,17 नवम्बर 2006|| | जिनवाणी भगवान् महावीर के समक्ष आलोचना करने पर श्रावक को इतना अवधिज्ञान हो सकता है- ऐसा कहने पर बेले का पारणा करने के बजाय अपने अनुपयोग का प्रायश्चित्त करने हेतु वे आनन्द से क्षमायाचना करने पहुँचे और प्रमाद की शुद्धि के बाद पारणा किया। .. पूर्व स्नेह के कारण गुफा में महासती राजीमती को यथाजात (नग्न) देखकर महाश्रमण रथमि ने भोगों का निमंत्रण किया, पर राजीमती के सुभाषित वचन सुनकर अपने विकार दूर कर केवलज्ञानी बन गये। मैं बड़ा हूँ, पूर्व में दीक्षित हूँ, लघु भ्राताओं को वन्दन करने कैसे जाऊँ? इस अहंकार में बाहुबली एक वर्ष तक कठोर साधना करते रहे। आखिर महासती ब्राह्मी, सुन्दरी से हाथी से उतरने की बात सुनकर अहम् हटाकर विनम्र भाव से ज्यों ही कदम बढ़ाया, कषाय का प्रतिक्रमण होने से केवलज्ञान हो गया। इसी तरह इतनी ऋद्धि के साथ मेरी तरह ठाट-बाट से भगवान को वन्दन करने कौन गया होगा, ऐसा दशार्णभद्र को अहम् भाव आया किन्तु देवेन्द्र की ऋद्धि देखकर, आत्म-विकास में बाधक, अहम् हटा और महाराज दशार्णभद्र ने दीक्षा ग्रहण कर ली। इस तरह स्व-आत्म विकास में बाधक मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय से हटकर अपनी आत्मा को इन विभावों से हटाकर, स्वभाव में लाना, बाहर से हटकर अन्तर्मुखी बनना भाव प्रतिक्रमण है और यही प्रतिक्रमण कर्मो की धूल को झाड़कर आत्मा को परमात्मा बनाता है, इसी को करने की आवश्यकता है। जो करेंगे, वे तिरेंगे, इन्हीं भावनाओं के साथ..... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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