Book Title: Pratikraman Atmvishuddhi ka Amogh Upay
Author(s): Hirachandra Acharya
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 4
________________ 18 जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 । मनोवृत्ति नहीं है। नासमझी के कारण वह ऐसा करता है- जैसे नादान बालक पिता की मूँछें खींच लेता है, माता के मुख पर तमाचा मार देता है, नादानी में लात भी मार देता है, ये भूलें वैसे साधारण नहीं हैं, यदि समझदार व्यक्ति करे तो उसे प्रतिकार स्वरूप दण्ड भी दिया जा सकता है। लेकिन नादान शिशु के लिये ऐसा कुछ भी नहीं है । यहाँ तक कि वह गोद में लेने वाले के कीमती वस्त्रों को मलमूत्र से गंदा भी कर देता है, फिर भी वह रोष करने लायक नहीं, क्षमा के योग्य है। उसे पीटने की बजाय दुलारते देखा जा सकता है। कभी अतिवृद्ध, स्थविर और रोग से घिरे हुए लोगों की भूलों पर ध्यान भी नहीं दिया जाता है, कारण है उनके मन में बुराई करना, बदला लेना जैसा कुछ भी नहीं है। समाज में प्रायः ये भूलें क्षम्य मानी गई हैं। धर्म के क्षेत्र में भी इनका कोई महत्त्व नहीं है। (२) आवेशजन्य भूल- दूसरा विभाग आवेग या आवेश अथवा क्षणिक उत्तेजना का परिणाम है । विपरीत व्यवहार, अघटित घटना एवं संकट के प्रसंग पर कभी सहसा व्यक्ति को कुछ आवेश आ जाता है। स्वाभिमान पर ठेस पहुँचने पर वह कभी भान भूल जाता है, कुछ का कुछ कह बैठता है, कर देता है। गाली देना, मारना, पीटना आदि आवेश में हो जाता है, “यह भूल नोट करने जैसी है ।" सामाजिक क्षेत्र में इसका अधिक मूल्य तो नहीं है और समझदार प्रायः इस पर ध्यान भी नहीं देते हैं, फिर भी आध्यात्मिक क्षेत्र में यह भूल, क्षमा माँगने, दूसरे का खेद मिटाने और पश्चात्ताप करने योग्य है। जैसे आँख में गिरा हुआ छोटा सा तिनका या रजकण खटकता है। पैर में लगा छोटा काँटा भी निकाले बिना गति नहीं मिलती, इसी तरह विवेकवान, समझदार व्यक्तियों को इस आवेग या आवेशजन्य भूल की भी तत्काल क्षमायाचना कर हार्दिक पश्चात्ताप कर लेना चाहिये, जिससे ये भूलें आगे नहीं बढ़ें। (३) योजनाबद्ध भूल- तीसरा विभाग है योजनाबद्ध संकल्पपूर्वक की जाने वाली भूलों का। ये भूलें करने के साथ दण्ड के क्षेत्र में आती हैं। सामाजिक दृष्टि से हत्या करना, धोखा देना, जालसाजी करना, व्यभिचार, देशद्रोह, आतंक, रिश्वतखोरी, सत्ता का दुरुपयोग, लांछन, कलंक आदि के रूप में यह भूलें क्षम्य नहीं हैं । समाज अथवा व्यवहार क्षेत्र में ऐसा करने वाला कठोर दण्ड का अधिकारी होता है और साधना के क्षेत्र में उग्र प्रायश्चित्त का । कषायजनित ये भूलें भयंकर द्वेष बढ़ाने वाली हैं। एक जन्म नहीं, जन्म-जन्म तक दुःख देने वाली हैं। तन के कैंसर की गाँठ एक जन्म (जीवन) समाप्त करती है, मन के कषाय की गाँठ जन्म-जन्म तक दुःख देती है। राजा-महाराजा, चक्रवर्ती ही नहीं, तीर्थंकर को भी नहीं छोड़ती। गहरा पश्चात्ताप, तीव्र तप और दीर्घकाल का संयम भी कभी-कभी इन भूलों के परिमार्जन में पर्याप्त नहीं होता। बिना भोगे इनसे छुटकारा नहीं है, अतः ऐसी भूलें सम्यग्दृष्टि श्रावक और साधक के जीवन में होती नहीं हैं अथवा इन भूलों के होने पर श्रावकत्व और साधुत्व के भाव नहीं रहते हैं। अनार्यों के जीवन की इन घटनाओं को देखकर सम्यग्दृष्टि श्रावकों, साधुओं से ऐसी भूलें नहीं हो, यही सावधानी 'विवेक' है और 'प्रतिक्रमण' की भूमिका है। मानसिक विचारों में राजर्षि प्रसन्नचन्द्र के ऐसे भाव आने पर कथाभाग में विवरण मिलता है - "वे नरकों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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