Book Title: Prarambhik Jain Grantho me Bijganit Author(s): Mukutbiharilal Agarwal Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 3
________________ (3) अनेक वर्ण समीकरण - एकचातीय युगपत् समीकरण का भी माषार्य महावीर ने उल्लेख किया है। उदाहरणों के साथ-साथ उनको हल करने के लिए नियम भी दिए हैं। यथा- “9 मातुलुंग और 7 सुगन्धित कपित्थ फलों की कीमत 107 है। पुन: 7 मातुलुंग और 9 सुगन्धित कपित्थ फलों की कीमत 101 है | हे गणितज्ञ ! एक मातुलुंग और एक सुगन्धित कपित्थ का कीमत अलग-अलग क्या है ?" " माना कि एक मातुलुंग की कीमत x और एक कपित्थ की कीमत y है 9x+ 7 = 107 और 7x + 9y101 समान्य रूप से इसको इस प्रकार लिख सकते हैं ax + by = m और bx +ay=n इसके लिए महावीराचार्य ने निम्न हल दिया है-x+abyam और 8x+aby in. ... (a2 - b2 ) x = ambn p लाभ है । या तथा .. Jain Education International या इसका प्रयोग करने पर उपर्युक्त उदाहरण का हल निम्न प्रकार है- 8 9X107 - 7X 101 92 - 72 7X 107-9 X 101 72 92 X= y= am-bn a2- ba abx+b2y=bm और abx +a2y=an (b2 - a2) y = bm--an bm-an y= b3-a3 अतः एक मातुलुंग की कीमत 8 और एक कपित्थ की 5 है । उदाहरण 2--" यन्त्र और औषधि की शक्ति वाले किसी महापुरुष ने मुर्गों की लड़ाई होती हुई देखी और मुर्गों के स्वामियों से अलग-अलग रहस्यमयी भाषा में मन्त्रणा की। उसने एक से कहा - यदि तुम्हारा पक्षी जीतता है, तो तुम मुझे दाँव में लगाया हुआ धन दे देना और यदि तुम हार जाओगे, तो तुम्हें लगाये हुए धन का दे दूंगा। वह फिर दूसरे मुर्गे के स्वामी के पास गया जहाँ उसने उन्हीं दशाओं में लगाये गये धन का भाग देने की प्रतिज्ञा की प्रत्येक दशा में उसे दोनों से केवल 12 स्वर्ण-तुकड़े लाभ के रूप में मिले । बतलाओ कि प्रत्येक मुर्गे के स्वामी के पास दाँव पर लगाने के लिए कितना कितना धन था ?"3 मैं I उपर्युक्त प्रश्न का हल निम्न प्रकार दिया गया है । " -P और y= 0 (c+d) (c+d)b - (a + b)c यहाँ x और y दोनों मुर्गों के स्वामियों के हाथ की रकमें हैं । b X= x= 1. गणितसारसंग्रह, अध्याय 6, गाथा 1402-1421 2. वही, अध्याय 5, गाथा 1391⁄2 3. वही, अध्याय 6, गाथा 270-272 1⁄2 4. वही, प्रध्याय 6, गाथा 2682 - 2692 जैन प्राच्य विद्याएं d(a + b)xp d(a + b) - ( c+d )a तथा For Private & Personal Use Only उनसे लिये गये भिन्नीय भाग हैं और d २१ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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