Book Title: Prakrit Vibhinna Bhed aur Lakshan Author(s): Subhash Kothari Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 6
________________ प्राकृत : विभिन्न भेद और लक्षण ४७७ (१) आचार्य भरत' के अनुसार नाटकों की बोलचाल में शौरसेनी का आश्रय लेना चाहिए। (२) हेमचन्द्र ने आर्ष प्राकृत के बाद शौरसेनी का ही उल्लेख किया है बाद में मागधी व पैशाची का किया है। (३) मार्कण्डेय ने शौरसेनी से ही प्राच्या का उद्भव बताया गया है। (४) पिशेल के अनुसार बोलचाल की जो भाषाएँ प्रयोग में लायी जाती हैं, उनमें शौरसेनी का प्रथम उल्लेख किया है। इसी तरह मच्छकटिक, मुद्राराक्षस के पद्य भाग में व कर्पूरमंजरी में भी शौरसेनी के उल्लेख है जो प्राचीनता पर प्रर्याप्त प्रकाश डालते हैं। ____ अश्वघोष के नाटकों में जिस शौरसेनी के उदाहरण मिलते हैं वह अशोक के समसामयिक कही जाती है। भास के नाटकों की शौरसेनी का समय सम्भवतः ख्रिस्त की प्रथम या द्वितीय शताब्दी मानना उचित प्रतीत होता है। लक्षणः-(१) ऋ ध्वनि शब्दारम्भ में आने पर उसका परिवर्तन इ, अ, उ में हो जाता है जैसे ऋद्धि= ईडिह, कटु=कत्वा, पृथिवि पुढवि इत्यादि । (२) शब्द के तीसरे वर्ण का प्रयोग होता है त के स्थान पर द एवं थ के स्थान पर घ का प्रयोग होता है जैसे -~-चदि=चेति, वाघ=वाथ । (३) षटखण्डागम में कहीं-कहीं त का य व यथावत रूप में मिलते हैं। जैसे-रहित=रहिये, अक्षातीत= अक्खातीदो, वीयरागवीतराग । (४) जैन शौरसेनी में अर्द्ध मागधी की तरह क का ग होता है। जैसे—वेदक-वेदग एवं स्वक= सग। (५) शौरसेनी में मध्यवर्ती क, ग, च, ज, त, द, व, प का लोप विकल्प से हो जाता है जैसे-गइ=गति, सकलम् =सयलं, वचन:=वयणे हि (६) रूपों की दृष्टि से कुछ बातों में संस्कृत की ओर झुकी हुई है, जो मध्य देश में रहने का प्रभाव है, किन्तु साथ ही महाराष्ट्री से भी काफी साम्य है। (७) त्वा प्रत्यय के स्थान पर इण, इण वत्ता होते हैं यथा परित्वा =पढिअ, पढिइण, पढिता इत्यादि । ८. मागधी मागधी के सर्वप्राचीन उल्लेख अशोक साम्राज्य के उत्तर व पूर्व भागों के खालसी, मिरट, बराबर, रामगढ़, जागढ़ आदि-अशोक के शिलालेखों में पाये जाते हैं। इसके बाद नाटकीय प्राकृत में उदाहरण मिलते हैं। वररुचि के प्राकृतप्रकाश, चण्ड के प्राकृतलक्षण, हेमचन्द्र के सिद्धहेमचन्द्र, क्रमदिश्वर के संक्षिप्तसार में मागधी के उल्लेख हैं। मगध देश ही मागधी का उत्पत्ति स्थान है, मगध की सीमा के बाहर जो मागधी के निर्देशन पाये जाते हैं, उसका कारण यही है कि मागधी भाषा राजभाषा होने के कारण मगध के बाहर इसका प्रचार हुआ है। अशोक के शिलालेखों व अश्वघोष के नाटकों की भाषा प्रथम युग की मागधी भाषा के निर्देशन की है, परवर्तीकाल के अन्य नाटकों व प्राकृत व्याकरणों की मागधी मध्ययुग की मागधी भाषा के उदाहरण है। (१) भरत के नाट्यशास्त्र में मागधी भाषा का उल्लेख है। १. नाट्यशास्त्र, अध्याय १७ २. प्राकृत सर्वस्व । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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