Book Title: Prakrit Vakyarachna Bodh
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 4
________________ प्रस्तुति ज्ञान की परंपरा अथवा ज्ञान के प्रवाह का माध्यम है भाषा । यदि भाषा नहीं होती तो ज्ञान वैयक्तिक होता, वह सामुदायिक नहीं बनता। श्रुतज्ञान होता है--एक ज्ञान दूसरे में संक्रांत होता है। उसका हेतु भाषा ही है। विश्व में अनेक भाषाएं हैं । वे सब अपना दायित्व निभा रही हैं । भारतीय भाषाओं में तमिल, प्राकृत, संस्कृत-ये प्राचीन भाषाएं हैं। श्रमणपरंपरा में प्राकृत और पालि संस्कृत की अपेक्षा अधिक प्रचलित रही। वैदिकपरंपरा में संस्कृत का ही प्रयोग होता था । वैदिक संस्कृत और प्राकृत में कुछ समानताएं भी हैं। पाणिनिकालीन संस्कृत ने प्राकृत से भिन्न रूप ले लिया। प्राकृत का साहित्य बहुत विशाल है । उसे पढने के लिए प्राकृत का अध्ययन आवश्यक है। प्राकृत का परिवार विशाल है। उसमें मागधी, पैशाची, शौरसेनी, चूलिकापिशाची, अपभ्रंश--ये सब प्राकृत से संबद्ध और विकास क्रम की रेखाएं हैं। प्रादेशिक भाषाएं और बोलियां भी प्राकृत से अनुप्राणित और प्रभावित हैं। भारतीय संस्कृति, सभ्यता, तत्त्वविद्या, दर्शन और शिल्प का अध्ययन करने के लिए प्राकृत को पढना अनिवार्य है। ___ आश्चर्य है---अनेक भाषाओं के उद्भव में हेतु बनने वाली प्राकृत भाषा का अध्ययन-अध्यापन बहुत सीमित है । संस्कृत की अपेक्षा वह अधिक उपेक्षितसी प्रतीत हो रही है । इस स्थिति में परिवर्तन लाना आवश्यक है। वर्तमान के साथ अतीत का संपर्क स्थापित करने के लिए यह और अधिक आवश्यक प्राकृत के अनेक व्याकरण ग्रन्थ हैं। प्राचीन ग्रन्थों में आचार्य हेमचंद्र का प्राकृत व्याकरण बहुत समृद्ध है । आधुनिक ग्रन्थों में डॉ० आर. पिशल का 'प्राकृत भाषाओं का व्याकरण' व्याकरण और भाषाविज्ञान-दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । वे प्राकृत का अध्ययन करने वाले विद्यार्थी के लिए सहन सुगम नहीं बनते। इस वास्तविकता को ध्यान में रखकर प्रवेशिकाओं की परंपरा का सूत्रपात हुआ। प्राकृत मार्गोपदेशिका, प्राकृत प्रवेशिका, प्राकृत प्रबोध आदि-आदि ग्रंथ लिखे गए । प्रस्तुत ग्रंथ उसी श्रृंखला की एक कडी है। जो उत्तरवर्ती हो, उसे अधिक विकसित होना चाहिए, इस नियम का इसमें निर्वाह हुआ है । मैंने पचास वर्ष पूर्व सन् १९४१ में हेमचंद्र के व्याकरण के आधार पर तुलसीमंजरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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