Book Title: Prakrit Sahitya me Upalabdh Jain Nyaya ke Bij Author(s): Dharmchand Jain Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 7
________________ करते हैं२५. वह पुन: विचारणीय है । २७ प्राकृत-साहित्य में प्रमाण का सर्वाधिक वर्णन अनुयोगद्वार सूत्र में उपलब्ध होता है। वहां प्रमाण का वर्णन ज्ञान के वर्णन से स्वतंत्र है । प्रमाण का प्रयोग वहां मापन के अर्थ में हुआ है । अनुयोगद्वार सूत्र में छह प्रकार के उपक्रमों आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार एवं समवतार का विस्तृत वर्णन मिलता है । २६ इनमें जो प्रमाण उपक्रम है उसके चार भेद किए गए हैं— द्रव्य - प्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण इनमें द्रव्य, क्षेत्र एवं काल प्रमाण के प्रदेशनिष्पन्न एवं विभागनिष्पन्न भेद करके उनके उपभेदों का विस्तृत वर्णन किया गया है जिनमें परमाणु आदि द्रव्य प्रमाण, आत्मांगुल आदि क्षेत्र प्रमाण, समय, आवलिका आदि काल प्रमाण के रूप में निरूपित हैं । भावप्रमाण के तीन भेद किए गए हैं—गुण, नय और संख्या । गुण में जीव एवं अजीव से सम्बन्धित भेद किए गए हैं। फिर जीव गुण तीन प्रकार के बताए गए हैं— ज्ञान, दर्शन और चारित्र । इनमें ज्ञानगुणप्रमाण के चार भेद किए गए हैं - ( १ ) प्रत्यक्ष (२) अनुमान (३) औपम्य और (४) आगम । २८ स्थानांग सूत्र में इन्हीं चार प्रमाणों को चार हेतुओं के रूप में निर्दिष्ट किया गया है। भगवती सूत्र में भी इन प्रत्यक्षादि चार प्रमाणों का उल्लेख मिलता है । ३० स्थानांग सूत्र में द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण का भी उल्लेख मिलता है । ३१ 1 .२९ आगमों में उपलब्ध द्रव्य प्रमाण आदि भेदों का प्रतिपादन अन्यत्र दर्शनग्रंथों में नहीं मिलता । प्रत्यक्ष आदि चार प्रमाणों का उल्लेख महर्षि गौतम के न्यायसूत्र एवं चरक की संहिता में मिलता है । इनमें कौन पूर्वापर है इस पर विचार करना इस शोध पत्र का प्रतिपाद्य नहीं है किन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि अनुयोगद्वार सूत्र में इन चार प्रमाणों का जो भेदोपभेद पूर्वक विस्तृत वर्णन मिलता है वह गौतम के न्यायसूत्र एवं चरक की संहिता में नहीं मिलता। बौद्धों के उपायहृदय ग्रंथ एवं अनुयोगद्वार सूत्र में इस दृष्टि से कुछ समानता है तथापि अनुयोगद्वार सूत्र अपने विशिष्ट वर्णन के कारण उससे अनेकत्र भिन्नता लिए हुए है। अनुयोगद्वार सूत्र में प्रत्यक्ष के दो भेद प्राप्त होते हैं— इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष । ये दोनों भेद जैनेतर दर्शनग्रंथों में नहीं मिलते। अनुमान के पूर्ववत्, शेषवत् एवं दृष्टसाधर्म्यवत्, भेद करते हुए शेषवत् के कार्य, कारण, गुण, अवयव, एवं आश्रय के आधार पर पांच भेद किए गए हैं। ३२ अनुयोगद्वार सूत्र में अनुमान के भिन्न प्रकार से भी तीन भेद किए गए हैं—अतीत काल ग्रहण, प्रत्युत्पन्न काल ग्रहण, और अनागत काल ग्रहण । ये तीनों भेद अन्यत्र नहीं मिलते। औपम्य के साधर्म्यापनीत एवं वैधर्म्यापनीत भेद करते हुए प्रत्येक के किंचित्, प्राय: एवं सर्व के आधार पर तीन तीन भेद किए श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ १३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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