Book Title: Prakrit Sahitya ki Vividhta aur Vishalta
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 1
________________ [ श्री अगरचन्द्र जी नाहटा [सुप्रसिद्ध साहित्यान्वेषक ] प्राकृत साहित्य की विविधता और विशालता Jain Education International मानव की स्वाभाविक बोलचाल की भाषा का नाम प्राकृत है। यह भाषा देशकाल के भेद से अनेक रूपों और नामों से प्रसिद्ध है । आगे चलकर यह कुछ प्रकारों में विभक्त हो गई और उन्हीं के लिए प्राकृत संज्ञा रूढ़ हो गई । जैसे - अर्धमागधी, महाराष्ट्री, शौरसेनी, पैशाची आदि । बोली के रूप में तो प्राकृत काफी पुरानी है । पर साहित्य उसका इतना पुराना नहीं मिलता। इसलिए उपलब्ध ग्रन्थों में सबसे पुराने 'वेद' माने जाते है, जिनकी भाषा वैदिक संस्कृत है । भगवान् महावीर और बुद्ध ने जनभाषा में धर्म प्रचार किया। दोनों ही समकालीन महापुरुष थे और उनका विहार विचरण प्रदेश भी प्रायः एक ही रहा है । पर दोनों की वाणी जिन भाषाओं में उपलब्ध है, उनमें भिन्नता है । पाली नाम यद्यपि भाषा के रूप में प्राचीन नाम नहीं है, पर बौद्ध त्रिपिटकों की भाषा का नाम पाली प्रसिद्ध हो गया । भगवान महावीर की वाणी जो जैन आगमों में प्राप्त है, उसे 'अर्धमागधी' भाषा की संज्ञा दी गई है । क्योंकि मगध जनपद उस समय काफी प्रभावशाली रहा है और उसकी राजधानी 'नालन्दा' में भगवान् महावीर ने चौदह चौमासे किये । उसके आस-पास के प्रदेश में भी उनके कई चौमासे हुए। इसलिए मागधी भाषा की प्रधानता स्वाभाविक ही है। पर मगध जनपद में भी अन्य प्रान्तों के लोग आते-जाते रहते थे और बस गये थे तथा भगवान् महावीर भी अन्य प्रदेशों में पधारे थे अतः उनकी वाणी सभी लोग समझ सकें, इस कारण मिली-जुली होने से उसको 'अर्धमागधी' कहा गया है। आगे चलकर जैनधर्म का प्रचार पश्चिम और दक्षिण की ओर अधिक होने लगा तब श्वेताम्बर सम्प्रदाय के जो ग्रन्थ रचे गये, उनकी भाषा को महाराष्ट्री प्राकृत और दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों की भाषा को 'शौरसेनी' प्राकृत कहा गया । प्राकृत का प्रभाव कई शताब्दियों तक बहुत अच्छा रहा। पर भाषा तो एक विकसनशील तत्त्व है । अतः उसमें परिवर्तन होता गया और पाँचवीं छठवीं शताब्दी में उसे 'अपभ्रंश' की संज्ञा प्राप्त हुई। अपभ्रंश में भी जैन कवियों ने बहुत बड़ा साहित्य निर्माण किया है । अपभ्रंश से ही आगे चलकर उत्तर-भारत की सभी बोलियाँ विकसित हुईं। उनमें से राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी में भी प्रचुर जैन - साहित्य रचा गया । प्राकृत के प्रचार और प्रभाव के कारण ही संस्कृत के बड़े-बड़े कवियों ने जो नाटक लिखे, उनमें जन साधारण की भाषा के रूप में करीब आधा भाग प्राकृत में लिखा है । कालिदास, भास, आदि के D आयायप्रवरुप अभिनंदन आआनन्द अन्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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