Book Title: Prakrit Bhasha ka Vyakaran Parivar Author(s): Dharmashila Mahasati Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 7
________________ आचार्य प्रव आओ का अविशद वामन आनंदन श्री ऋ ३० ५२ प्राकृत भाषा और साहित्य वृत्ति की रचना की है । इस वृत्ति का ही नाम प्राकृतरूपावतार रखा है । इसमें सूत्रों का क्रम षड्-भाषाचन्द्रिका के समान ही रखा गया है । यह ग्रन्थ सन् १९०६ में इ० हल्शे (E-Hultzsca ) ने एशियाटिक सोसाइटी कलकत्ता की तरफ से प्रकाशित किया था । इनका काल १३०० - १४०० ई० स० माना जाता है । तुलना की दृष्टि से इसमें प्रत्येक सूत्र के सामने आचार्य हेमचन्द्र के सूत्र भी दिये गये है । युष्मद्, अस्मद् आदि शब्दों के रूप दूसरे व्याकरणों की अपेक्षा से इसमें अधिक विस्तृत हैं । कहीं-कहीं रूपों में कृत्रिमता भी स्पष्ट दिखती है । इस व्याकरण का निर्माण करते समय सिंहराज ने इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि कोई भी आवश्यक नियम छूट न जाये | इसलिए उन्होंने आवश्यक सूत्रों को ही लिया है, शेष कुछ सूत्रों को छोड़ दिया है । (७) प्राकृतकल्पतरु श्री रामशर्मा तर्कवागीश ने प्राकृतकल्पतरु की रचना पुरुषोत्तम के प्राकृतनुशासन के अनुसार की है । ये बंगाल के निवासी थे । इनका समय ईसा की १७वीं शताब्दी माना जाता है । प्राकृतकल्पतरु पर स्वयं लेखक की एक स्वोपज्ञ टीका भी है । इस व्याकरण में तीन शाखाएँ हैं । पहली शाखा में दस स्तबक हैं। जिनमें माहाराष्ट्री के नियमों का विवेचन है । दूसरी शाखा में तीन स्तबक हैं - जिनमें शौरसेनी, प्राच्या, अवन्तो, वानीकी, मागधी, अर्धमागधी और दाक्षिण त्या का विवेचन है । विभाषाओं में शाकारि, चाण्डालिका, शावरी, अभीरिका और टक्की का विवेचन है । तीसरी शाखा में नागर, अपभ्रंश, ब्राचड तथा पैशाचिका का विवेचन है । कैकय, शौरसेनी, पांचाल, गोड, मागध और ब्राचड पैशाचिका भी इसमें वर्णन है । (८) प्राकृतसर्वस्व - श्री मार्कण्डेय कवीन्द्र का 'प्राकृत सर्वस्व' एक महत्त्वपूर्ण व्याकरण है । इसका रचनाकाल १५वीं शताब्दी है । मार्कण्डेय ने प्राकृत भाषा के भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाची ये चार भेद किये हैं । भाषा के माहाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी भेद हैं । विभाषा के शकारी, चाण्डाली, शवरी, अभीरी और ढक्की यह भेद हैं । अपभ्रंश के नागर, ब्राचड और उपनागर तथा पैशाची के कैकयी, शौरसेनी और पांचाली इत्यादि भेद किये हैं । मार्कण्डेय ने आरम्भ के आठ पादों में महाराष्ट्री प्राकृत के नियम बतलाये हैं । इन नियमों का आधार प्राय: वररुचि का प्राकृतप्रकाश ही है । हवें पाद में शौरसेनी के नियम दिये गये हैं । १० वें पाद में प्राच्या भाषा का नियमन किया गया है । ११ वें पाद में अवन्ती और वाह नीकी का वर्णन है । १२वें पाद में मागधी के नियम बतलाये गये हैं । इनमें अर्धमागधी का भी उल्लेख है । आचार्य श्री हेमचन्द्र ने जिस प्रकार पश्चिमीय प्राकृत भाषा का अनुशासन रचा है, उस प्रकार श्री मार्कण्डेय ने पूर्वीय प्राकृत का नियमन बतलाया है । मार्कण्डेय ने अपने व्याकरण की रचना आर्या - छन्द में की है । उस पर उनकी स्वोपज्ञ टीका है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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