Book Title: Prakrit Bhasha ka Vyakaran Parivar
Author(s): Dharmashila Mahasati
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 1
________________ HERS REA अमित D महासती श्री धर्मशीला, एम. ए. [प्राकृत भाषा की विदुषी चिन्तनशील साध्वी महासती उज्ज्वलकुमारो जी की शिष्या] एयर प्राकृतभाषा का व्याकरणपरिवार भाषा परिज्ञान के लिए व्याकरण ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है। प्राकृत में छन्द, ज्योतिष, द्रव्य-परीक्षा, धातु-परीक्षा, भूमि-परीक्षा, रत्न-परीक्षा, नाटक, काव्य, महाकाव्य, सट्टक आदि विभिन्न रचनायें होती रही हैं । जब किसी भी भाषा के वाङमय की विशाल राशि संचित हो जाती है तो उसकी विधिवत ब्यवस्था के लिए व्याकरण ग्रन्थ लिखे जाते हैं। प्राकृत जनभाषा होने से प्रारम्भ में इसका कोई व्याकरण नहीं लिखा गया। वर्तमान में प्राकृत भाषा के अनुशासन सम्बन्धी जितने व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे सभी संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं, प्राकृत में नहीं । कुछ विद्वानों का कहना है कि-प्राकृत भाषा का व्याकरण प्राकृत में लिखा हुआ अवश्य था, परन्तु आज वह अनुपलब्ध है। अत: आज प्राकृत भाषा का व्याकरण-परिवार जो उपलब्ध है, उस पर हम थोड़ा विचार करेंगे। विद्वानों ने प्राकृत व्याकरण की दो शाखायें मानी है। एक पश्चिमी और दूसरी पूर्वी । प्रथम शाखा को वाल्मीकी-परम्परा और द्वितीय को वररुचि की परम्परा कहा जाता है। पश्चिमी परम्परा का प्रतिनिधि त्रिविक्रम (ई० १३००) कृत प्राकृत व्याकरण है। कहा जाता है कि-इसे महाकवि बाल्मीकि ने रचा था, परन्तु इस बात का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। लक्ष्मीधर की "षड्भाषा-चन्द्रिका" तथा सिंहराज का प्राकृत-रूपावतार भी इसी शाखा में अंतर्भूत होते हैं। पूर्वी शाखा का प्रथम व्याकरण वररुचि कृत 'प्राकृत-प्रकाश' है। (१) प्राकृत-प्रकाश-यह व्याकरण श्री वररुचि ने रचा है। यह सर्वप्रथम प्राकृत व्याकरण कहा जाता है। कुछ विद्वान चण्ड के प्राकृत-लक्षण को प्रथम मानते हैं और उसका अनुकरण वररुचि ने किया है, ऐसा कहते हैं । वररुचि का गोत्र कात्यायन कहा गया है। डॉ० पिशल ने अनुमान किया था कि प्रसिद्ध वातिककार कात्यायन और वररुचि दोनों एक ही व्यक्ति हैं, किन्तु इस कथन की पुष्टि के लिए एक भी सबल प्रमाण मिलता नहीं है। एक वररुचि कालिदास के समकालीन भी माने जाते हैं जो विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे "रत्नानि वै वररुचिर्नवविक्रमस्य" । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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