Book Title: Pragna ki Parikrama
Author(s): Kishanlalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ II इस बात का भी ख्याल रखे कि उसके आचरण दूसरों की निगाह में किस प्रकार प्रतीत होते हैं। वह स्वयं को भी देखें कि आवश्यक निर्देशों की अवहेलना तो नहीं कर रहा है। भविष्य की प्रवृतियों के बारे में भी वह सावधान रहे ताकि किसी प्रकार की स्खलना उसके आचरण में नहीं आ जाए। उसे यदि तनिक भी कायिक, वाचिक, व मानसिक दुष्प्रवृत्ति परिलक्षित हो उसे वह तुरन्त छोड़ दे । वह साधक प्रतिबुद्ध-जीवी कहलाता है जो असंवर से सदा मुक्त रहता है और अपने संयम से कभी च्युत नहीं होता। इस प्रसंग में सर्वदुःखों से मुक्ति पाने के लिए संविधान किया गया है अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं अरक्खिओ जाइपहं उवेह सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चई ! सब इन्द्रियों को सुसमाहित कर आत्मा की सतत् रक्षा करनी चाहिए। अरक्षित आत्मा जन्म-मरण को सतत् प्राप्त होता रहता है, जबकि सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। उपर्युक्त उद्घोष में आत्म-निरीक्षण की जो बात कही गई है वह सर्वजन मान्य है। अपने दैनन्दिन प्रवृत्तियों का सही विश्लेषण करके ही व्यक्ति अपने को सुधार सकता है, स्वयं द्वारा निर्मित दुःखी जीवन से छुटकारा पा सकता है । जिस क्षण व्यक्ति मान लेता है कि अपने सुख-दुःखों का कारण वह स्वयं ही हैं, उसी क्षण वह अपने दुःखों से मुक्त होने के पथ पर आ जाता है । प्रेक्षा अभ्यास के अन्तर्गत एक और उद्घोष है जिसमें कहा गया है कि स्वयं सत्य का अन्वेषण करो एवं सर्वभूतों के प्रति मैत्री की भावना का संकल्प करो । यह उद्घोष जिस संदर्भ से किया गया है वह निम्न प्रकार है जावंत विज्जा पुरिसा, सव्वे ते दुःख - संभवा । लुप्पंति बहु सो मूढ़ा, संसारम्मि अनंत ।। सम्मिक्ख पंडिए तम्हा, पासजाइपहे बहू । अप्पणा सच मेसेज्जा, मेत्तिं भूएसुकप्पए ।। इन श्लोकों में कहा गया है, सारे दुःखों का मूल अविद्या या अज्ञान हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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