Book Title: Pashchatya Darshan me Karm Siddhant Author(s): K L Sharma Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 6
________________ पाश्चात्य दर्शन में क्रिया-सिद्धान्त ] [ २२१ कर रहा होता हूँ। यह निर्व्यापार किसी प्रकार का 'करना' (doing) नहीं है। इनके करने में मैं किसी प्रकार सक्रिय नहीं होता । अतः संयम से भिन्न है। क्रियाएँ बनाम मानसिक क्रियाएँ : क्रिया में दैहिक पहल भावात्मक रूप में कुछ करने के रूप में या अभावात्मक रूप में संयम रखने के रूप में अवश्य होना चाहिए। अतः विशुद्ध रूप से मानसिक क्रियाएँ जो पूर्णतः आन्तरिक (internal) होती हैं, क्रिया की कोटि में नहीं आतीं। बाह्य मौखिक स्वीकृति देना क्रिया है लेकिन स्वयं में 'मौन स्वीकृति देना' (tacit assent) क्रिया नहीं है । चिन्तित होना स्वयं में क्रिया नहीं है यद्यपि परिक्लान्त रूप से कदम बढ़ाना क्रिया है । प्रत्येक क्रिया का बाह्य शारीरिक पहलू (Component) होता है तथा इसमें किसी न किसी प्रकार की शारीरिक क्रिया निहित होती है। क्रियाएँ व्यक्ति अर्थात् दैहिक (Corporeal) शरीर युक्त कर्ता क्रिया करता है। क्रिया को वणित' करने के लिए क्रिया को वणित करने वाले निम्न तत्त्वों पर विचार करना चाहिऐ - १. कर्ता (agent) : इसे (क्रिया को) किसने किया? २. क्रिया प्रकार (act-type) : उसने क्या किया ? ३. क्रिया करने की प्रकारता (modality of action) : उसने किस प्रकार से किया ? (अ) प्रकारता की विधि (modality of manners) : किस प्रकारता कीविधि से उसने किया। (ब) प्रकारता का साधन (modality of means) : उसने किस साधन द्वारा इसे किया। ४. क्रिया की परिस्थिति (setting of action) : किस संदर्भ में उसने इसे किया। (अ) कालिक पहल-उसने इसे कब किया ? (ब) दैशिक पहलू-इसे उसने कहां किया ? (स) परिस्थित्यात्मक पहलू (Circumstantial aspect) किन परि स्थितियों में उसने इसे किया? . १. Nicholas Rescher-'On the Characterization of Actions'. The Nature of Human Action Edited by Myles Brand, पृष्ठ २४७-५४ २. कर्ता, क्रिया प्रकार तथा क्रिया करने का समय तीनों ही क्रिया के वर्णन के लिये पर्याप्त हैं लेकिन पूर्णरूप से नहीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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