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पाश्चात्य दर्शन में क्रिया-सिद्धान्त
0 डॉ० के० एल० शर्मा
भारतीय दर्शन में कर्म के प्रत्यय का प्रयोग जिस अर्थ में मिलता है उस अर्थ में पाश्चात्य-दर्शन में नहीं मिलता। ऐसा इसलिये है कि भारतीय दर्शन में चार्वाकों को छोड़कर सभी दार्शनिक पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं । अतः पुनर्जन्म की व्याख्या के रूप में 'कर्म' के प्रत्यय को भारतीय दर्शन में समझा गया है जबकि पाश्चात्य-दर्शन में ऐसा नहीं है।
क्रिया-दर्शन पाश्चात्य दर्शन शास्त्र की एक नवीन शाखा है। तत्त्वमीमांसकों के अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री एवं विधिशास्त्री भी क्रिया कर्म के प्रत्यय की व्याख्या में रुचि रखते हैं। तत्त्वमीमांसकों की रुचि मानव स्वतंत्रता एवं उत्तरदायित्व प्रादि कर्म से सम्बन्धित समस्याओं तक ही सीमित थी । समकालीन दार्शनिकों की रुचि इसमें है कि कर्म की व्याख्या कारण-कार्य के रूप में की जा सकती है या नहीं? कुछ दार्शनिक मानव-क्रिया की व्याख्या कारण-कार्य के रूप में करते हैं तो दूसरी ओर अन्य दार्शनिक मानव-क्रिया/कर्म को अन्य प्रकार की घटनाओं से बचाये रखने के लिये क्रिया अथवा कर्म की व्याख्या अभिप्राय एवं हेतु आदि प्रत्ययों द्वारा करते हैं।
इस संक्षिप्त लेख में हम मानव क्रिया/कर्म (Human action) के स्वरूप एवं उसकी कुछ समस्याओं तथा व्याख्या करने वाले कुछ सिद्धान्तों का अति संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करेंगे।
प्रत्येक व्यक्ति क्रिया करता है चाहे वह दैहिक हो (जैसा कि मांसपेशीय गति, हाथ उठाना, कोई चीज खरीदना, पुल बनाना, दूसरे व्यक्ति की प्रशंसा करना या उसकी हँसी उड़ाना आदि) या मानसिक (उदाहरणतः गणितीय समस्या का समाधान करना, किसी रहस्य को छुपाये रखना आदि) । लेकिन यह तथ्य कि "मनुष्य क्रिया करते हैं" इस दावे की ओर इंगित नहीं करता कि *यद्यपि पाश्चात्य दर्शन में भारतीय दर्शनों की भाँति कर्म-सिद्धान्त का विवेचन नहीं मिलता, पर वहाँ क्रिया-सिद्धान्त के रूप में क्रिया पर व्यापक चिन्तन किया गया है । चूँ कि 'कर्म' के मूल में क्रिया अन्तर्निहित है अतः द्रव्य कर्म और भावकर्म के स्वरूप को समझने में पाश्चात्य क्रिया-सिद्धान्त सहायक हो सकता है। इसी दृष्टि से यह निबन्ध यहाँ दिया जा रहा है। -सम्पादक
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पाश्चात्य दर्शन में क्रिया-सिद्धान्त ]
[ २१७ मानव क्रिया को लेकर कोई समस्या नहीं है । मनोवैज्ञानिकों, विधिशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों, के लिये 'क्रिया' वह व्यवहार है जो किसी लक्ष्य की ओर उन्मख होता है । लेकिन 'क्रिया के बारे में प्लेटो से लेकर आज तक के दार्शनिक विभिन्न प्रकार के प्रश्न उठाते आये हैं । क्रिया के सम्बन्ध में प्रमुख रूप से पाँच प्रकार के प्रश्न दार्शनिकों ने उठाये हैं। ये प्रश्न हैं :
१. प्रत्ययात्मक प्रश्न (Conceptual) जैसा कि 'मानव क्रिया क्या है, 'व्यक्ति (Persons) क्या कर सकते हैं ?' अथवा 'व्यक्ति ने क्रिया की' ऐसा कहने का क्या अर्थ है ? तथा 'ऐसा कहने का क्या अर्थ है कि एक व्यक्ति क्रिया कर सकता है ?'
२. व्याख्यात्मक प्रश्न-मानव क्रिया की व्याख्या से सम्बन्धित प्रश्न जैसे कि 'क्या भौतिक शास्त्र, जीवविज्ञान, के सिद्धान्त एवं पद्धति मानव क्रिया को समझने के लिए पर्याप्त हैं ?' 'क्या वैज्ञानिक प्रत्ययों से इतर किन्हीं अन्य प्रत्ययों जैसे कि सोद्देश्यता (purposiveness) एवं लक्ष्योन्मुखता (goal directedness) जैसे प्रत्ययों की मानव क्रिया की व्याख्या के लिए क्या अनिवार्यता है ?
३. तत्त्वमीमांसीय प्रश्न-जैसे कि क्या सभी मानव-क्रियाएँ उत्पन्न की जाती हैं' (are caused) ? क्या मानव क्रिया उत्पन्न की जा सकती है ? इस प्रकार के प्रश्नों का सम्बन्ध इच्छा-स्वातन्त्र्य की जटिल समस्याओं से है
४. ज्ञानमीमांसोय प्रश्न-जैसे कि क्या निरीक्षण या किन्हीं अन्य साधनों के द्वारा हम यह जानते हैं कि हम क्रिया कर रहे हैं ? "हम कैसे जानते हैं कि अन्य व्यक्ति क्रिया करते हैं ?"
५. नीतिशास्त्रीय एवं परा-नीतिशास्त्रीय प्रश्न–इस कोटि में जो प्रश्न पाते हैं वे हैं-क्या क्रियाएँ अथवा उनके परिणाम अच्छे या बुरे होते हैं ? तथा ऐसा कहने का क्या अर्थ है कि व्यक्ति अपनी क्रिया या उनके परिणाम के लिए उत्तरदायी है ?'
यह बात स्पष्ट है कि क्रिया से सम्बन्धित प्रत्ययात्मक प्रश्न (Conceptual questions) ही प्रमुख प्रश्न हैं । क्रियाओं की व्याख्या, क्रियाओं के कारण, क्रियाओं का ज्ञान, क्रियाओं एवं उनके परिणामों व मूल्यांकन के लिए सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि 'क्रिया' का क्या अर्थ है ? दूसरे शब्दों में, क्रिया के स्वरूप से सम्बन्धित सिद्धान्त का स्थान ताकिक दृष्टि से क्रिया के व्याख्यात्मक, तत्त्वमीमांसीय, ज्ञानमीमांसीय, नैतिक एवं परा-नैतिक (meta-ethical) सिद्धान्तों से पहले आता है । अतः हम सर्वप्रथम क्रिया के स्वरूप एवं विवरण (descriptions) से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार करेंगे।
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२१८ ]
[ कर्म सिद्धान्त
मानव क्रिया का स्वरूप :
.. मानव क्रिया के स्वरूप पर प्रकाश डालने के लिए हम इस प्रश्न पर विचार करें कि हमारी क्रियाएँ प्रकृति में होने वाले विभिन्न परिवर्तनों (Changes) से कैसे महत्त्वपूर्ण रूप से भिन्न हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि मानव स्वयं गति करने वाला (self-mover) है तथा वह स्वयं से अपनी गतियों (क्रियाओं) को प्रारम्भ (initiate) करता है, निर्देशित (direct) करता है एवं नियंत्रित करता है। जबकि पर्वत, मिट्टी, फूल आदि चीजें स्वयं से गति नहीं करती अर्थात्. एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकतीं। लेकिन केवल 'स्वयं गति करना' पद से मानव क्रियाओं को अन्य परिवर्तनों या गतियों से विभेदित नहीं कर सकते क्योंकि राकेट, जो जीवित प्राणियों की.कोटि में नहीं आता, भी स्वयं से गति करता (self-propelled) है, अपने व्यवहार को निर्देशित भी करता है, अतः क्रिया को समझने के लिए किसी अन्य मानदण्ड की आवश्यकता है।
मनुष्यों की गतियाँ इसलिए क्रिया की कोटि में आती हैं कि उन्हें कर्ता (agent) अक्सर अभिप्रायपूर्वक (intentionally) करता है। जबकि पेड़ पौधे, राकेट आदि वैसा नहीं कर सकते । उन पर क्रिया की जाती है । वे अभिप्रायपूर्वक स्वयं से क्रिया नहीं कर सकते । मानव अपनी क्रिया का नियंत्रण (Control) स्वेच्छा से कर सकता है।
हमारे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि मनुष्य सदैव सक्रिय रहता है बल्कि कभी-कभी वह निष्क्रिय (passive) भी होता है तथा उस पर क्रिया की जाती है । उस स्थिति में मनुष्य एवं निम्न प्राणियों के व्यवहार में अन्तर स्पष्ट दिखाई नहीं देता। कोई व्यक्ति यह कह सकता है कि मनुष्य सदैव अपने व्यवहार को नियंत्रित नहीं कर सकता अतः वह निर्जीव व्यक्ति के समान है। उदाहरण के रूप में कोई व्यक्ति पाँचवीं मंजिल की खिड़की से गिरता है तो वह उसी प्रकार नीचे गिरेगा जैसे कि कोई बेजानदार वस्तु नीचे गिरती है। वह अपने गिरने के व्यवहार को बीच में नियंत्रित नहीं कर सकता। लेकिन यहाँ हमें दो बातों में भेद करना चाहिए-(१) क्या व्यक्ति को किसी ने धक्का दिया या (२) वह स्वयं से नीचे कूदा । उदाहरण के लिए आत्महत्या हेतु स्वयं से नीचे कूदा। प्रथम स्थिति में वह निर्जीव वस्तु के समान है लेकिन द्वितीय स्थिति वह स्थिति हैं जो मनुष्य को निर्जीव वस्तुओं से विभेदित करती है। यह बात सही है कि वह दोनों ही स्थितियों में अपने गिरने के व्यवहार को नियंत्रित नहीं कर सकता लेकिन गिरने का कारण ही उसके व्यवहार को विभेदित कर देता है। 'क्रिया के आन्तरिक कारण' एवं 'बाह्य कारण' कहकर इस भेद की व्याख्या करना समस्या का अतिसरलीकरण कहा जायेगा । उदाहरणत: ऐसी बहुत सी मानव गतियां (Human movements) हैं जिनका कारण
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पाश्चात्य दर्शन में क्रिया-सिद्धान्त ]
[ २१६ आन्तरिक होता है लेकिन हम यह नहीं कह सकते हैं कि वे ऐच्छिक एवं अभिप्रायात्मक क्रियाएँ हैं तथा वे कर्ता के नियंत्रण में हैं। उदाहरण के लिए हाथ का काँपना, मिर्गी पाना आदि सहज क्रियाओं का कारण आन्तरिक (नाड़ीतंत्र से सम्बन्धित) है लेकिन उनको नियंत्रित नहीं किया जा सकता।
यह बात सही है कि उस चीज को जो अभिप्रायात्मक क्रियाओं को अन्य क्रियाओं से विभेदित करती है, को बताना अत्यन्त कठिन है। लेकिन विभेदीकरण में कठिनाई के आधार पर अभिप्रायात्मक क्रियाओं को नकारा नहीं जा सकता। इसके अतिरिक्त अगर अभिप्रायात्मक क्रियाओं एवं अन्य प्रकार की क्रियाओं में भेद नहीं माना गया तो इसके परिणाम मानव-दर्शन, नीतिशास्त्र के लिए अच्छे नहीं होंगे। जिस सीमा तक अभिप्रायात्मक (intentional) एवं अन-अभिप्रायात्मक क्रियाओं (non-intentional) में भेद नहीं है उसी सीमा तक मनस् युक्त प्राणियों में एवं मनस् रहित प्राणियों में भेद नहीं कहा जायेगा। अभिप्रायात्मकता का उत्तरदायित्व (responsibility) से सम्बन्ध होने के कारण किसी क्रिया को शुभ और अशुभ कहा जाता है। यह हम जानते हैं कि पेड़पौधे एवं निर्जीव वस्तुएँ अपने व्यवहार को नियंत्रित नहीं कर सकते अतः हम उन्हें उत्तरदायी भी नहीं ठहरा सकते और न ही उनके व्यवहार को शुभ और अशुभ कह सकते हैं।
- मनस और शरीर के सम्बन्ध की व्याख्या के लिए वे अभिप्रायात्मक क्रियाएँ जिनका सम्बन्ध अनिवार्यतः दैहिक गति (जैसे कि खिड़की से बाहर कूदना) से होता है, महत्त्वपूर्ण हैं । कुछ ऐसी भी क्रियाएँ होती हैं जिन्हें मानसिक क्रियाएँ कहा जाता है (जैसे कि स्मरण करना, प्रतिमा (image) बनाना, दार्शनिक समस्या पर चिन्तन करना आदि) । इनका दैहिक गति से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं होता। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि व्यक्ति जो कुछ भी करता है वह सबका सब क्रिया की कोटि में नहीं आता क्योंकि गति एवं निश्चलता क्रिया एवं अक्रिया में भेद बताने के लिए भी 'मानव-क्रिया' पद का प्रयोग किया जाता है।
'क्रिया क्या है' इस प्रश्न की व्याख्या इस दृष्टि से कि 'क्रिया को कैसे वरिणत किया जा सकता' के द्वारा भी की जा सकती है। क्रिया वर्णन (action description) के द्वारा क्रिया के स्वरूप पर प्रकाश डालने से पूर्व हम कुछ क्रिया सदृश्य लगने वाले प्रत्ययों पर विचार करना चाहेंगे।
क्रियाएँ (actions) बनाम प्रक्रियाएँ (processes) :
क्रिया का कोई न कोई कर्ता (agent) अवश्य होता है। जैसे कि "उसने (कर्ता ने) 'अ' (क्रिया) को किया।" यही बात क्रियाओं (जैसे कि मेरा हाथ
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२२० ]
[ कर्म सिद्धान्त उठाना) को प्रकृति की प्रक्रियाओं (जैसे कि बूदों का वाष्पीकृत होना) से विभेदित करती है। क्योंकि उनमें कर्ता के बारे में बताना आवश्यक नहीं है
और न वहाँ उत्तरदायित्व की बात उठती है। क्रियाएँ बनाम भावावेश (Passions) :
क्रिया वह है जिसे कोई कर्त्ता करता है। इस कथन में यह भाव है कि हम क्रिया को उसके कर्त्तापन (agency) के एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं । क्रिया इसी कारण कुछ घटित होने (happens to) से भिन्न है । उदाहरण के रूप में उसका नीचे बैठना (क्योंकि वह कमजोरी का अनुभव करता है) से उसके गिर पड़ने से (क्योंकि उसका पैर केले के छिलके पर पड़ गया था) भिन्न है। कुछ अन्य बातें ऐसी हैं जिन्हें कर्ता करता है लेकिन वे क्रियाओं की कोटि में नहीं आतीं। इस बात को समझने के लिए निम्न विभेदीकरणों पर विचार कीजिए :क्रियाएँ बनाम मात्र व्यवहार (mere-behaviour) :
___ व्यक्ति ऐसे बहत से व्यवहार करता है जिनके कर्ता के बारे में विचार नहीं किया जाता। इस प्रकार के करने (doings) को क्रिया की कोटि में नहीं रखा जाता। क्रिया किसी के साथ घटित होती है (happens to some one) अथवा कुछ करना पड़ता है (just happens to do) से विपरीत-व्यवहार की एक प्रकरण (item) है जिसके होने पर (व्यक्ति) नियंत्रण कर सकता है। क्रियाएं बनाम पर्यवसान (terminations) :
कर्ता क्रियाएँ (activity verbs : listening for, looking at, searching for) तथा उपलब्धि क्रियाएँ (achievement verbs : hearing. seeing, finding) में भेद है। प्रथम प्रकार की कोटि, क्रियाओं का प्रतिनिधित्व करती है लेकिन द्वितीय कोटि (जो केवल क्रिया का परिणाम है) नहीं करती। उदाहरण के रूप में वैवाहिक संस्कारों में भाग लेना क्रिया है लेकिन गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना क्रिया नहीं (संस्कारों को करने का परिणाम है।)
संयम रखना (refraining) बनाम क्रिया न करना (non-action) :
निर्व्यापारत्व या प्रक्रियता (inaction) के दो महत्त्वपूर्ण पर्याय हैं। प्रथम है संयम रखना। किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति से वार्तालाप करते समय मच्छर के काटने से उत्पन्न पोड़ा वाले अंग को न सहलाना संयम रखने का उदाहरण है। दूसरे प्रकार का निर्व्यापारत्व क्रिया न करने (non-action) की कोटि में आता है। उदाहरण के रूप में जब मैं कुर्सी पर बैठकर पढ़ रहा होता हूँ तो मैं बहुत-सी बातें जैसे कि लेख लिखना, मित्र से गप लगाना, आदि नहीं
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पाश्चात्य दर्शन में क्रिया-सिद्धान्त ]
[ २२१
कर रहा होता हूँ। यह निर्व्यापार किसी प्रकार का 'करना' (doing) नहीं है। इनके करने में मैं किसी प्रकार सक्रिय नहीं होता । अतः संयम से भिन्न है। क्रियाएँ बनाम मानसिक क्रियाएँ :
क्रिया में दैहिक पहल भावात्मक रूप में कुछ करने के रूप में या अभावात्मक रूप में संयम रखने के रूप में अवश्य होना चाहिए। अतः विशुद्ध रूप से मानसिक क्रियाएँ जो पूर्णतः आन्तरिक (internal) होती हैं, क्रिया की कोटि में नहीं आतीं। बाह्य मौखिक स्वीकृति देना क्रिया है लेकिन स्वयं में 'मौन स्वीकृति देना' (tacit assent) क्रिया नहीं है । चिन्तित होना स्वयं में क्रिया नहीं है यद्यपि परिक्लान्त रूप से कदम बढ़ाना क्रिया है । प्रत्येक क्रिया का बाह्य शारीरिक पहलू (Component) होता है तथा इसमें किसी न किसी प्रकार की शारीरिक क्रिया निहित होती है। क्रियाएँ व्यक्ति अर्थात् दैहिक (Corporeal) शरीर युक्त कर्ता क्रिया करता है।
क्रिया को वणित' करने के लिए क्रिया को वणित करने वाले निम्न तत्त्वों पर विचार करना चाहिऐ -
१. कर्ता (agent) : इसे (क्रिया को) किसने किया? २. क्रिया प्रकार (act-type) : उसने क्या किया ? ३. क्रिया करने की प्रकारता (modality of action) : उसने किस प्रकार
से किया ? (अ) प्रकारता की विधि (modality of manners) : किस प्रकारता
कीविधि से उसने किया। (ब) प्रकारता का साधन (modality of means) : उसने किस साधन
द्वारा इसे किया। ४. क्रिया की परिस्थिति (setting of action) : किस संदर्भ में उसने इसे
किया। (अ) कालिक पहल-उसने इसे कब किया ? (ब) दैशिक पहलू-इसे उसने कहां किया ? (स) परिस्थित्यात्मक पहलू (Circumstantial aspect) किन परि
स्थितियों में उसने इसे किया? . १. Nicholas Rescher-'On the Characterization of Actions'. The
Nature of Human Action Edited by Myles Brand, पृष्ठ २४७-५४ २. कर्ता, क्रिया प्रकार तथा क्रिया करने का समय तीनों ही क्रिया के वर्णन के लिये
पर्याप्त हैं लेकिन पूर्णरूप से नहीं।
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२२२ ]
[ कर्म सिद्धान्त
५. क्रिया की युक्तियुक्तता (rationale of Actiom ) : इसे उसने क्यों किया ?
(अ) कारणता - इसे करने के पीछे क्या कारण था ?
(ब) पूर्णता ( finality) - किस उद्देश्य ( aim ) से उसने इसे किया ? ( स ) अभिप्रायात्मक ( intentionality ) - किस प्रेरणा से उसने इसे किया ?
किसी क्रिया का कर्त्ता व्यक्ति या समूह ( भीड़, संस्था, पार्लियामेण्ट ) जो क्रिया करने के योग्य है, हो सकता है । समूह विभाजित रूप से ( distributively) या व्यक्तिगत रूप से अथवा सामूहिक रूप से क्रिया कर सकता है ।
क्रिया के प्रकार :
पूर्णरूपेण जाति प्रकार ( fully generic type) की क्रियाएँ जैसे कि खिड़की खोलना, पैंसिल की नोक को तेज करना । लेकिन जब ये क्रियाएँ किसी विशिष्ट विषय की ओर इंगित करती हैं तो विशिष्ट प्रकार ( specific type) की कहलाती हैं जैसे कि 'इस खिड़की को खोलना' 'उस पैंसिल की नोक को तेज करना' आदि । जाति के विभिन्न स्तरों में भी किसी विशिष्ट क्रिया का वर्णन किया जा सकता है । उदाहरण के रूप में 'उसने एक हाथ उठाया' अथवा 'उसने अपना दाहिना हाथ उठाया । जब भी क्रिया प्रकार की बात की जाती है उसमें जिसे व्याकरण में उद्देश्य कहा जाता है, को सम्मिलित किया जाता है । जैसे कि 'राम मोहन को पुस्तक देता है' इस कथन में 'देना' क्रिया प्रकार नहीं है बल्कि 'मोहन को पुस्तक देना' (जो विशिष्ट प्रकार का उदाहरण है) अथवा किसी को पुस्तक देना' (जो जाति प्रकार का उदाहरण है ) क्रिया प्रकार है ।
क्रिया की प्रकारता क्रिया के विशेषणों से ज्ञात होती है (जैसे कि तेजी से हाथ मिलाना, हल्के से हाथ मिलाना) प्रकारता के आधार पर कर्त्ता की मानसिक स्थिति का पता चलता है ।
परिस्थिति का पर्यावरण, काल, स्थान एवं परिस्थिति क्रिया के संदर्भ ( setting ) को निर्धारित करते हैं ।
कर्त्ता ने किया क्यों की ?' इस प्रश्न की व्याख्या में कारणता, पूर्णता (finality ) एवं प्रेरणा का ध्यान रखा जाता है जैसे कि ऐच्छिक / अनैच्छिक / जानकर / अनजाने आदि ।
क्रिया की युक्तिसंगतता के विरोधी युग्म (जैसे कि ऐच्छिक / अनैच्छिक) और क्रिया के प्रकार, प्रकारता ( modality ) एवं परिस्थिति क्रिया प्रत्यय के उभयात्मक स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं । 'व्यक्ति' के प्रत्यय, ( जिसके
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पाश्चात्य दर्शन में क्रिया-सिद्धान्त ]
[ २२३ दैहिक एवं मानसिक परस्पर सम्बन्धित पहलू हैं) के समान क्रिया के बाह्य (दैहिक एवं निरीक्षणीय) तथा आन्तरिक (मानसिक एवं अनिरीक्षणीय) परस्पर सम्बन्धित पहल हैं । क्रिया के 'बाह्य' पहलू का सम्बन्ध उसने क्या (What) किया तथा कैसे तथा किस परिस्थिति में किया, से है जबकि आन्तरिक पहल का सम्बन्ध उसकी मानसिक स्थिति (विचार, अभिप्राय, प्रेरणा आदि) से है।
कर्ता ने 'क्या किया' और 'क्यों किया' में भेद की बात उठायी जाती है। दूसरे शब्दों में क्रिया के वर्णन (description) एवं मूल्यांकन (evaluation) के बीच एक विभाजन रेखा खींचना, सिद्धान्ततः सम्भव भी है तथा व्यावहारिक रूप से वांछनीय भी। असीमित विभाजनशीलता :
सामान्य भाषा में व्यक्तिगत क्रियाओं (individual actions) जैसे 'ताले में चाबी घुमाना' तथा जटिल क्रिया में भेद सर्वविदित है। क्या यह भेद स्वीकार करने योग्य है ? क्या प्रत्येक क्रिया वास्तव में क्रियाओं का एक सिलसिला नहीं है ? क्या सभी क्रियाओं को खण्ड इकाइयों (Components) में विभाजित किया जा सकता है ? क्या विविधता (जैसा कि जीवों के विरोधाभास में है) सीमा रहित नहीं है ? सभी क्रियाओं को विभाजित नहीं किया जा सकता। विभाजन की भी एक सीमा होती है जो कर्ता की मानसिक स्थिति पर आधारित है।
दो प्रमुख क्रिया उक्तियों : एक व्यक्ति ने क्रिया की' तथा 'एक व्यक्ति 'क्रिया कर सकता है' के अर्थ को विश्लेषित करने या निर्धारण करने की दो विधियाँ हैं। प्रथम प्रयास में मानव क्रिया को किन्हीं प्रकार के परिवर्तनों या घटनाओं में 'घटित' किया जाता है । भाषायी दृष्टि से इस बात को इस प्रकार कहेंगे-क्रिया उक्तियों (action talks) को प्रक्रिया-उक्तियों (non-action talks) में विश्लेषित करने का प्रयास करना । क्रिया उक्तियों को इस प्रकार विश्लेषित करने के उपागम को इतर तंत्रीय विधि (extra systemic) कहते हैं । 'व्यवहारवाद' (यहाँ व्यवहार का मोटे रूप में अर्थ है कोई भी दैहिक परिवर्तन या प्रक्रिया) जो मानव क्रियाओं को व्यावहारिक घटनाओं से तादात्म्य करता है, इस उपागम का उदाहरण है ।
द्वितीय उपागम के अनुसार मानव क्रिया की व्याख्या क्रमबद्ध रूप से . (systematically) की जाती है । दूसरे शब्दों में इस उपागम के अनुसार क्रिया युक्तियों की संरचनात्मक तंत्र अथवा फलन (calculus) द्वारा व्याख्या की जाती है।
क्रियाओं की व्याख्या करने वाले कुछ सिद्धान्त क्रिया से सम्बन्धित सिद्धान्तों का संक्षिप्त परिचय देने से पूर्व हम विटगैन्स्टोन के इस कथन को लें-"मैं अपना हाथ उठाता हूँ" इस तथ्य से अगर
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________________ 224 ] [ कर्म सिद्धान्त हम इस तथ्य को कि मेरा हाथ ऊपर जाता है या उठता है को घटा दें (या निकाल दें) तो क्या शेष रहता है ?" यह कथन समस्यापूर्ण है / दूसरे शब्दों में, 'मेरे हाथ की दैहिक गति एवं मेरे हाथ की साभिप्राय क्रिया' में क्या अन्तर है, यह बिन्दु विवादास्पद है। उपयुक्त समस्या को समझने में निम्न पाँच सिद्धान्त सहायक हैं (1) मानसिक घटनाएँ क्रियाओं के कारण के रूप में (Mental events as the causes of actions) इस दृष्टिकोण के अनुसार अभिप्रायात्मक क्रियाएँ (intentional actions) वे गतियाँ हैं जो विशिष्ट प्रकार की मानसिक घटनाओं या व्यवस्थाओं द्वारा उत्पन्न होती हैं। इस दृष्टिकोण के अनुसार 'मेरे द्वारा मेरा हाथ उठाना' क्रिया को इससे पहले की कारणात्मक घटना या स्थिति द्वारा विभेदित किया जा सकता है / ये कारणात्मक घटनाएँ किस प्रकार की घटनाएँ हैं, इस प्रश्न का उत्तर इस सिद्धान्त द्वारा यह कहकर दिया जा सकता है कि कुछ युक्तियाँ देना, निर्णय लेना, चुनाव करना अथवा क्रिया के बारे में तय करना ही कारणात्मक घटनाएँ हैं / (2) कर्त्ता सिद्धान्त (Agency theory) इस सिद्धान्त के अनुसार गति . का कारण घटना न होकर स्वयं कर्ता होता है। जब मैं क्रिया करता हूँ तब मैं ही गति का कारण होता हूँ। (3) निष्पादन सिद्धान्त (Performative theory)-इस सिद्धान्त के अनुसार इस कथन - 'गति एक अभिप्रायात्मक क्रिया है'-का तात्पर्य क्रिया का वर्णन करना नहीं है और न ही यह बताना है कि वस्तुएँ कैसी हैं अथवा किसने किसे उत्पन्न किया / बल्कि इसका तात्पर्य गति के लिये कर्ता पर दायित्व लागू करने की क्रिया का निष्पादन करता है। (4) लक्ष्य क्रियाओं की व्याख्या के रूप में (Goals as the explanation of actions) : कुछ दार्शनिक यह मानते हैं कि कुछ ऐसी बातें हैं जो किसी गति को क्रिया बनाती हैं। इन विचारकों के अनुसार गति की व्याख्या लक्ष्य को ध्यान में रखकर करनी चाहिये / पूर्व स्थित कारण जैसे कि अवस्था या घटना अथवा कर्ता द्वारा क्रिया की व्याख्या करना ठीक नहीं है। (5) क्रियाओं का संदर्भात्मक वर्णन (Contextual account of actions)-इस सिद्धान्त के अनुसार गति अभिप्रायात्मक तब होती है जब इसका वर्णन नियमों, मानकों अथवा चली आ रही रीतियों के द्वारा किया जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only