Book Title: Paryushan Parva Ek Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 7
________________ जीवाभिगमसूत्र का उल्लेख जीवाभिगमसूत्र के अनुसार पर्युषण के एक अठाई महोत्सव (अष्ट दिवसीय पर्व) के रूप में मनाया जाता था। उसमें उल्लेख है कि चातुर्मासिक पूर्णिमाओं एवं पर्युषण के अवसर पर देवतागण नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निक महोत्सव मनाया करते हैं।11 दिगम्बर परम्परा में आज भी आषाढ, कार्तिक और फाल्गुन की पूर्णिमाओं (चातुर्मासिक पूर्णिमाओं) के पूर्व अष्टाह्निक पर्व मनाने की प्रथा है। लगभग आठवीं शताब्दी से दिगम्बर साहित्य में इसके उल्लेख मिलते हैं। प्राचीन काल में पर्युषण आषाढ़ पूर्णिमा को मनाया जाता था और उसके साथ ही अष्टाह्निक महोत्सव भी होता था। हो सकता है कि बाद में जब पर्युषण भाद्र शुक्ल चतुर्थ/पञ्चमी को मनाया जाने लगा तो उसके साथ भी अष्ट-दिवस जुड़े रहे और इसप्रकार वह अष्ट दिवसीय पर्व बन गया। वर्तमान में पर्युषण पर्व का सबसे महत्त्वपूर्ण संवत्सरी पर्व माना जाता है। समवायाङ्गसूत्र का उल्लेख समवायाङ्गसूत्र के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास और बीस रात्रि पश्चात् भाद्रपद अर्थात् शुक्ल पञ्चमी को पर्युषणसांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर लेना चाहिये। निशीथ का उल्लेख निशीथ के अनुसार पचासवीं रात्रि का उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये। उपवासपूर्वक सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना, श्रमण का आवश्यक कर्तव्य तो था ही, लेकिन निशीथचूर्णि में उदयन और चण्डप्रद्योत के आख्यान से ऐसा लगता है कि वह गृहस्थ के लिए भी अपरिहार्य था। लेकिन मूल प्रश्न यह है कि यह सांवत्सरिक पर्व कब किया जाय? सांवत्सरिक पर्व के दिन समग्र वर्ष के अपराधों और भूलों का प्रतिक्रण करना होता है, अतः इसका समय वर्षान्त ही होना चाहिये। प्राचीन परम्परा के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को वर्ष का अन्तिम दिन माना जाता था। श्रावण वदी प्रतिपदा से नव वर्ष का आरम्भ होता था। भाद्र शुक्ल चतुर्थी या पञ्चमी को किसी भी परम्परा (शास्त्र) के अनुसार वर्ष का अन्त नहीं होता। अतः भाद्र शुक्ल पञ्चमी को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की वर्तमान परम्परा समुचित प्रतीत नहीं होती। प्राचीन आगमों में जो देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का उल्लेख है, उसको देखने से ऐसा लगता है कि उस अवधि के पूर्ण होने पर ही तत् सम्बन्धी प्रतिक्रमण (आलोचना) किया जाता था। जिस प्रकार आज भी दिन की समाप्ति पर देवसिक, पक्ष की समाप्ति पर पाक्षिक, चातुर्मास की समाप्ति पर चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया जाता है. उसी प्रकार वर्ष की समाप्ति पर सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाना चाहिये। 11 जीवाभिगम-नन्दीश्वर द्वीप वर्णन। Page |7

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