Book Title: Paryushan Parva Ek Vivechan Author(s): Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 5
________________ रूपी मल को दग्ध किया जाता है, इसलिए पज्जूसण (पर्यषण) आत्मा के कर्म एवं कषाय रूपी मलों को जला कर उसके शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने का पर्व है। वासावास (वर्षावास) 'पर्युषणाकल्प' में पर्युषण शब्द का प्रयोग वर्षावास के अर्थ में भी हुआ है। वर्षाकाल में साधु-साध्वी एक स्थान पर स्थित रहकर पर्युषण कल्प का पालन करते हुए 'आत्मसाधना' करते हैं, इसलिए इसे वासावास (वर्षावास) भी कहा जाता है। पागइया (प्राकृतिक) पागइया का संस्कृत रूप प्राकृतिक होता है। प्राकृतिक शब्द स्वाभाविकता का सूचक है। विभाव अवस्था को छोड़कर स्वभाव अवस्था में परिरमण करना ही पर्युषण की साधना का मूल हार्द है। वह विकृति से प्रकृति में आना है, विभाव से स्वभाव में आना है, इसलिए उसे पागइया (प्राकृतिक) कहा गया है। काम, क्रोध, आदि विकृतियों (विकारों) का परित्याग कर क्षमा, शान्ति, सरलता आदि स्वाभाविक गुणों में रमण करना ही पर्युषण है। पढमसमोसरण (प्रथम समवसरण) प्राचीन परम्परा के अनुसार आषाढ़ शुक्ला पूर्णिका को संवत्सर पूर्ण होने के बाद श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से नववर्ष का प्रारम्भ होता है। वर्ष का प्रथम दिन होने से हमे पढमसमोसरण (प्रथम समवसरण) कहा गया है। दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर के प्रथम समवसरण की रचना और उसकी वाक्धारा का प्रस्फुटन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को हुआ था। इसी दिन उन्होंने प्रथम उपदेश दिया था, इसलिए इसे प्रथम समवसरण कहा जाता है। वर्तमानकाल में भी चातुर्मास में स्थिर होने के पश्चात् चातुर्मासिक प्रवचनों का प्रारम्भ श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से ही माना जाता है। अतः इसे पढमसमोसरण कहा गया है। निशीथ में पर्युषण के लिए 'पढमसमोसरण' शब्द का प्रयोग हुआ है। उसमें कहा गया है कि जो साधु प्रथम समवसरण अर्थात् श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के पश्चात् वस्त्र, पात्र आदि की याचना करता है वह दोष का सेवन करता है। परियायठवणा/परियायवत्थणा (पर्याय स्थापना) पर्युषण पर्व में साधु-साध्वियों को उनके विगत वर्ष की संयम साधना में हुई स्खलनाओं का प्रायश्चित देकर उनकी दीक्षा पर्याय का पुनर्निर्धारण किया जाता है। जैन परम्परा में प्रायश्चित के विविध रूपों में एक रूप छेद भी है। छेद का अर्थ होता है - दीक्षा पर्याय में कमी करना। अपराध एवं स्खलनाओं की गुरुता के आधार पर विविध काल की दीक्षा छेद किया जाता है और साधक की श्रमण संघ में ज्येष्ठता और कनिष्ठता का पुनर्निर्धारण होता है, अतः पर्युषण का एक पर्यायवाची नाम परियायठवणा (पर्याय स्थापना) भी कहा गया है। साधुओं की दीक्षा पर्याय की गणना भी पर्युषणों के आधार पर की जाती है। दीक्षा के बाद जिस साधु को जितने पर्युषण हुए हैं, उसको उतने वर्ष का दीक्षित माना जाता है। यद्यपि पर्यायठवणा के इस अर्थ की अपेक्षा उपर्युक्त अर्थ ही अधिक उचित है। 'निशीथसूत्रम्, संपा0- मधुकर मुनि, प्रका0-श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1978, 10/461 Page15Page Navigation
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