Book Title: Paryushan Parva Ek Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 6
________________ ठवणा (स्थापना) चूँकि पर्युषण (चातुर्मास काल) की अवधि में साधक एक स्थान पर स्थित रहता है इसलिए इसे ठवणा (स्थापना) भी कहा जाता है। दूसरे पर्युषण (संवत्सरी) के दिन चातुर्मास की स्थापना होती है, इसलिए भी इसे ठवणा (स्थापना) कहा गया है। जेट्ठोवग्ग (ज्येष्ठावग्रह) अन्य ऋतुओं में साधु-साध्वी एक या दो मास से अधिक एक स्थान पर स्थित नहीं रहते हैं, किन्तु पर्युषण (वर्षाकाल) में चार मास तक एक ही स्थान पर स्थित रहते हैं, इसलिए जेट्ठोवग्ग (जेष्ठावग्रह) भी कहा गया है। अष्टाह्निक पर्व पर्यषण को अष्टाह्निक पर्व या अष्टाह्निक महोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। वर्तमान में यह पर्व आठ दिनों तक मनाया जाता है इसलिए इसे अष्टाह्रिक अर्थात आठ दिनों का पर्व भी कहते दशलक्षण पर्व दिगम्बर परम्परा में इसका प्रसिद्ध नाम दशलक्षण पर्व है। दिगम्बर परम्परा में भाद्र शुक्ल पञ्चमी से भाद्र तक दश दिनों में, धर्म के दस लक्षणों की क्रमशः विशेष साधना की जाती है, अतः इसे दशलक्षण पर्व कहते हैं। पर्युषण (संवत्सरी) पर्व कब और क्यों? कल्पसूत्र एवं निशीथ का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों विशेष रूप से कल्पसूत्र एवं निशीथ के देखने से यह स्पष्ट होता है कि पर्युषण मूलतः वर्षावास की स्थापना का पर्व था। यह वर्षावास की स्थापना के दिन मनाया जाता था। उपवास, केशलोच, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण एवं प्रायश्चित्त, क्षमायाचना (कषाय-उपशमन) और पज्जोसवणाकप्प (पर्युषण कल्प-कल्पसूत्र) का पारायण उस दिन के आवश्यक कर्तव्य थे। इस प्रकार पर्युषण एक दिवसीय पर्व था। निशीथचूर्णि का उल्लेख यद्यपि निशीथचूर्णि के अनुसार पर्युषण के अवसर पर तेला (अष्टम भक्त = तीन दिन का उपवास) करना आवश्यक था। उसमें स्पष्ट उल्लेख है कि ‘पज्जोसवणाए अट्ठम न करेइ तो चउगुरु' अर्थात् जो साधु पर्युषण के अवसर पर तेला नहीं करता है तो उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।10 इसका अर्थ है कि पर्युषण की आराधना का प्रारम्भ उस दिन के पूर्व भी हो जाता था। 10 निशीथचूर्णि, जिणदासगणि, प्रका0-सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, 1957,3217| Page |6

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