Book Title: Paryavaran Parirakshan Apariharya Avashyakta Author(s): Harichandra Bharatiya Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf View full book textPage 2
________________ - 9.6 SODE 3.00 14050596855 30-ODSDDCDDDDDDOSD 800000000000 SODOORNanadaNEEDOD 1000000 DIOS205 } जन-मंगल धर्म के चार चरण ५६१ ।। पारिस्थितिक-तंत्र डगमगा रहा है। उनकी संरचना, गुणात्मकता और क्लोरो-फ्लोरो कार्बन्स तथा मीथेन का योगदान क्रमशः ५५, २४ व सन्तुलन सभी बिगड़ते जा रहे हैं। १५ प्रतिशत है, शेष कुछ अन्य गैसों का है। पृथ्वी का तापमान पिछले २०-२२ वर्षों से जो अहम् बिन्दु विश्व-स्तर पर चिन्ता जिन बढ़ने से धूवीय वर्फ पिघलती है, जिससे समुद्री तल ऊँचा होता है। के विषय बने हुए हैं, वे संक्षेप में इस प्रकार हैं : एक आकलन के अनुसार हरित-गृह गैसों के प्रभाव से पृथ्वी का औसत तापमान ०.३ डिग्री सेल्सियस प्रति दशक के हिसाब से बढ़ १. वन विनाश-संसार में वनों का विनाश बहुत बड़े पैमाने रहा है। अगर यही क्रम जारी रहा तो ४ डिग्री सेल्सियस से. औसत पर हो रहा है। सघन वन विश्व के फेफड़ों का काम करते रहे हैं। तापमान बढ़ने से समुद्री तल एक सौ सेन्टीमीटर ऊँचा हो जायेगा ऐसे सघन वन विशेष रूप से उष्ण-कटिबन्धीय प्रदेशों में पाये जाते और अनेक तटीय बस्तियाँ जलमग्न हो जायेंगी। कार्बन-डाइ हैं और औद्योगिक युग में इन वनों की व्यापक कटाई की गई है। ऑक्साइड मुख्य रूप से कल कारखानों और विविध वाहनों, जिनमें आजकल इनका विनाश एक करोड़ सत्तर लाख हेक्टेयर की दर से खनिज ईंधन का उपयोग होता है, के द्वारा उत्पन्न होती है। हो रहा है। वनों का यह क्षेत्रफल फिनलैण्ड देश के आधे अथवा क्लोरो-फ्लोरो कार्बन्स का फ्रिजों, वातानुकूलन-यंत्रों, फोम, इत्रों बिहार राज्य के पूरे क्षेत्रफल के बराबर है। वनों की कटाई के साथ आदि में उपयोग होता है, जबकि मीथेन गैस के मुख्य स्रोत धान के वन्य जीवों तथा वृक्षों पर निवास करने वाले विविध प्रकार के खेतों का दल-दल और ढोर-मवेशियों का गोबर आदि है। आज की छोटे-बड़े प्राणी भी नष्ट होते जा रहे हैं। अनुमान है कि आजकल सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि इन सब गैसों की मात्रा उत्तरोत्तर प्रतिदिन वनस्पतियों और प्राणियों की करीब १४0 जातियाँ बढ़ती ही जा रही है। विश्वताप में वृद्धि होने से संसार की जलवायु (स्पीशीज) विलुप्त होती जा रही हैं। यह दर पिछली शताब्दी तक पर भी गहरा प्रभाव पड़ने वाला है जो पृथ्वी पर जीवन के लिए नगण्य थी। वनों के विनाश से जैव-विविधता ही कम नहीं हो रही विकट संकट उपस्थित कर सकता है। है, वरन् समग्र पर्यावरण पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। वायुमण्डल में ३. ओजोन छिद्र-हमारे वायुमण्डल में १५-२० किमी से प्राणदायी ऑक्सीजन की कमी तथा कार्बन-डाइ ऑक्साइड में वृद्धि ३५-४० किमी की ऊँचाई तक औजोन गैस की परत पाई जाती है। हो रही है, जलवायु अनियमित व अनिश्चित हो रही है, भूमि की उर्वरता घट रही है तथा जीव-जगत् में आहार-शृंखला और यह परत रक्षात्मक कवच का काम करती है। ओजोन की परत MEDIA अन्तरिक्ष से आने वाली पराबैंगनी किरणों को रोक लेती हैं। ऊर्जा प्रवाह की कड़ियां टूट रही हैं। लोगों के व्यावसायिक लोभ पराबैंगनी किरणें त्वचा-कैंसर तथा नेत्र रोग उत्पन्न करती हैं। तथा शिकार के शौक के कारण विविध पशु-पक्षियों और जलचरों आधुनिक जीवन पद्धति में सुख-सुविधाओं के उपकरणों की भरमार की शामत ही आ गई है। बीस-पच्चीस वर्ष पहले नजर आने वाले होती जा रही है। आजकल घरों में फ्रिज, वातानुकूलन यंत्र, फोम अनेक पक्षी अब नजर नहीं आते। के सामान आदि का उपभोग होना सामान्य बात हो गई है। भारत के वनों में कभी चीता बहुतायत से पाया जाता था; विकसित देशों में तो इनका उपयोग अत्यधिक हो रहा है। इन सबमें किन्तु अन्धाधुन्ध शिकार के कारण सन् १९५३ के आते-जाते । काम आने वाली क्लोरो-फलोरो कार्बन गैस अन्ततः वायुमण्डल में उसका पूर्ण विलोपन हो गया। आजकल हाथी, शेर, तेंदुआ, गैंडा, पहुँच कर ओजोन गैस को नष्ट करती है। यही कारण है कि जंगली भैंसा, मगर, गोडावण आदि विविध जीव-जन्तु विलोपन के | ओजोन की परत कई स्थानों पर बहुत विरल हो गई है। ओजोन के निकट हैं। प्रकृति में लाखों-लाखों वर्षों के विकास-क्रम के दौरान विरलीकरण को ही ओजोन छिद्र कहते हैं। क्लोरो-फ्लोरो कार्बन्स उद्भूत हुए जीवों को मनुष्य के लिए कुछ ही वर्षों में विलुप्त करना के कारण ओजोन छिद्र बड़ा होता जा रहा है। इसकी गम्भीरता को तो आसान है, किन्तु उन जैसी एक भी जाति को उत्पन्न करना देखकर सन् १९८७ के मोन्ट्रियल सम्मेलन में क्लोरो-फलोरो कार्बन सम्भव नहीं है। गैसों का कम हानिकारक विकल्प ढूँढ़ने तथा सन् २000 तक २. विश्वतापन-वायुमण्डल में कार्बन-डाइ ऑक्साइड, क्लोरो क्लोरो-फलोरो कार्बन्स का उत्पादन पूर्ण रूप से बन्द करने का फ्लोरो-कार्बन्स, मीथेन आदि गैसों की मात्रा बढ़ती जा रही है। ये निर्णय लिया गया है। यद्यपि इस दिशा में प्रयास जारी हैं, किन्तु यह ताप को अन्तरिक्ष में जाने से रोकती है जिससे लक्ष्य पूरा हो पायेगा या नहीं, अभी सब कुछ अनिश्चित है। सूर्यास्त के बाद भी उसमें काफी गर्मास बनी रहती है। इस तथ्य को ४. विकिरण प्रदूषण-हम परमाणु ऊर्जा के युग में रह रहे हैं। 200 "हरित-गृह प्रभाव''(Green House Effect) कहते हैं। ऊर्जा की शक्तिशाली अदृश्य किरणों को आम तौर पर विकिरण औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् इन गैसों, विशेषकर कार्बन-डाइ कहते हैं। परमाणु के नाभिक से प्राप्त होने वाली विकिरणों में ऑक्साइड की मात्रा में निरन्तर वृद्धि हुई है। एक अनुमान के अत्यधिक ऊर्जा होती है तथा उनकी भेदन शक्ति भी बहुत होती है। अनुसार औद्योगिक-पूर्व युग के मुकाबले में वायुमण्डल में उसकी शरीर में प्रवेश करने पर वे अणु-परमाणुओं को आयनों (विद्युत सान्द्रता २६ प्रतिशत बढ़ गई है, जिससे धीरे-धीरे पृथ्वी का औसत मय कणों) में बदल देती हैं, जिससे शरीर में अवांछित रासायनिक तापमान बढ़ता जा रहा है। विश्वतापन में कार्बन-डाइ ऑक्साइड, क्रियाओं का सिलसिला शुरू हो जाता है, जो अन्ततः हानिकारक तु लसूतso 36SH desosoredos A YPORPOR .3000000000000000000000000%DED -300Darpoom5000000 000005000Page Navigation
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