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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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पर्यावरण परिरक्षण : अपरिहार्य आवश्यकता
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-डॉ. हरिश्चन्द्र भारतीय मानव-जाति एक बहुत बड़े भय से मुक्त होकर बीसवीं सदी से अधिकता के कारण विकासशील देशों में जनसंख्या की वृद्धि-दर इक्कीसवीं सदी के प्रवेश द्वार पर पहुँच रही है। लगभग चालीस वर्ष । बहुत अधिक है, जबकि विकसित देशों में यह शून्य के आस-पास तक सारा संसार परमाणु युद्ध के सम्भावित महाविनाश की आशंका ही है। इस दृष्टि से भारत का परिदृश्य भी बड़ा निराशाजनक है। के साये में जीता रहा। सन् १९४९-५० से १९८९-९० तक दुनियां विभाजन के बाद भारत की आबादी ३३-३४ करोड़ के लगभग रह की दोनों महाशक्तिया, रूस और अमरीका एक दूसरे के | गई थी, जो आजकल बढ़कर ८९ करोड़ से अधिक हो चुकी है। आमने-सामने खड़ी रहीं और समस्त सृष्टि को १५-१६ बार नष्ट हमारे यहाँ प्रतिवर्ष लगभग १ करोड ७० लाख लोग बढ़ जाते हैंकरने की क्षमता रखने वाले नाभिकीय अस्त्रों के दुरुपयोग की घोर । यह संख्या आस्ट्रेलिया की कुल आबादी से अधिक है। पीड़ा हमें सताती रही। नाभिकीय विश्व युद्ध की विभीषिका को
पर्यावरण के बारे में विश्व-चिन्तन का आरम्भ सन् १९७२ में टालने में उदात्त मानवीय विरासत के अनुरूप भारत की विशिष्ट
स्टॉकहोम के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन से हुआ। पर्यावरण के चार मुख्य भूमिका को हम गर्व एवं गहरे आत्म-संतोष के साथ याद कर सकते
घटक हैं-वायु मण्डल, जल मण्डल, स्थल-मण्डल तथा जैव-मण्डल हैं। विश्व स्तर पर पंचशील और सह-अस्तित्व तथा गुट-निरपेक्षता
(वनस्पति एवं प्राणी वर्ग)। इनके पारस्परिक अध्ययन को की नीति के आधार पर हमारे शान्ति-प्रयास भगवान महावीर और
पारिस्थितिकी कहते हैं। अभी तक की निश्चित जानकारी के बुद्ध से लेकर कबीर, नानक और गाँधी की विश्व-दृष्टि के प्रतिफल
अनुसार हमारी पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ग्रह अथवा आकाशीय थे, जिन्हें युग पुरुष नेहरू ने मुखरित किया था। वे प्रयास कितने
पिण्ड है जिस पर जीवन पाया जाता है। इतना शस्य श्यामल सुन्दर सफल और असफल रहे, यह एक अलग बिन्दु है, किन्तु इसी
कोई अन्य ग्रह नहीं है। लगभग ५ अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई शताब्दी के महान् दार्शनिक चिन्तक बण्ड रसल ने जब यह कहा
पृथ्वी पर धीर-धीरे वायु मण्डल, जल मण्डल और स्थल-मण्डल का कि नेहरू की गुट-निरपेक्षता की नीति ने एक से अधिक अवसरों
निर्माण हुआ और २-३ अरब वर्ष पूर्व जीव-द्रव्य के निर्माण की पर संसार को तृतीय विश्व युद्ध से बचाया, तब स्वाधीन भारत की
प्रक्रिया आरम्भ हुई। जैव-विकास की लम्बी और जटिल पगडण्डियों ऐतिहासिक सार्थकता का महत्व सामने आया था।
पर चलते हुए सूक्ष्म-सरल संरचना के जीवों से लेकर विशाल एक नया संकट
जटिल जीवों का आविर्भाव होता गया। जीवों की जो जातियाँ अपने शीतयुद्ध की समाप्ति के साथ नाभिकीय युद्ध का खतरा तो
आपको बदलते हुए पर्यावरण के अनुकूल नहीं ढाल सकीं, वे बहुत कुछ टल गया; किन्तु जिस नये संकट का सामना इक्कीसवीं
विलुप्त हो गई। जैव-विकास के दौरान विलोपन की ये घटनायें शताब्दी को करना पड़ सकता है, महाविनाश की दृष्टि से वह और
बहुत धीमी गति से यदा-कदा ही होती थीं।
बहुत धाम भी अधिक गम्भीर हो सकता है। वह संकट और कहीं नहीं, हमारे सर्वांगीण दृष्टि से विचार करें तो आधुनिक मानव को, पर्यावरण से आ रहा है, जो हमारी विविध गतिविधियों के कारण। जिसका वैज्ञानिक नाम “होमो सेपियन्स" (Homo sapiens) है, द्रुतगति से प्रदूषित हो रहा है। वह अभी से अपने विकराल रूप की प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति कह सकते हैं। अपने मुक्त हाथों पर झलकियां भी दिखाने लगा है, और अगर यही गति रही तो आधारित सर्जनात्मक (साथ ही विनाशात्मक भी) क्षमता, वाणी अत्यधिक प्रदूषण के परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं, उनकी और विचार क्षमता के कारण वह अन्य सभी प्राणियों से भिन्न है। कल्पना करना भी कठिन है, और निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या के विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों के निर्माण-क्रम के विगत सन्दर्भ में इस समस्या पर विचार करें तो सिर चकराने लगता है। १०-१२ हजार वर्षों के छोटे से इतिहास में उसने सारी पृथ्वी का परिवार नियंत्रण के अनेक प्रयासों के बावजूद विश्व की जनसंख्या रूप ही बदल डाला है और प्रकृति के सहज कार्य-कलापों में अनेक बराबर बढ़ती ही जा रही है। प्रतिवर्ष ९-९१ करोड़ की वृद्धि-दर विघ्न खड़े कर दिये हैं। वनों की व्यापक कटाई, खेती-बाड़ी, से वह ५१ अरब का आंकड़ा पार कर चुकी है तथा सन् दो पशुपालन, भवन-निर्माण, कल-कारखाने, जल-थल और वायु में हजार तक ६१ अरब के आस-पास पहुँच जायेगी। आबादी बढ़ने । गमन करते वाहन आदि मानव की ऐसी गतिविधियां हैं जिन्हें के साथ ही रोटी-रोजी, कपड़ा और मकान की समस्या तीव्र होती प्रकृति एक सीमा तक ही वहन कर सकती है। उसके बाद तो जाती है, जिससे और अधिक खेती, चरागाहों तथा भवन-निर्माण विनाश की राह पर ही अग्रसर होना है। हम पर्यावरण के सन्दर्भ में के लिए आवश्यक भूमि प्राप्त करने हेतु वनों की कटाई, उस 'लक्ष्मण रेखा' के अतिक्रमण के समीप पहुँच गये हैं, जहाँ से जैव-विविधता के विनाश और पेयजल की कमी का सिलसिला आगे सुरक्षित वापसी सम्भव नहीं है। हमारी विविध गतिविधियों के बढ़ता जाता है। दुर्भाग्य से भूख, गरीबी, अज्ञान और पाखण्ड की फलस्वरूप पर्यावरण के सभी घटकों में दोष आ रहा है और सारा
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} जन-मंगल धर्म के चार चरण
५६१ ।। पारिस्थितिक-तंत्र डगमगा रहा है। उनकी संरचना, गुणात्मकता और क्लोरो-फ्लोरो कार्बन्स तथा मीथेन का योगदान क्रमशः ५५, २४ व सन्तुलन सभी बिगड़ते जा रहे हैं।
१५ प्रतिशत है, शेष कुछ अन्य गैसों का है। पृथ्वी का तापमान पिछले २०-२२ वर्षों से जो अहम् बिन्दु विश्व-स्तर पर चिन्ता
जिन बढ़ने से धूवीय वर्फ पिघलती है, जिससे समुद्री तल ऊँचा होता है। के विषय बने हुए हैं, वे संक्षेप में इस प्रकार हैं :
एक आकलन के अनुसार हरित-गृह गैसों के प्रभाव से पृथ्वी का
औसत तापमान ०.३ डिग्री सेल्सियस प्रति दशक के हिसाब से बढ़ १. वन विनाश-संसार में वनों का विनाश बहुत बड़े पैमाने
रहा है। अगर यही क्रम जारी रहा तो ४ डिग्री सेल्सियस से. औसत पर हो रहा है। सघन वन विश्व के फेफड़ों का काम करते रहे हैं।
तापमान बढ़ने से समुद्री तल एक सौ सेन्टीमीटर ऊँचा हो जायेगा ऐसे सघन वन विशेष रूप से उष्ण-कटिबन्धीय प्रदेशों में पाये जाते
और अनेक तटीय बस्तियाँ जलमग्न हो जायेंगी। कार्बन-डाइ हैं और औद्योगिक युग में इन वनों की व्यापक कटाई की गई है।
ऑक्साइड मुख्य रूप से कल कारखानों और विविध वाहनों, जिनमें आजकल इनका विनाश एक करोड़ सत्तर लाख हेक्टेयर की दर से
खनिज ईंधन का उपयोग होता है, के द्वारा उत्पन्न होती है। हो रहा है। वनों का यह क्षेत्रफल फिनलैण्ड देश के आधे अथवा
क्लोरो-फ्लोरो कार्बन्स का फ्रिजों, वातानुकूलन-यंत्रों, फोम, इत्रों बिहार राज्य के पूरे क्षेत्रफल के बराबर है। वनों की कटाई के साथ
आदि में उपयोग होता है, जबकि मीथेन गैस के मुख्य स्रोत धान के वन्य जीवों तथा वृक्षों पर निवास करने वाले विविध प्रकार के
खेतों का दल-दल और ढोर-मवेशियों का गोबर आदि है। आज की छोटे-बड़े प्राणी भी नष्ट होते जा रहे हैं। अनुमान है कि आजकल
सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि इन सब गैसों की मात्रा उत्तरोत्तर प्रतिदिन वनस्पतियों और प्राणियों की करीब १४0 जातियाँ
बढ़ती ही जा रही है। विश्वताप में वृद्धि होने से संसार की जलवायु (स्पीशीज) विलुप्त होती जा रही हैं। यह दर पिछली शताब्दी तक
पर भी गहरा प्रभाव पड़ने वाला है जो पृथ्वी पर जीवन के लिए नगण्य थी। वनों के विनाश से जैव-विविधता ही कम नहीं हो रही विकट संकट उपस्थित कर सकता है। है, वरन् समग्र पर्यावरण पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। वायुमण्डल में
३. ओजोन छिद्र-हमारे वायुमण्डल में १५-२० किमी से प्राणदायी ऑक्सीजन की कमी तथा कार्बन-डाइ ऑक्साइड में वृद्धि
३५-४० किमी की ऊँचाई तक औजोन गैस की परत पाई जाती है। हो रही है, जलवायु अनियमित व अनिश्चित हो रही है, भूमि की उर्वरता घट रही है तथा जीव-जगत् में आहार-शृंखला और
यह परत रक्षात्मक कवच का काम करती है। ओजोन की परत MEDIA
अन्तरिक्ष से आने वाली पराबैंगनी किरणों को रोक लेती हैं। ऊर्जा प्रवाह की कड़ियां टूट रही हैं। लोगों के व्यावसायिक लोभ
पराबैंगनी किरणें त्वचा-कैंसर तथा नेत्र रोग उत्पन्न करती हैं। तथा शिकार के शौक के कारण विविध पशु-पक्षियों और जलचरों
आधुनिक जीवन पद्धति में सुख-सुविधाओं के उपकरणों की भरमार की शामत ही आ गई है। बीस-पच्चीस वर्ष पहले नजर आने वाले
होती जा रही है। आजकल घरों में फ्रिज, वातानुकूलन यंत्र, फोम अनेक पक्षी अब नजर नहीं आते।
के सामान आदि का उपभोग होना सामान्य बात हो गई है। भारत के वनों में कभी चीता बहुतायत से पाया जाता था; विकसित देशों में तो इनका उपयोग अत्यधिक हो रहा है। इन सबमें किन्तु अन्धाधुन्ध शिकार के कारण सन् १९५३ के आते-जाते । काम आने वाली क्लोरो-फलोरो कार्बन गैस अन्ततः वायुमण्डल में उसका पूर्ण विलोपन हो गया। आजकल हाथी, शेर, तेंदुआ, गैंडा, पहुँच कर ओजोन गैस को नष्ट करती है। यही कारण है कि जंगली भैंसा, मगर, गोडावण आदि विविध जीव-जन्तु विलोपन के | ओजोन की परत कई स्थानों पर बहुत विरल हो गई है। ओजोन के निकट हैं। प्रकृति में लाखों-लाखों वर्षों के विकास-क्रम के दौरान विरलीकरण को ही ओजोन छिद्र कहते हैं। क्लोरो-फ्लोरो कार्बन्स उद्भूत हुए जीवों को मनुष्य के लिए कुछ ही वर्षों में विलुप्त करना के कारण ओजोन छिद्र बड़ा होता जा रहा है। इसकी गम्भीरता को तो आसान है, किन्तु उन जैसी एक भी जाति को उत्पन्न करना देखकर सन् १९८७ के मोन्ट्रियल सम्मेलन में क्लोरो-फलोरो कार्बन सम्भव नहीं है।
गैसों का कम हानिकारक विकल्प ढूँढ़ने तथा सन् २000 तक २. विश्वतापन-वायुमण्डल में कार्बन-डाइ ऑक्साइड, क्लोरो
क्लोरो-फलोरो कार्बन्स का उत्पादन पूर्ण रूप से बन्द करने का फ्लोरो-कार्बन्स, मीथेन आदि गैसों की मात्रा बढ़ती जा रही है। ये
निर्णय लिया गया है। यद्यपि इस दिशा में प्रयास जारी हैं, किन्तु यह ताप को अन्तरिक्ष में जाने से रोकती है जिससे लक्ष्य पूरा हो पायेगा या नहीं, अभी सब कुछ अनिश्चित है। सूर्यास्त के बाद भी उसमें काफी गर्मास बनी रहती है। इस तथ्य को ४. विकिरण प्रदूषण-हम परमाणु ऊर्जा के युग में रह रहे हैं। 200 "हरित-गृह प्रभाव''(Green House Effect) कहते हैं। ऊर्जा की शक्तिशाली अदृश्य किरणों को आम तौर पर विकिरण औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् इन गैसों, विशेषकर कार्बन-डाइ कहते हैं। परमाणु के नाभिक से प्राप्त होने वाली विकिरणों में ऑक्साइड की मात्रा में निरन्तर वृद्धि हुई है। एक अनुमान के अत्यधिक ऊर्जा होती है तथा उनकी भेदन शक्ति भी बहुत होती है। अनुसार औद्योगिक-पूर्व युग के मुकाबले में वायुमण्डल में उसकी शरीर में प्रवेश करने पर वे अणु-परमाणुओं को आयनों (विद्युत सान्द्रता २६ प्रतिशत बढ़ गई है, जिससे धीरे-धीरे पृथ्वी का औसत मय कणों) में बदल देती हैं, जिससे शरीर में अवांछित रासायनिक तापमान बढ़ता जा रहा है। विश्वतापन में कार्बन-डाइ ऑक्साइड, क्रियाओं का सिलसिला शुरू हो जाता है, जो अन्ततः हानिकारक तु
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ होता है। इससे कैंसर जैसे असाध्य रोग हो जाते हैं जिनका हमें ध्वनि-विस्तारक यंत्रों के उपयोग से कोलाहल के केन्द्र बनते जा रहे बहुत समय तक पता ही नहीं लगता। विकिरणों से हमारी पूरी तरह मुक्ति भी नहीं हो सकती; क्योंकि प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त
पृथ्वी पर पेयजल के रूप में जितना पानी उपलब्ध है, वह कुल विकिरणों से हम नहीं बच सकते। हमारे कुल विकिरणीय उद्भासन
जल का मुश्किल से एक प्रतिशत है। उसका भी हम न केवल में ८० प्रतिशत योगदान प्राकृतिक स्रोतों का होता है। अन्तरिक्ष से
बेरहमी से दुरुपयोग कर रहे हैं, वरन् नदियों और जलाशयों में प्राप्त कास्मिक किरणें तथा पृथ्वी में मिलने वाले रेडियोएक्टिव
रासायनिक निस्सरण, रंग-रोगन, मल-मूत्र, मृत शरीर व उनकी पदार्थों से निकलने वाली किरणें प्राकृतिक विकिरणों के प्रमुख स्रोत
राखादि जैसी गन्दगी डालकर उसे पीने के अनुपयुक्त बना रहे हैं। हैं। इनमें भी रेडोन नाम की गैस से सर्वाधिक उद्भासन (कुल
हमारी प्रवंचना और पाखण्ड तो देखिये-हम गंगा को गंगा मैया प्राकृतिक उद्भासन का दो तिहाई) होता है, और यह गैस चट्टानों
कहकर पूजते तो हैं, लेकिन साथ ही उसमें हर प्रकार की गन्दगी (पत्थर) व सीमेंट-कोंक्रीट आदि से निकलती है। आजकल आम
डालकर उसके उत्तम जल को अति कलुषित करने से चूकते भी तौर पर हम इन्हीं के बने पक्के मकानों में रहते हैं, फिर भला
नहीं हैं। आयनकारी विकिरणों से कैसे बचा जा सकता है?
पर्यावरण परिरक्षण-विज्ञान और तकनीकी ने हमें अपने जहाँ तक मानव-कृत विकिरणों का प्रश्न है, उनमें भी
जीवन को सुखी और सुविधापूर्ण बनाने के साधन उपलब्ध कराये चिकित्सा के काम में आने वाली विकिरणों से हमारा सबसे अधिक
हैं। जनकल्याण व आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विज्ञान का सामना होता है। आजकल आवश्यक-अनावश्यक रूप से एक्स रेज
सदुपयोग करते हुए मानव-जाति ने १९वीं और २०वीं शताब्दी में और गामा रेज का रोग-निदान तथा चिकित्सा हेतु जितना व्यापक
अद्भुत उपलब्धियां प्राप्त की। विज्ञान की रचनात्मक क्षमता में उपयोग हो रहा है, क्या निकट भविष्य में उस पर विवेक-सम्मत
अपार विश्वास व्यक्त करते हुए इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विचारक टी. नियंत्रण पाना सम्भव हो सकेगा? मानवकृत विकिरणों के दो अन्य
एच. हक्सले ले कहा था कि वैज्ञानिक ज्ञान के विवेकपूर्ण उपयोग स्रोत और हैं-परमाणु बमों के परीक्षण तथा परमाणु विद्युत गृहों से
से नरक को भी स्वर्ग में बदला जा सकता है। इसीलिए फ्रांस के प्राप्त रेडियो एक्टिव पदार्थ। सौभाग्य से परमाणु बमों के परीक्षण
महान् मानववादी वैज्ञानिक लुई पास्टर ने अपने देशवासियों से का सिलसिला लगभग समाप्त हो गया है तथा परमाणु बिजली घरों
अपील करते हुए कहा था कि-"मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि से प्राप्त विकिरणशील पदार्थों की मूल समस्या उनके रख
आप उन पवित्र स्थानों में, जिन्हें प्रयोगशाला कहा जाता है, रुचि रखाव उपयुक्त ढंग से उनके विसर्जन के तौर तरीकों से सम्बन्धित
लीजिये। वहाँ मानवता दिन-प्रदिदिन बड़ी होती है, अच्छी होती है, है। वैसे भी जितना प्रचार है, इन स्रोतों से उतनी हानि की आशंका
शक्तिशाली होती है। हमारे अन्य कार्य तो प्रायः बर्बरता, धर्मान्धता नहीं है। हाँ, उनका अधिक प्रसार भविष्य में बड़ी समस्या उत्पन्न
एवं विनाशकारी होते हैं। लेकिन विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण । कर सकता है।
के प्रबल पक्षधर पं. जवाहरलाल नेहरू उसके नकारात्मक पक्ष के पर्यावरण प्रदूषण के, जिससे उसका तेजी से निम्नीकरण हो । प्रति आशंकित भी थे। उन्होंने "विश्व-इतिहास की झलक" में उस रहा है अन्य और भी पक्ष हैं। पूर्व उल्लेखित हानिकारक गैसों के आशंका को व्यक्त करते हुए लिखा है- "ज्ञान का पूरा लाभ हम अतिरिक्त कारखानों, वाहनों, बिजली घरों आदि से वायुमण्डल
तभी उठा सकते हैं जब यह सीखलें कि उसका उचित उपयोग क्या सल्फर-डाइ ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइडस, कार्बन मोनो- है। अपनी शक्तिशाली गाड़ी को बेतहाशा दौड़ाने से पहले यह जान ऑक्साइड, बेन्जो पाइरिन, पदार्थ के प्रलंबित कणों आदि की मात्रा लेना चाहिए कि हमें किधर जाना है। आज अनगिनती लोगों के में भी निरन्तर वृद्धि हो रही है, जिसके कारण विभिन्न प्रकार के
दिलों में ऐसी कोई धारणा नहीं है और वे इसके बारे में कभी श्वसन रोगों, एनीमिया, क्षयरोग, नेत्र रोग व कैंसर आदि की चिन्ता ही नहीं करते। होशियार बन्दर शायद मोटर गाड़ी चलाना आवृत्ति बढ़ती जा रही है। सल्फर और नाइट्रोजन के ऑक्साइडों
सीख जाय, पर उसके हाथ में गाड़ी दे देना खतरे से खाली नहीं की वायुमण्डल में अधिक मात्रा न केवल मनुष्य वरन् अन्य सभी
है।" और आखिर हो यही रहा है। प्राणियों तथा पेड़-पौधों के लिए भी हानिकारक होती है। बड़े-बड़े हम ज्ञान-विज्ञान का उपयोग भूख, गरीबी, अशिक्षा, आद्योगिक नगरों में तो इन गैसों के आधिक्य के कारण अम्लीय अन्ध-विश्वास. बीमारी आदि का उन्मूलन करके मानवीय संवेदना वर्षा भी हो जाती है। इसके अतिरिक्त चारों ओर इतना कोलाहल एवं प्रकृति प्रेम से परिपूर्ण समाज की रचना करने में करते, लेकिन बढ़ता जा रहा है कि शोर-प्रदूषण भी एक विकट समस्या का रूप ठीक इसके विपरीत उसका अधिक उपयोग युद्ध, विलासिता, हिंसा, धारण करता जा रहा है। बढ़ते हुए कोलाहल से बहरेपन, रक्तचाप, शोषण आदि के उपकरण तैयार करने में कर रहे हैं। महात्मा गाँधी मानसिक तनाव आदि में वृद्धि हो रही है। आजकल तो धार्मिक ने औद्योगिक घरानों के बीच चलने वाली स्पर्धा के घातक परिणामों स्थल भी, जो कभी आदर्श शान्ति के स्थान हुआ करते थे, को भली-भाँति समझ लिया। वे जान गये थे कि इस सभ्यता में
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________________ D19 D2 D2 D DDDDDS.DOD DJa } जन-मंगल धर्म के चार चरण BIDDID DEO लोगों का लालच निरन्तर बढ़ता ही जायेगा और एक दिन दुनियां / निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या विकासशील देशों के लिए बहुत बड़ी के सामने अत्यन्त विकट स्थिति आ जायेगी। वे कहा करते थे- चुनौती है। "लोगों के भरण-पोषण के लिए धरती माता के पास पर्याप्त भण्डार 2. हमें हमारी लालसाओं और लोभ-लालच पर अंकुश लगाना है, किन्तु उनके लालच को पूरा करने की क्षमता उसमें नहीं है।" पड़ेगा। ये अपार विलासिता के आधार हैं, जिसके कारण पर्यावरण दुर्भाग्य से वही स्थिति हमारे सामने आ गई है। आज हम पृथ्वी का विशेष रूप से प्रदूषित हो रहा है। यहाँ अपरिग्रह एवं आर्थिक इतना दोहन और निम्नीकरण कर रहे हैं कि उसकी संभरण-क्षमता समानता की सच्ची भावना बहुत कारगर सिद्ध हो सकती है। इस के चुक जाने की नौबत आ रही है। पन्द्रहवीं शताब्दी में कश्मीर के क्षेत्र में विकसित देश विकास के नाम पर मानवता के प्रति अक्षम्य एक फकीर नन्द ऋषि (नूरुद्दीन शेख) ने अद्भुत बात कही थी कि अपराध के भागी हैं। उन देशों में संसार की मुश्किल से एक जब तक जंगल रहेंगे, तब तक कोई भूखों नहीं मरेगा। लेकिन हम चौथाई आबादी बसती है; किन्तु विकासशील देशों की अपेक्षा वनों और वन्य जीवों का तेजी से सफाया करते जा रहे हैं और पर्यावरण को प्रदूषित करने में उनका योगदान तीन चौथाई है। समग्र पर्यावरण को विषाक्त बना रहे हैं। भारतीय मनीषियों ने तो विकसित देशों ने इस सन्दर्भ में विकास और पर्यावरण को विवाद इस तथ्य के मर्म को सहस्रों वर्ष पहले ही गहराई से समझ लिया का विषय बना दिया है। आजकल विकसित देश विकासशील देशों था। तभी तो उन्होंने अपने आराध्य देवी-देवताओं, अवतारों, को यह सीख दे रहे हैं कि वे विकास की गति को धीमा करें, तीर्थंकरों आदि के साथ किसी न किसी वनस्पति अथवा प्राणी को जबकि विकसित देशों को अपनी विलासिता में प्रबल कमी करके जोड़ दिया था, ताकि जन साधारण उनका विनाश नहीं करें; किन्तु कल-कारखानों और वाहनों की संख्या में भारी कमी करने तथा अपने आपको धर्म-परायण कहने वाले अधिकांश लोग इस खनन कार्यों को प्रायः बन्द करने की तत्काल आवश्यकता है। इसी महत्वपूर्ण पक्ष पर तनिक भी विचार नहीं करते। तरह यद्यपि विकासशील देशों को जनता की मूलभूत अगर हमें पृथ्वी पर अपना और अन्य जीव-जन्तुओं का / आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अभी विकास के कार्यक्रमों को अस्तित्व बनाये रखना है तो दृढ़ संकल्प के साथ मानव-समाज को आगे बढ़ाना है, तथापि भविष्य को ध्यान में रखते हुए उन अपनी जीवन-पद्धति में प्रबल परिवर्तन लाना पड़ेगा। यह बात कार्यक्रमों को इस तरह नियोजित करना पड़ेगा जिससे प्रदूषण के कहने में बड़ी सरल प्रतीत होती है। किन्तु लोगों की जड़-प्रवृत्ति, कारण पर्यावरण अपने पनरुद्धार की क्षमता नहीं खो बैठे। निहित स्वार्थों के विरोध एवं अन्य व्यावहारिक कठिनाइयों को 3. हमें अपने वनों का परिरक्षण एवं पुनर्जनन करना होगा। देखते हुए इसे मूर्त रूप देना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। भारतीय समाज को भी इस सन्दर्भ में अपनी उदात्त विश्व-दृष्टि के अनुरूप एक स्वच्छ एवं स्वस्थ पर्यावरण के लिए धरती के एक तिहाई सामूहिक चेतना उत्पन्न करनी होगी तथा एक जुट होकर पर्यावरण भू-भाग यानी 33 प्रतिशत भूमि पर वन होने चाहिए। इस मानदण्ड की रक्षा में कार्यरत होना होगा। इस दृष्टि से सारा परिदृश्य बड़ा के अनुसार स्थिति बहुत निराशाजनक है। आजकल विश्व में वन निराशाजनक है। हम लोग न तो अपनी आध्यात्मिक विरासत के 16-17 प्रतिशत और भारत में 9-10 प्रतिशत के आस-पास आ प्रति आस्थावान हैं और न वैज्ञानिक ज्ञान और सिद्धान्तों के प्रति पहुँचे हैं। वनों पर जैव-विविधता, जलवायु तथा भूमि की उर्वरता सच्चे हैं। अगर ऐसा होता तो क्या हम हमारे महान् पूर्वजों के निर्भर करती है। अतः जन-जन के बीच “वृक्ष लगाओ-वृक्ष "वसुधैव कुटुम्बकम्" सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह तथा सभी जीवों के बचाओ," "जब तक जंगल, तब तक मंगल", "पंचवटी में राम प्रति करुणाभाव के सिद्धान्तों को ताक में रखकर केवल प्रतीकों की मिलेंगे, पहले वृक्ष पाँच लगाओ" जैसे मंत्र फूंकने पड़ेंगे। प्रत्येक पूजा-अर्चना करते हुए धर्म के गौण पक्षों पर जोर देते रहते और व्यक्ति को प्रतिदिन औसतन 15 किग्रा ऑक्सीजन की आवश्यकता धर्म के विपरीत आचरण करते रहते? पर्यावरण के प्रदूषण को होती है, जो सामान्यतया पांच वृक्षों से प्राप्त होती है। पाँच वृक्ष कम करना तथा उसके परिरक्षण का माहौल तैयार करना किसी लगाने के पीछे यही मर्म है। सघन वनों के बीच ही पृथ्वी पर जीवों एक व्यक्ति या देश के बस की बात नहीं है। यह एक विश्व-स्तरीय के अस्तित्व की कुंजी बसती है।। समस्या है जिसके लिए प्रयास भी विश्व-स्तरीय ही होना आवश्यक 4. समग्र मानव-समाज को एक ऐसी नवीन जीवन-पद्धति के है। इस दिशा में कदम उठ चुके हैं और इस यज्ञ को सफल बनाने | आधार पर पुनर्गठित करने की आवश्यकता है, जिसके हेतु सबको कदम मिलाकर चलना पड़ेगा। इस दृष्टि से हमारे देश अधिकाधिक कार्य-कलाप सौर ऊर्जा से निष्पादित हो सकें ताकि में प्राथमिकता के आधार पर जो ठोस कदम उठने चाहिए, उनमें से खनिज ईंधन का उपयोग उत्तरोत्तर कम होता चला जाए। कुछ इस प्रकार हैं : ये कुछ बिन्दु हैं जो पर्यावरण परिरक्षण की दिशा निर्देशित 1. सर्व प्रथम हमें जनसंख्या पर प्रभावशाली नियंत्रण / करते हैं। पृथ्वी पर मनुष्य समेत समस्त जीव-जगत् के अस्तित्व को करना पड़ेगा। इस क्षेत्र में पश्चिमी देश हमसे बहुत आगे हैं। बनाये रखने के लिए पर्यावरण को प्रदूषण से बचाना अपरिहार्य Do अन्तरलत्कालतात. meanchontematianets3602005000-1000rpmalsawesonastseany0306:005 9000000000000 0 0000000000000000% D ASPacisters 590.298 D E
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________________ D8000 900002306 160RRoadies antos शर्त है। इसके लिए जनसाधारण में चेतना और उसकी सामूहिक भागीदारी आवश्यक है। पर्यावरण परिरक्षण का वातावरण सारी दूनियां में बनाना भी जरूरी है। इस कार्य को धर्मगुरु तथा समाज सेवा में ईमानदारी से संलग्न स्वयंसेवी संस्थायें प्रभावी ढंग से निबाह सकती हैं। इस अभियान के लिए अगर नई पीढ़ी को स्कूल-स्तर पर तैयार किया जाये तो यह दुष्कर कार्य सचमुच सुलभ हो सकता है। संसार की सुरक्षा हेतु जैन धर्म का अहिंसा-सिद्धान्त अब क्रियात्मक रूप से व्यवहार में लाना अनिवार्य है। संदर्भिका 1. समाज और पर्यावरण-अनु. जगदीश चन्द्र पाण्डेय : प्रगति प्रकाशन , मास्को। 2. “विश्व-इतिहास की झलक" (भाग-२) जवाहरलाल नेहरू : सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, नई दिल्ली। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ / 3. Ecology and the Politics of Survival - Vandana Shiva : United Nations University Press, Japan. 4. The State of India's Environment (1984-85): The Second Citizens Report : Centre For Science and Environment, N. Delhi. 5. Survey of the Environment 1992 : The HINDU 6. Lectures and articles of Shri Sunder Lal Bahuguna. पता: से.नि. एसोसिएट प्रोफेसर (जूलोजी) 108, 'जय जवान' कॉलोनी, टोंक रोड, जयपुर (राज.) जैन धर्म और पर्यावरण-सन्तुलन 12000 COMASOODYO2009 -पं. मुनिश्री नेमिचन्द्र जी महाराज (अहमदनगर) असन्तुलन का कारण : प्रकृति की व्यवस्था में हस्तक्षेप में बम-विस्फोट करता है, कभी वह लाखों मनुष्यों से आबाद शहर अनादिकाल से सारा संसार जड़ और चेतन के आधार पर / पर बम फेंकता है; कभी वह जहरीली गैस छोड़ कर अपनी ही चल रहा है। प्रकृति अपने तालबद्ध तरीके से चलती है। दिन और जाति का सफाया करने पर उतारू हो जाता है। कभी उसके द्वारा रात तथा वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त और शिशिर ये छह उपग्रह छोड़ने के भयंकर प्रयोगों के कारण अतिवृष्टि, आँधी, ऋतुएँ एक के बाद एक क्रमशः समय पर आती हैं, और चली तूफान या भूस्खलन आदि प्राकृतिक प्रकोप होते हैं। जाती हैं। गर्मी के बाद वर्षा और वर्षा के बाद सर्दी न आए तो प्रत्येक तीर्थङ्कर ने जीव-अजीव दोनों पर संयम की प्रेरणा दी संसार का सन्तुलन बिगड़ जाता है; जनता में हाहाकार मच जाता जैन धर्म के युगादि तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम है। प्रकृतिजन्य तमाम वस्तुएँ अपने नियमों के अनुसार चलती हैं, तीर्थंकर भगवान् महावीर तक सबने प्रकृति के साथ संतुलन रखने तभी संसार में सुख-शान्ति और अमन-चैन रहता है। हेतु तथा पृथ्वीकायिक आदि समस्त जीवों के साथ परस्पर उपकार परन्तु मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जो प्रकृति की इस व्यवस्था करने हेतु संयम का उपदेश दिया है। उन्होंने जैसे जीवकाय के प्रति में हस्तक्षेप करता है। प्राकृतिक नियमों को जानता-बूझता हुआ भी संयम रखने की प्रेरणा दी है, वैसे अजीवकाय (जड़ प्रकृतिजन्य अपनी अज्ञानतावश उनका उल्लंघन करता है, और अव्यवस्था पैदा / वस्तुओं या पुद्गलों) के प्रति भी संयम रखने की खास प्रेरणा करता है। वह वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर अथवा अपने असंयम दी है। से प्रकृति के इस सहज सन्तुलन को बिगाड़ने का खतरा पैदा करता परन्तु वर्तमान युग का अधिकांश मानव समूह इस तथ्य को है। इसी के फलस्वरूप कहीं अतिवृष्टि, कहीं अनावृष्टि, कहीं बाढ़ नजरअंदाज करके जीवकाय और अजीवकाय दोनों प्रकार के और कहीं भूकम्प तो कहीं तूफान और सूखा, ये सब प्राकृतिक पर्यावरण-सन्तुलन के लिए उपयोगी सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति प्रकोप पैदा होते हैं, इससे प्रकृति का जो सहज पर्यावरण है, उसका / अधिकाधिक असंयम करके, अन्धाधुंध रूप से सन्तुलन बिगाड़ने सन्तुलन बिगड़ जाता है। इन सब प्राकृतिक प्रकोपों के कारण लाखों का पराक्रम करके प्रदूषण फैला रहा है। अमेरिकी राष्ट्रीय विज्ञान आदमी काल के गाल में चले जाते हैं, लाखों बेघरबार हो जाते हैं, एकादमी (1966) के अनुसार-"वायु, पानी, मिट्टी, पेड़-पौधे और हजारों मनुष्य पराधीन और अभाव पीड़ित होकर जीते हैं, यह / जानवर सभी मिलकर सुन्दर पर्यावरण या स्वच्छ वातावरण की सारी विषमता और अव्यवस्था मनुष्य के द्वारा प्रकृति के साथ रचना करते हैं। ये सभी घटक पारस्परिक सन्तुलन बनाये रखने के छेड़छाड़ करने के परिणामस्वरूप पैदा होती है। कभी तो वह समुद्र लिये एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, जिसे 'परिस्थिति-विज्ञान CXCX Do 2009046ORG 696356.06.06.0.0.000.0.0.0. 29-06- D 0.00 A209:02: 03:00.00 Petersnehar p a60000000001ParekaalRAISROSOP600.00000 verlenoldefold 20999990629082290%A6000000000000000