________________ D8000 900002306 160RRoadies antos शर्त है। इसके लिए जनसाधारण में चेतना और उसकी सामूहिक भागीदारी आवश्यक है। पर्यावरण परिरक्षण का वातावरण सारी दूनियां में बनाना भी जरूरी है। इस कार्य को धर्मगुरु तथा समाज सेवा में ईमानदारी से संलग्न स्वयंसेवी संस्थायें प्रभावी ढंग से निबाह सकती हैं। इस अभियान के लिए अगर नई पीढ़ी को स्कूल-स्तर पर तैयार किया जाये तो यह दुष्कर कार्य सचमुच सुलभ हो सकता है। संसार की सुरक्षा हेतु जैन धर्म का अहिंसा-सिद्धान्त अब क्रियात्मक रूप से व्यवहार में लाना अनिवार्य है। संदर्भिका 1. समाज और पर्यावरण-अनु. जगदीश चन्द्र पाण्डेय : प्रगति प्रकाशन , मास्को। 2. “विश्व-इतिहास की झलक" (भाग-२) जवाहरलाल नेहरू : सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, नई दिल्ली। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ / 3. Ecology and the Politics of Survival - Vandana Shiva : United Nations University Press, Japan. 4. The State of India's Environment (1984-85): The Second Citizens Report : Centre For Science and Environment, N. Delhi. 5. Survey of the Environment 1992 : The HINDU 6. Lectures and articles of Shri Sunder Lal Bahuguna. पता: से.नि. एसोसिएट प्रोफेसर (जूलोजी) 108, 'जय जवान' कॉलोनी, टोंक रोड, जयपुर (राज.) जैन धर्म और पर्यावरण-सन्तुलन 12000 COMASOODYO2009 -पं. मुनिश्री नेमिचन्द्र जी महाराज (अहमदनगर) असन्तुलन का कारण : प्रकृति की व्यवस्था में हस्तक्षेप में बम-विस्फोट करता है, कभी वह लाखों मनुष्यों से आबाद शहर अनादिकाल से सारा संसार जड़ और चेतन के आधार पर / पर बम फेंकता है; कभी वह जहरीली गैस छोड़ कर अपनी ही चल रहा है। प्रकृति अपने तालबद्ध तरीके से चलती है। दिन और जाति का सफाया करने पर उतारू हो जाता है। कभी उसके द्वारा रात तथा वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त और शिशिर ये छह उपग्रह छोड़ने के भयंकर प्रयोगों के कारण अतिवृष्टि, आँधी, ऋतुएँ एक के बाद एक क्रमशः समय पर आती हैं, और चली तूफान या भूस्खलन आदि प्राकृतिक प्रकोप होते हैं। जाती हैं। गर्मी के बाद वर्षा और वर्षा के बाद सर्दी न आए तो प्रत्येक तीर्थङ्कर ने जीव-अजीव दोनों पर संयम की प्रेरणा दी संसार का सन्तुलन बिगड़ जाता है; जनता में हाहाकार मच जाता जैन धर्म के युगादि तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम है। प्रकृतिजन्य तमाम वस्तुएँ अपने नियमों के अनुसार चलती हैं, तीर्थंकर भगवान् महावीर तक सबने प्रकृति के साथ संतुलन रखने तभी संसार में सुख-शान्ति और अमन-चैन रहता है। हेतु तथा पृथ्वीकायिक आदि समस्त जीवों के साथ परस्पर उपकार परन्तु मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जो प्रकृति की इस व्यवस्था करने हेतु संयम का उपदेश दिया है। उन्होंने जैसे जीवकाय के प्रति में हस्तक्षेप करता है। प्राकृतिक नियमों को जानता-बूझता हुआ भी संयम रखने की प्रेरणा दी है, वैसे अजीवकाय (जड़ प्रकृतिजन्य अपनी अज्ञानतावश उनका उल्लंघन करता है, और अव्यवस्था पैदा / वस्तुओं या पुद्गलों) के प्रति भी संयम रखने की खास प्रेरणा करता है। वह वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर अथवा अपने असंयम दी है। से प्रकृति के इस सहज सन्तुलन को बिगाड़ने का खतरा पैदा करता परन्तु वर्तमान युग का अधिकांश मानव समूह इस तथ्य को है। इसी के फलस्वरूप कहीं अतिवृष्टि, कहीं अनावृष्टि, कहीं बाढ़ नजरअंदाज करके जीवकाय और अजीवकाय दोनों प्रकार के और कहीं भूकम्प तो कहीं तूफान और सूखा, ये सब प्राकृतिक पर्यावरण-सन्तुलन के लिए उपयोगी सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति प्रकोप पैदा होते हैं, इससे प्रकृति का जो सहज पर्यावरण है, उसका / अधिकाधिक असंयम करके, अन्धाधुंध रूप से सन्तुलन बिगाड़ने सन्तुलन बिगड़ जाता है। इन सब प्राकृतिक प्रकोपों के कारण लाखों का पराक्रम करके प्रदूषण फैला रहा है। अमेरिकी राष्ट्रीय विज्ञान आदमी काल के गाल में चले जाते हैं, लाखों बेघरबार हो जाते हैं, एकादमी (1966) के अनुसार-"वायु, पानी, मिट्टी, पेड़-पौधे और हजारों मनुष्य पराधीन और अभाव पीड़ित होकर जीते हैं, यह / जानवर सभी मिलकर सुन्दर पर्यावरण या स्वच्छ वातावरण की सारी विषमता और अव्यवस्था मनुष्य के द्वारा प्रकृति के साथ रचना करते हैं। ये सभी घटक पारस्परिक सन्तुलन बनाये रखने के छेड़छाड़ करने के परिणामस्वरूप पैदा होती है। कभी तो वह समुद्र लिये एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, जिसे 'परिस्थिति-विज्ञान CXCX Do 2009046ORG 696356.06.06.0.0.000.0.0.0. 29-06- D 0.00 A209:02: 03:00.00 Petersnehar p a60000000001ParekaalRAISROSOP600.00000 verlenoldefold 20999990629082290%A6000000000000000