Book Title: Paryavaran Chetna Acharanga Sutra Author(s): Surendra Bothra Publisher: Surendra Bothra View full book textPage 3
________________ -- स्वकायशस्त्र (काली मिट्टी, पीली मिट्टी के लिए), परकायशस्त्र (अग्नि मिट्टी के लिए) और तदुभय (मिट्टी मिश्रित जल अन्य मिट्टी के लिए)। अर्थात् प्रत्येक वह वस्तु शस्त्र है जो अन्य वस्तु के नैसर्गिक स्वभाव के विपरीत है, अतः घातक है। पृथ्वी, जल, वायु तथा अग्नि में अप्राकृतिक तथा विपरीत स्वभावी अन्य वस्तुओं को जबरन मिलाना हिंसा है। हिंसा के क्षेत्र और साधनों की इस व्यापक चर्चा के साथ हिंसा में प्रवृत्त होने के कारणों का उल्लेख है। वे कारण हैं -- वर्तमान जीवन में प्रशंसा, सम्मान और पूजा प्राप्त करने की अभिलाषा; जन्म, मरण और मोचन संबंधी कार्यों को संपन्न करने की आवश्यकता तथा अपने दुखों के प्रतिकार की इच्छा। इसके बाद आरंभ होती है ऐसी हिंसक अथवा पर्यावरण विरोधी क्रियाओं से निस्तार पाने के लिए बताई संयममय जीवन की विस्तृत चर्चा । इस चर्चा में निर्देशित जीवन शैली पूर्णतया पर्यावरण से जुड़ी है। इस जीवन शैली की विशेषता है मनुष्य के भौतिक और आत्मिक विकास की ऐसी राह जो पर्यावरण के संतुलन को अक्षुण्ण रख सके। अहिंसक जीवनशैली का आधार है पाँच व्रत (साधु के लिए महाव्रत और श्रावक के लिए अणुव्रत) - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । ये पातंजलि योगसूत्र में यम कहे जाते हैं और अन्य अनेक धर्म-दर्शनों में विभिन्न रूप में विद्यमान हैं। यों तो अहिंसा में शेष चारों व्रत समाविष्ट हो जाते हैं और व्रतों के रूप में प्रस्तुत इस अहिंसक जीवन शैली का प्रत्येक पहलू पर्यावरण संरक्षण को प्रेरित करता है, पर यहाँ उन व्रतों-नियमों का उल्लेख समीचीन होगा जो सीधे पर्यावरण संरक्षण से जुड़ते हैं। अदत्तादान या अचौर्य -- जिस किसी भी वस्तु पर अपना भौतिक या नैतिक अधिकार नहीं बनता उसे लेने का निषेध । यह व्रत सीधा प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन से उत्पन्न समस्याओं के समाधान की भूमिका प्रस्तुत करता है। अपरिग्रह -- परिग्रह का सामान्य अर्थ है वस्तुओं के प्रति मोह और उनके संकलन की प्रवृत्ति। यह मोह संकलन हेतु हिंसा करवाता है, उसमें बाधा आने पर हिंसा करवाता है और उससे वंचित किए जाने पर हिंसा करवाता है। यही नहीं अनियंत्रित उपभोग को भी यही मोह प्रेरित करता है; और यों यह सीधा पर्यावरण से जुड़ जाता है। मूलतः, हमारा उपभोग अस्तित्व संरक्षण से जुड़ा है। वह संपन्न हो जाने पर सुविधा और महत्त्वाकांक्षा कारण बन जाते हैं। सामयिक आवश्यकताओं के लिए कोई वस्तु प्राप्त करना जीवन-जगत् की सामान्य प्रक्रिया है। कल के लिए कुछ बचाकर रखने के पीछे भी स्व-संरक्षण का भाव ही नैसर्गिक रूप में काम करता है। किंतु काल्पनिक और अविवेकपूर्ण रूप से आवश्यकताओं का आकलन कर भंडारण करना आवश्यकता नहीं लोभ है। आवश्यकता और उपभोग को महत्त्वाकांक्षा के आधार पर बढ़ाना ही परिग्रह है। आधुनिक युग में पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य कारण खोजा जाए तो स्पष्ट होता है कि उपभोक्तावाद ही वह कारण है; यह दुधारी तलवार है जो एक ओर तो योजनाबद्ध तरीके से प्राकृतिक स्रोतों को दोहन कर उन्हें क्षीण कर जीवानोपयोगी पर्यावरण को नष्ट करता है और दूसरी ओर अनावश्यक उपभोग से पैदा हुए उच्छिष्ट के अनियंत्रित निस्तारण से पर्यावरण को प्रदूषित करता है। यही नहीं, यह असंतोष, गरीबी और सामाजिक विषमता फैलाता है जिसका अंत वैचारिक प्रदूषण और हिंसा में होता है। उपभोक्तावाद की समस्या के हल के रूप में अपरिग्रह व्रत का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।Page Navigation
1 2 3 4