Book Title: Paryavaran Chetna Acharanga Sutra Author(s): Surendra Bothra Publisher: Surendra Bothra View full book textPage 2
________________ जगत के स्थूल या सूक्ष्म, किसी भी अंग के प्रति हिंसा पर यथाशक्ति संयम रखने की भावना पर आधारित है अहिंसक आचरण । महावीर ने मानव इतिहास में सर्वप्रथम दृष्ट जगत से परे सूक्ष्म जीवन की अवधारणा को सशक्त व तक्रसंगत रूप से प्रस्तुत किया है। महावीर का षड्जीव निकाय का यह सिद्धांत आचारांग के इसी प्रथम अध्ययन में उपलब्ध है। उन्होंने पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि तत्त्वों पर आधारित और पोषित सूक्ष्म जीवों के चैतन्य और उनके प्राणों की वेदना को मानवीय अनुभूति के आधार पर मार्मिक शब्दों में परिभाषित और स्थापित किया है। मैं कहता हूँ -- पृथ्वीकायिक जीव जन्मना इंद्रियविकलअंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाले होते हैं । शस्त्र से भेदन - छेदन करने पर जैसे जन्मना इंद्रियविकल अंधे मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों को होती है (1/2 / 280 ) | मनुष्य को । मूर्च्छित करने या उसका प्राण विनियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव को होती है। (1/2/30) इस प्रकार सर्वप्रथम पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति होने वाली हिंसा का वर्णन करके हिंसा के क्षेत्र के विस्तार में आचारांग में पर्यावरण के समस्त घटकों को समेट लिया गया है। इसी क्रम में जलकाय वायुकाय और अग्निकाय के जीवों की बात की है। जीवों के इस सूक्ष्म जगत् में होने वाली क्रियाएं हमें प्रभावित करती हैं तथा हमसे प्रभावित होती हैं। ऐसी स्थिति में हमारी वह प्रत्येक क्रिया जो उस सूक्ष्म जगत् को हानि पहुंचाती है हिंसा है और त्याज्य है। पृथ्वी, वायु, जल तथा अग्नि के बाद वनस्पति की रक्षा का उल्लेख है। वन संरक्षण की ओर जागरूकता और संवेदनशीलता के लिए मानव शरीर से वनस्पति की तुलना पुष्ट प्रमाण के रूप में प्रस्तुत की है - मनुष्य शरीर और वनस्पति दोनों जन्मते हैं, बढ़ते हैं, चैतन्ययुक्त हैं, छिन्न होने पर म्लान होते हैं, आहार करते हैं, अनित्य हैं, अशाश्वत हैं, उपचित और अपचित होते हैं, और विविध अवस्थाओं को प्राप्त होते हैं। इसके बाद मनुष्य सहित दृष्ट जगत् के सभी गतिमान जीवों की रक्षा का उल्लेख है जिन्हें आचारांग में त्रसकाय कहा है। -- हिंसा की पारंपरिक परिभाषा से कहीं विस्तृत और व्यापक है आचारांग में हिंसा की यह अवधारणा । प्रत्येक प्राणी को सुख इष्ट है, यह देखकर और जानकर तुम हिंसा से विरत होओ ( 1/6/121) | यह अहिंसा - धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है। आत्मज्ञ अर्हतों ने लोक को जानकर इसका प्रतिपादन किया (4/1/2)। I जिन सभी तत्त्वों पर प्राणिमात्र का जीवन आधारित है, उन्हें भी जीव की संज्ञा देने की बात में प्रकृति के प्रति मनुष्य के एक बहुत बड़े उत्तरदायित्व की बात निहित है । हिंसा केवल दृष्ट जीवन को नष्ट करने में नहीं है। आचारांग में परिभाषित हिंसा में दृष्ट जीवन की सुदूर भविष्य में विकसित होने की संभावना मात्र को नष्ट करना भी सम्मिलित है। पर्यावरण-संरक्षण के प्रति सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक दोनों पक्षों की विस्तृत चर्चा की है आचारांग में । हिंसा के माध्यम के रूप में आचारांग में शस्त्र का उल्लेख है। शस्त्र द्वारा घात कर हानि पहुंचाना हिंसा है। शस्त्र दो प्रकार का होता है. द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र । सभी मारक पदार्थ द्रव्यशस्त्र हैं और असंयम भावशस्त्र है। द्रव्यशस्त्र के तीन प्रकार हैंPage Navigation
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