Book Title: Paryavaran Chetna Acharanga Sutra Author(s): Surendra Bothra Publisher: Surendra Bothra View full book textPage 1
________________ पर्यावरण-चेतना आचारांग सूत्र - सुरेंद्र बाथरा किसी एक जीवन अथवा जीव समूह अथवा परिवेश को समेटे रखने वाली सभी भौतिक वस्तुओं और परिस्थिति का वह जाल जो अंततः उसके रूप तथा अस्तित्व को निर्धारित करता है, पर्यावरण कहलाता है। इस पर्यावरण को हानि न पहुंचे इस बात के प्रति जागरूकता अहिंसक जीवनशैली में अंतर्निहित है। अहिंसक आचार संहिता में व्यक्ति और समाज को प्राकृतिक पर्यावरण को हानि पहुंचाने का निषेध मात्र ही नहीं, समानता और मैत्री की भावना के माध्यम से बिगडे पर्यावरण-संतुलन को पुनर्स्थापित करने का उपाय भी निहित है। दुनिया के जिस भी धर्म और जीवनशैली ने अहिंसा को जहाँ जितना स्थान दिया है, वह उतना ही पर्यावरण के सरंक्षण के निकट गया है, यह ऐसा प्रत्यक्ष यथार्थ है जिसे साक्ष्य की आवश्यकता नहीं। संसार के सभी धर्म-दर्शनों में दो ऐसे हैं जिनमें अहिंसा की सर्वाधिक चर्चा हुई है, बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि उनका आधार ही अहिंसा है, वे हैं जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन । इनमें भी अहिंसा पर आधारित जीवनशैली विकसित करने और उसे स्थापित करने का व्यापक और तक्रसंगत कार्य जैन धर्म ने किया है। महावीर के प्रथम और आधारभूत उपदेश के रूप में मान्य शास्त्र है आचारांग सूत्र। हम उसी में उपलब्ध, पर्यावरण का नाम लिए बिना ही उसके प्रति जागरूकता, और उससे प्रेरित पर्यावरण संरक्षण के बिंदुओं को देखें तो अहिंसा और पर्यावरण का घनिष्ठ संबंध स्पष्ट हो जाएगा। आचारांग का आरंभ जीवन की गति की दिशा के प्रति जागरूकता से होता है। इस गति की प्रचलित परिभाषा जुड़ी है पुनर्जन्म से। पर उसे सामान्य जीवन की भौतिक तथा व्यावहारिक गति के संदर्भ में देखें तो पाते हैं कि किसी भी पदार्थ अथवा जीवन की गति की दिशा पर्यावरण की सुरक्षा और विनाश के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। पर्यावरण में असंख्य जीवों, पदार्थों और शक्तियों का एक जटिल और जीवंत संतुलन सदैव विद्यमान रहता है। इनमें से किसी एक प्रणाली के असंख्य घटकों में से एक की स्वाभाविक या नैसर्गिक दिशा में परिवर्तन हो तो उस सारे संतुलन पर प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य, जो अपने विचारों को कार्यरूप देने की अनोखी क्षमता रखता है, यदि अपनी तथा अपने आसपास की वस्तुओं की सहज-स्वाभाविक गति की दिशा से अनभिज्ञ हो तो उसका आचरण स्वयं उसके लिए ही नहीं, प्रकृति में रहे संतुलन के लिए भी घातक हो सकता है। गति व दिशा के ज्ञान या उसके अभाव से जीवन और क्रियाएं प्रभावित होती हैं। यह स्थापित करने के बाद आचारांग में न करने योग्य क्रियाओं की बात की है। क्योंकि उन क्रियाओं का परिणाम व्यथा है, वेदना है, पीड़ा है, दुख है और हनन है, अतः उन क्रियाओं को हिंसा की संज्ञा देकर त्याज्य बताया है। सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए अपरिनिर्वाण (अशांति) अप्रिय, महाभयंकर और दुःखरूप है, ऐसा मैं कहता हूँ (1/6/122)। सब आत्माएं समान हैं यह जानकर पुरुष समूचे जीव-लोक की हिंसा से उपरत हो जाए (3/1/3)। यह हिंसा समस्त जीव जगत को प्रभावित करती है और जैन अवधारणा में यह जीव-जगत अत्यंत व्यापक है। इस जीवPage Navigation
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