Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ अनुसार ही नवीन सरल हिंदीभाषामें अविकल अनुवाद किया है। इतना फेरफार अवश्य हुआ है कि उस भाषाको अन्वय तथा भावार्थरूपमें बांट दिया है । अन्य कुछभी न्यूनाधिकता नहीं की है। कहीं लेखकोंकी भूलसे कुछ छुटगया है उसको भी मैंने संस्कृतटीकाके अनुसार संभाल दिया है। ___ इस ग्रंथका जो उद्धार स्वर्गीय तत्त्वज्ञानी श्रीमान् रायचंद्रजी द्वारा स्थापित श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडलकी तरफसे हुआ है इसलिये उक्त मंडलके उत्साही प्रबंधकर्ताओंको कोटिशः धन्यवाद देता हूं कि जिन्होंने अत्यंत उत्साहित होकर ग्रंथ प्रकाशित कराके भव्य जीवोंको महान् उपकार पहुंचाया है। और श्रीजीसे प्रार्थना करता हूँ कि वीतरागप्रणीत उच्च श्रेणीके तत्त्वज्ञानका इच्छित प्रसार करनेमें उक्तमंडल कृतकार्य होवे । द्वितीय धन्यवाद श्रीमान् ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीको दिया जाता है कि जिन्होंने इस ग्रंथकी संस्कृतटीकाकी प्राचीन प्रति लाकर प्रकाशित करनेकी अत्यंत प्रेरणा की। उन्हींके उत्साह दिलानेसे यह ग्रंथ प्रकाशित हुआ है। ___ अब मेरी अंतमें यह प्रार्थना है कि जो प्रमादवश दृष्टिदोषसे तथा बुद्धिकी न्यूनतासे कहीं अशुद्धियाँ रह गई हों तो पाठकगण मेरे ऊपर क्षमा करके शुद्ध करते हुए पढ़ें क्योंकि इस आध्यात्मिक ग्रंथमें अशुद्धियोंका रहजाना संभव है। इस तरह धन्यवादपूर्वक प्रार्थना करता हुआ इस प्रस्तावनाको समाप्त करता हूँ। अलं विज्ञेषु । खत्तरगली हौदावाड़ी पो० गिरगांव-बंबई वैशाख वदि ३ वी० सं० २४४२ जैनसमाजका सेवक मनोहरलाल पाढम (मैनपुरी) निवासी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 550