Book Title: Parmanu aur Loka Author(s): G R Jain Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 5
________________ है)। यहां पर हमें याद आता है कि नवीं शताब्दी में नालन्दा ( बिहार ) विश्वविद्यालय के एक विद्यार्थी नागार्जुन ने यह घोषणा की थी कि मैं पारे का सोना बनाकर दुनियां की दरिद्रता को दूर कर दूंगा । उसकी भविष्यवाणी तो पूरी हो गई, किन्तु दरिद्रता का विनाश अभी बहुत दूर है । विगत 10 वर्षों से परमाणु की एक और तस्वीर विज्ञान जगत में उभर रही है, जिसे परमाणु का क्वार्क मॉडल कहा जा रहा है। इस क्वार्क की अमेरिका और अन्य देशों में हर तरफ बड़ी खोज हो रही है वायु मण्डल की ऊँचाइयों में और समुद्र की गहराइयों में; किन्तु लाखों आदमियों के अथक प्रयास के बावजूद अभी तक यह मिला नहीं है । किन्हीं सैद्धान्तिक कारणों से वैज्ञानिक इस बात से सहमत नहीं हैं कि प्रोटोन, न्यूट्रोन, इलेक्ट्रोन अस्तु के मूलभूत तत्व हैं। उनके विचार में यह तीनों किसी ऐसे पदार्थ के संयोग से बने हैं जिसे उनने वार्क का नाम दिया है । आगे-पीछे जब इस क्वार्क की खोज हो जायेगी तो यही क्वार्क जैनों का पुद्गल होगा । कितनी विलक्षण बात है कि वैज्ञानिकों ने क्वार्क को षट्कोणी माना है और जैनों ने अपने पुद्गल परमाणु को 'गोमट्टसार' में षट्कोणी कहा है। हमें अपने पूर्व आचार्यों के इस ज्ञान पर गर्व है। उन्होंने अज से हजारों वर्ष पूर्व यह बात बतलाई थी कि ताप, प्रकाश और विद्युत जो शक्ति के रूप हैं, पुद्गल का स्थूल सूक्ष्म रूप है । यही बात आगे चलकर सन् 1905 में संसार के महान वैज्ञानिक आइन्सटाइन ने बताई। उन्होंने इतना बतलाया कि 3000 टन पत्थर के कोयले को जलाने से जितनी उष्मा उत्पन्न होती है, यदि उसे एकत्रित करके तौलना सम्भव हो तो उसका तौल 1 ग्राम होगा । परमाणु की कहानी यहां समाप्त होती है । जैन मान्यता के अनुसार यह लोक छः द्रव्वों का समुदाय है, अर्थात् यह ब्रह्माण्ड छः पदार्थों से बना है - - जीव, अजीव (मैटर एण्ड एनर्जी), धर्म (मीडियम Jain Education International ऑफ मोशन) वह माध्यम जिसमें होकर प्रकाश की लहरें एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचती हैं, अधर्म ( मीडियम ऑफ रेस्ट) यानी फील्ड ऑफ फोर्स, आकाश और काल (टाइम) | जैन ग्रंथों में जहां-जहां धर्म द्रव्य का उल्लेख आया है वहां धर्म शब्द का एक विशेष पारिभाषिक अर्थ में प्रयोग किया गया है। यहां धर्म का अर्थ न तो कर्त्तव्य है और न उसका अभिप्राय सत्य, अहिंसा आदि सत्कार्यों से है । 'धर्म' शब्द का अर्थ है एक अदृश्य, अरूपी (नोन मटीरियल) माध्यम जिसमें होकर जीवादि भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थ एवं ऊर्जा गति करते हैं । यदि हमारे और तारों के बोच में यह माध्यम नहीं होता तो वहाँ से आनेवाला प्रकाश, जो लहरों के रूप में धर्म द्रव्य के माध्यम से हम तक पहुँचता है, वह नहीं आ सकता था और ये सब तारे अदृश्य हो जाते । यह माध्यम विश्व के कोने-कोने में और परमाणु के भीतर भरा पड़ा है । यह द्रव्य नहीं होता तो ब्रह्माण्ड में कहीं भी गति नजर नहीं आती । यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि किसी भी वस्तु के स्थायित्व के लिये उसकी शक्ति अविचल रहनी चाहिये । यदि उसकी शक्ति शनैः शनैः नष्ट होती जाय या बिखरती जाय तो कालान्तर में उस वस्तु का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। इस ब्रह्माण्ड को कुछ लोग तो ऐसा मानते हैं कि इसका निर्माण आज से कुछ अरब वर्ष पहले किसी निश्चित तिथि पर हुआ। दूसरी मान्यता यह है कि यह ब्रह्माण्ड अनादि काल से ऐसा ही चला आ रहा है और ऐसा ही चलता रहेगा। आइन्सटाइन का विश्व सम्बन्धी बेलन (सिलिण्डर ) सिद्धान्त में इसी प्रकार की मान्यता है । इस सिद्धान्त के अनुसार यह ब्रह्माण्ड तीन दिशाओं ( लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई) में सिलिंडर की तरह सीमित है किन्तु सीमा की दिशा में अनन्त है । दूसरे शब्दों में हमारा ब्रह्माण्ड अनन्त काल से एक सीमित पिण्ड की भांति विद्यमान है । २७७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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