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"अणुरणोयान महतोमहीयान्"
यदि आप जल-स्कंध को तोड़ने का प्रयत्न करेंगे
तो जल, जल नहीं रहेगा । जल-स्कंध हाइड्रोजन और (इस धरा पर जो सूक्ष्म-से-सूक्ष्म वस्तु हमें दृष्टि
ऑक्सीजन के परमाणुओं से मिलकर बना है, यह गोचर होती है उससे भी और अधिक सूक्ष्म वस्तुओं का
परमाणु पृथक् हो जावेंगे। अस्तित्व है और जो बड़े-से-बड़ा भूखण्ड दृष्टिगोचर होता है उससे भी और अधिक बड़े भूखण्ड मौजूद हैं ।) तत्वार्थ अधिगम सूत्र के अध्याय 5 का 11वां सूत्र
' प्रो0 जी0 आर0 जैन है "नाणोः" जिसका अर्थ है कि अणु से छोटी और कोई वस्तु नहीं है और आगे चलकर सूत्र 27 में कहा अब हम हाइड्रोजन के परमाणु का विशेष वर्णन गया है "भेदादणः" जिसका अर्थ है कि जड़ वस्तुओं के करते हैं। परमाणु, चाहे वह किसी भी पदार्थ का हो, अनन्तवें भाग को अगु कहते हैं । उसका और विखण्डन पत्थर की गेंद की तरह ठोस नहीं है, वह अन्दर से नहीं हो सकता । जिसे हम साइन्स की भाषा में एटम खोखला है। परमाणु के केन्द्र में एक बीज है जिसे कहते हैं वह जैन दर्शन का अरणु नहीं है, परन्तु हम नाभि (न्युक्लीयस) कहते हैं और उसके चारों ओर आपको पहले आधुनिक एटम का ही वृत्तान्त सुनाते हैं- पर्याप्त दूरी पर ऋण-विद्युत (इलेक्ट्रोन) के कण ठीक
परमाणु और लोक ( ATOM AND THE UNIVERCE )
__ यदि हम जल की एक बूंद लें और उसके खण्ड उसी प्रकार चक्कर काटते रहते हैं जिस प्रकार सूर्य के करते चले जायें तो सबसे अन्तिम छोटे से छोटा खण्ड चारों ओर नियत परिधियों में ग्रह चक्कर लगाते हैं जिसमें जल के सभी गुण विद्यमान हों उस छोटे जल- अथवा जिस प्रकार भगवान कृष्ण की रासलीला में कण को जल स्कंध कहते हैं । तीस ग्राम जल में इन गोपियाँ कृष्ण के चारों ओर चक्कर लगाया करती थीं। स्कंधों की संख्या इतनी अधिक है कि यदि संसार के यह परमारण संसार के प्रत्येक पदार्थ में असीम संख्या में समस्त प्राणी-स्त्री पुरुष, बाल और वृद्ध-उन स्कंधों को व्याप्त हैं; उदाहरणस्वरूप समुद्र के जल की एक बूंद गिनना प्रारम्भ करदें और रात-दिन गिनते ही रहें और में स्वर्ण के 50 अरब परमाणु पाये जाते हैं। यह बात बहुत जल्दी-जल्दी 1 से किड में 5 की गति से गिनते रहें सुनकर तुम तुरन्त बाल्टी लेकर बम्बई की ओर न दौड़ तो स्कंधों की पूरी संख्या को गिनने में 40 लाख वर्ष पड़ना, क्योंकि परमारणु बहुत ही सूक्ष्म वस्तु है। समुद्र लगेंगे । इससे स्कंधों की सूक्ष्मता का भी आभास मिलता के 60 टन जल में से यदि सोने के सभी परमाणु
एकत्रित करने में आप सफल भी हो गये तो, तब भी
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उन परमाणुओं का तौल चौथाई रत्ती भी न बैठेगा। यदि आप उसका इतना बड़ा टुकड़ा तोड़ लें जो आपकी परमाणु की सूक्ष्मता का अनुमान इस बात से भी लगाया जाकट की जेब में समा जाय तो उसका वजन 1 टन से जा सकता है कि हाइड्रोजन के 20 करोड़ परमाणु यदि भी अधिक होगा। एक पंक्ति में रख दिये जायें तो पंक्ति की लम्बाई केवल
जो धनुष भगवान राम ने तोड़ा था, बाल्मीकि 1 इंच होगी और 40 हजार शंख परमाणुओं का तौल
रामायण के अनुसार वह दधीचि ऋषि की वज्रमयी केवल 1 खसखस के दाने के बराबर होगा। इतना छोटा
हड्डियों का बना हुआ था और केवल 10 फीट लम्बा होने पर भी यह अन्दर से पोला है। जितने स्थान में
था । सम्भवत: इसी कारण वह इतना भारी था कि परमाणु की नाभि स्थित है उससे 1 लाख गुना दूरी
रावण जैसे महायोद्वा भी उसे हिला न सके । पर इलेक्ट्रोन चक्कर लगा रहे हैं । यूं समझिये कि जैसे एक 30 फीट व्यास के गोले के केन्द्र में एक आलपिन परमाणु की नाभि के चारों ओर चक्कर काटने की नोक रखी हो। ठीक उसी प्रकार परमाणु के मध्य वाले इलेक्ट्रोन 1 इंच लम्बाई में 50 खरब समा जाते में उसकी नाभि स्थित है । नाभि ऐसे पदार्थ से बनी है हैं और 8 करोड़ शंख इलेक्ट्रोनों की तौल केवल पोस्त जिसके 1 घन सेंटीमीटर की तौल 24 करोड़ टन है के दाने के बराबर होती है । यह इलेक्ट्रोन 1300 मील जबकि 1 घन सेंटीमीटर सोने की तौल केवल डेढ़ तोला प्रति सेकेंड की गति से घूमते रहते हैं, जबकि बन्दूक ही होती है। परमाराओं के अन्दर की पोल को देखकर की गोली 1 सेकिड में आधा मील ही जाती है। ही एक वैज्ञानिक ने कहा था कि “मनुष्य का शरीर जिन परमाणुओं से बना है उन परमारणुओं की अन्दर
परमाणुओं की नाभि में न केवल प्रोटोन ही पाये की पोल को यदि समाप्त कर दिया जाय और सब
जाते हैं अपितु वहां न्यूट्रोन नाम का एक और कण भी इलेक्ट्रोन-प्रोटोन एक स्थान पर एकत्रित कर लिये जायें
होता है। न्यूट्रोन नाम के कण, उदासीन कण होने के तो मनुष्य का शरीर केवल इतना-सा रह जायेगा कि
कारण, परमाणुओं के वक्ष को भेदने में बड़े कुशल होते नंगी आंख से तो नहीं किन्तु शायद सूक्ष्मदर्शी लैस से।
हैं। इनके सम्बन्ध में बिहारी की यह उक्ति ठीक बैठती दिखाई दे जाय।" सोचिये तो सही, इस खोखलेपन पर
है कि 'देखन में छोटे लगें, करें घाव गम्भीर ।' कई-कई
फीट मोटे शीशे की चादरों के पार निकल जाने की भी यह भोला मनुष्य अपने रूप और शक्ति के अहंकार
इनमें क्षमता है, जिन्हें एक्स किरण भी नहीं पार कर में चूर है।
पातीं। इन्हीं न्यूट्रोन कणों की सहायता से एटम बम का जब परमाराओं के बीच की पोल निकल जाती है विस्फोट होता है। जिस वायु से हम सांस लेते हैं उसमें और केवल नाभियाँ ही एक स्थान पर एकत्रित हो भी न्यूट्रोन विद्यमान हैं। वायु के 1 अरब परमाणुओं जाती हैं तो उस भारी पदार्थ की उत्पत्ति होती है जो में केवल 5 न्यूट्रोन कण हैं। यदि मनुष्य के शरीर में लुब्धक (सीरियस) तारे के प्रकाशहीन साथी तारे में यूरेनियम (वह धातु जिसका एटम बम बनता है) होता पाया जाता है और जो प्लैटिनम ने 2000 गुना अधिक भारी है, इसे 'न्युक्लियर मैटर' कहते हैं और भारतीय का उसी प्रकार विस्फोट कर देते, जैसे एटम बम में भाषा में 'वज' कह सकते हैं। इस प्रकाशहीन तारे का होता है। परमपिता परमात्मा की लीला देखिये कि व्यास सूर्य के व्यास का 30 वां भाग है किन्तु इसकी उसने मनुष्य का शरीर बनाने में उस मिट्टी का प्रयोग तौल सूर्य की तौल का तीन-चौथाई है। हिसाब लगाने किया है जिसमें लोहा, तांबा आदि धातुएं तो थीं, किन्तु से पता चलता है कि जिस पदार्थ का यह बना हआ है यूरेनियम नहीं था।
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भिन्न-भिन्न तत्वों के परमाणु 92 प्रकार के हैं । ये सब प्रोटोन, न्यूट्रोन और इलेक्ट्रोन की भिन्न-भिन्न संख्याओं से मिलकर बने हैं । अर्थात् इनमें कोई मौलिक अन्तर नहीं है। दीवाली के त्यौहार पर बिकनेवाले खांड के खिलौनों के समान कोई बन्दर दिखता है और कोई रानी; किन्तु वे हैं सब एक ही खांड के बने हुये । रानी के खिलौने को गलाकर बन्दर बनाया जा सकता है।
हाइड्रोजन परमाणु के केन्द्र में 1 प्रोटोन है और उसके चारों ओर एक ही इलेक्ट्रोन घूमता है । हीलियम गैस के परमाणु के केन्द्र में 2 प्रोटोन और 2 न्यूट्रोन हैं और 2 इलेक्ट्रोन बाहर की परिधि मे घूमते हैं । लीथि यम के केन्द्र में 3 प्रोटोन और 4 न्यूट्रोन हैं और 3 इलेक्ट्रोन बाहर की परिधि में घूमते हैं । इसी प्रकार यह संख्या बढ़ती चली गई है । तांबे के परमाणु में 29, चांदी में 47, सोने में 79, पारें में 80 और सबसे भारी परमाणु रेनियम में 92 प्रोटोन होते हैं ।
प्रोटोन और न्यूट्रोन की तौल लगभग बराबर है । हल्के हाइड्रोजन के परमाणु केन्द्र में केवल 1 प्रोटोन है, उस परमार की तोल 1 है। भारी हाइड्रोजन के परमाणु की तौल 2 है, उसके केन्द्र में 1 प्रोटोन और 1 न्यूट्रोन हैं। हीलियम के परमाणु की तौल 4 है इसलिये उसमें 2 प्रोटोन और 2 न्यूट्रोन हैं। तांबे के परमास्तु की तौल 65 है अतएव उसमें 29 प्रोटोन और 36 न्यूट्रोन हैं । पारे के परमाणु की तौल 200 है और उसमें 80 प्रोटोन और 120 न्यूट्रोन हैं । और यूरेनियम के परमाणु की तौल 238 है और उसके परमाणु केन्द्र में 92 प्रोटोन और 146 न्यूट्रोन हैं ।
1 मन भारी पानी पृथक् किया जाता है । निरा भारी पानी विष है । उसके पीने से मनुष्य मर जाता है । किन्तु जिस प्रकार मनुष्य कुचला, संखिया आदि विष अत्यन्त अल्प मात्रा में ताकत के लिये व्यवहार करते हैं। उसी प्रकार प्रकृति ने भारी जल जैसे विष को अल्प मात्रा में साधारण जल में मिला दिया है उन अभागे व्यक्तियों के लिये जो जीवन पर्यन्त निर्धनता अपने भाग्य में लिखाकर लाये हैं । यही कारण है असाधारण परिस्थितियों में मनुष्य इस भारी जल की चन्द बूंदों के सहारे कई-कई दिन भूखे काट देते हैं । विधि का विधान विलक्षण है ।
जिस भारी हाइड्रोजन का अभी उल्लेख किया है। उससे 'भारी जल' का निर्माण हुआ है जिस प्रकार हल्के हाइड्रोजन से नित्यप्रति व्यवहार में आनेवाले जल का निर्माण हुआ है । यह भारी पानी प्रकृति ने हल्के पानी में ही मिला रखा है - 6 सेर पानी में केवल 20 बूंद | लगभग 13000 टन पानी में से विद्युत द्वारा
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सोना, चाँदी, लोहा आदि जो भिन्न-भिन्न पदार्थ इस धरा पर दृष्टिगोचर हो रहे हैं, इन सबका निर्माण एक ही प्रकार की ईट चूने से हुआ है। उनका नाम है-प्रोटोन, न्यूट्रोन और इलेक्ट्रोन ।
पुद्गल - संसार की रचना में दो द्रव्यों का प्रमुख भाग है - पहला जीव (चेतन ) या आत्मा और दूसरे को प्रकृति (जड़) या अचेतन कहा जाता है । जैनाचार्यों ने प्रकृति (जड़) को पुद्गल के नाम से पुकारा है और पुद्गल शब्द की व्याख्या उसके नाम के अनुरूप ही उन्होंने की है पूरयन्ति गलयन्ति इति पुद्गलाः' अर्थात् पुद्गल उसे कहते हैं जिसमें पूरण और गलन क्रियाओं के द्वारा नई पर्यायों का प्रादुर्भाव होता है । विज्ञान की भाषा में इसे फ्यूजन और फिशन या इन्टीग्रेशन और डिसइन्टीग्रेशन कहते हैं। एटम बम को फिशन बम और हाइड्रोजन बम को फ्यूजन बम इसी कारण कहा गया है । एटम बम में एटम के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं और तब शक्ति उत्पन्न होती है और हाइड्रोजन बम में एटम परस्पर मिलते हैं तब उसमें शक्ति का प्रादुर्भाव होता है ।
'तत्वार्थ सूत्र' के पंचम अध्याय सूत्र नं० 33 में कहा गया है - 'ग्निग्धरुक्षत्वाद्द्वंघः' अर्थात् स्निग्ध और
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रुक्षत्व गुणों के कारण एटम एक सूत्र में बँधा रहता है। जिसे हम गलन क्रिया कहते हैं यूरेनियम और पूज्यपाद स्वामी ने 'सर्वार्थसिद्धि' टीका में एक स्थान पर रेडियम नाम के पदार्थों में स्वतः ही स्वाभाविक रूप से लिखा है 'स्निग्धरुक्षगुणनिमित्तो विद्युत्' अर्थात् बादलों होती रहती है और नये पदार्थों का जन्म होता है । में स्निग्ध और रुक्ष गुणों के कारण विद्युत की उत्पत्ति यूरेनियम की एक डली में अल्फा, बीटा, गामा किरणे होती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि स्निग्ध का अर्थ अबाध गति से निरन्तर निकलती रहती हैं और लगभग चिकना और रुक्ष का अर्थ खुरदरा नहीं है। ये दोनों 2 अरब वर्षों में यूरेनियम की आधी डली रेडियम में शब्द वास्तव में विशेष टेक्निकल अर्थों में प्रयोग किये परिवर्तित हो जाती है। यही गलन की प्रतिक्रिया गये हैं। जिस तरह एक अनपढ़ मोटर ड्रायवर बैटरी के रेडियम में भी रात-दिन हुआ करती है । रेडियम की . एक तार को ठंडा और दूसरे तार को गरम कहता है एक डली का आधा भाग लगभग 6 हजार वर्षों में सीसे (यद्यपि उनमें से कोई तार न ठंडा होता है और न (लैंड) में परिवर्तित हो जाता है। गरम) और जिन्हें विज्ञान की भाषा में पोजिटिव व निगेटिव कहते हैं, ठीक उसी तरह जैन धर्म में स्निग्ध वैज्ञानिकों ने इसी प्रक्रिया को कृत्रिम रूप से प्रयोग
और रुक्ष शब्दों का प्रयोग किया गया है। डा० बी. शालाओं में उत्पन्न किया है। इस क्रिया में अतिशीघ्रएन. सील ने अपनी कैम्ब्रिज से प्रकाशित पुस्तक 'पोजि- गामी न्यूट्रोन कणों को गोली के रूप में प्रयोग किया टिव साइन्सिज ऑफ एनशियन्ट हिन्द्रज' में स्पष्ट लिखा जाता है । इन गोलियों से जब किसी परमाणु पर प्रहार है कि जैनाचार्यों को यह बात मालूम थी कि भिन्न-भिन्न किया जाता है तब उस परमाणु का हृदय विदीर्ण हो वस्तुओं को आपस में रगड़ने से णेजिटिव और नेगेटिव जाता है। परमाणु का रूपान्तर हो जाता है। इस बिजली उत्पन्न की जा सकती है। इन सब बातों के प्रकार से वैज्ञानिकों ने नाइड्रोजन को ऑक्सीजन में, समक्ष, इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि स्निग्ध का सोडियम को मैग्नेशियम में, मैग्नेशियम को एल्यूमीनियम अर्थ पोजिटिव और रुक्ष का अर्थ निगेटिव विद्युत् है।
में, एल्यूमीनियम को सिलीकन में, सिलीकन को फास-, एटम की रचना का जो वैज्ञानिक स्वरूप हमने ऊपर
फोरस में, बैरीलियम को कार्बन में बदल कर दिखा दिया खींचा है उससे स्पष्ट है कि संसार के सभी परमाणु,
है । इससे पुद्गल शब्द की व्याख्या पूर्ण रूप से सत्य
सिद्ध होती है। सबसे आश्चर्यजनक घटना पारे को सोने चाहे वह किसी भी पदार्थ के हों, प्रोटोन (स्निग्ध कण)
में परिवर्तित करने की है । पारे का अणु भार 200 है और न्यूट्रोन (उदासीन कण) भिन्न-भिन्न संख्याओं में
और प्रोटोन का भार 1 है। जब पारे के परमाणु पर इनके मिलने से बने हैं । इस बात से 'स्निग्धरुक्षात्वाद्
प्रोटोन का आधात होता है तो पूरण क्रिया के द्वारा बंधः' सूत्र की प्रामाणिकता सम्पूर्ण रूप से सिद्ध हो 201 भार का परमाणु बना जाता है । अब इस परमाणु जाती है । जब स्निग्ध अथवा रुक्ष कणों की संख्या पर न्यूटोन की गोली द्वारा प्रहार किया जाता है तो बढ़ानी पड़ती है तो उसे 'पूरण' क्रिया कहते हैं और उसमें से गलित होकर एक अल्फा कण बाहर निकल जब घटानी पड़ती है तब उसे 'गलन' क्रिया कहते हैं। आता है। अल्फा कण का भार 4 है । 201 में से 4 अतः इसमें कोई सन्देह नहीं कि आजकल के वैज्ञानिक कम हये तो 197 भार का परमाणु रह जाता है । सोने विश्लेषण के ठीक अनुकूल जैनाचार्यों ने इस विलक्षण का अणु भार 197 है । दूसरे शब्दों में पूरण और गलन 'पुद्गल' शब्द का प्रयोग अपने ग्रन्थों में बहुत वर्षों पहले की प्रतिक्रियाओं के द्वारा पारे का परमाणु सोना बन किया था।
गया । (सोना बनाने की यह विधि बहुत महंगी पड़ती
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है)। यहां पर हमें याद आता है कि नवीं शताब्दी में नालन्दा ( बिहार ) विश्वविद्यालय के एक विद्यार्थी नागार्जुन ने यह घोषणा की थी कि मैं पारे का सोना बनाकर दुनियां की दरिद्रता को दूर कर दूंगा । उसकी भविष्यवाणी तो पूरी हो गई, किन्तु दरिद्रता का विनाश अभी बहुत दूर है ।
विगत 10 वर्षों से परमाणु की एक और तस्वीर विज्ञान जगत में उभर रही है, जिसे परमाणु का क्वार्क मॉडल कहा जा रहा है। इस क्वार्क की अमेरिका और अन्य देशों में हर तरफ बड़ी खोज हो रही है वायु मण्डल की ऊँचाइयों में और समुद्र की गहराइयों में; किन्तु लाखों आदमियों के अथक प्रयास के बावजूद अभी तक यह मिला नहीं है । किन्हीं सैद्धान्तिक कारणों से वैज्ञानिक इस बात से सहमत नहीं हैं कि प्रोटोन, न्यूट्रोन, इलेक्ट्रोन अस्तु के मूलभूत तत्व हैं। उनके विचार में यह तीनों किसी ऐसे पदार्थ के संयोग से बने हैं जिसे उनने वार्क का नाम दिया है । आगे-पीछे जब इस क्वार्क की खोज हो जायेगी तो यही क्वार्क जैनों का पुद्गल होगा । कितनी विलक्षण बात है कि वैज्ञानिकों ने क्वार्क को षट्कोणी माना है और जैनों ने अपने पुद्गल परमाणु को 'गोमट्टसार' में षट्कोणी कहा है। हमें अपने पूर्व आचार्यों के इस ज्ञान पर गर्व है। उन्होंने अज से हजारों वर्ष पूर्व यह बात बतलाई थी कि ताप, प्रकाश और विद्युत जो शक्ति के रूप हैं, पुद्गल का स्थूल सूक्ष्म रूप है । यही बात आगे चलकर सन् 1905 में संसार के महान वैज्ञानिक आइन्सटाइन ने बताई। उन्होंने इतना बतलाया कि 3000 टन पत्थर के कोयले को जलाने से जितनी उष्मा उत्पन्न होती है, यदि उसे एकत्रित करके तौलना सम्भव हो तो उसका तौल 1 ग्राम होगा । परमाणु की कहानी यहां समाप्त होती है ।
जैन मान्यता के अनुसार यह लोक छः द्रव्वों का समुदाय है, अर्थात् यह ब्रह्माण्ड छः पदार्थों से बना है - - जीव, अजीव (मैटर एण्ड एनर्जी), धर्म (मीडियम
ऑफ मोशन) वह माध्यम जिसमें होकर प्रकाश की लहरें एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचती हैं, अधर्म ( मीडियम ऑफ रेस्ट) यानी फील्ड ऑफ फोर्स, आकाश और काल (टाइम) | जैन ग्रंथों में जहां-जहां धर्म द्रव्य का उल्लेख आया है वहां धर्म शब्द का एक विशेष पारिभाषिक अर्थ में प्रयोग किया गया है। यहां धर्म का अर्थ न तो कर्त्तव्य है और न उसका अभिप्राय सत्य, अहिंसा आदि सत्कार्यों से है । 'धर्म' शब्द का अर्थ है एक अदृश्य, अरूपी (नोन मटीरियल) माध्यम जिसमें होकर जीवादि भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थ एवं ऊर्जा गति करते हैं । यदि हमारे और तारों के बोच में यह माध्यम नहीं होता तो वहाँ से आनेवाला प्रकाश, जो लहरों के रूप में धर्म द्रव्य के माध्यम से हम तक पहुँचता है, वह नहीं आ सकता था और ये सब तारे अदृश्य हो जाते ।
यह माध्यम विश्व के कोने-कोने में और परमाणु के भीतर भरा पड़ा है । यह द्रव्य नहीं होता तो ब्रह्माण्ड में कहीं भी गति नजर नहीं आती । यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि किसी भी वस्तु के स्थायित्व के लिये उसकी शक्ति अविचल रहनी चाहिये । यदि उसकी शक्ति शनैः शनैः नष्ट होती जाय या बिखरती जाय तो कालान्तर में उस वस्तु का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। इस ब्रह्माण्ड को कुछ लोग तो ऐसा मानते हैं कि इसका निर्माण आज से कुछ अरब वर्ष पहले किसी निश्चित तिथि पर हुआ। दूसरी मान्यता यह है कि यह ब्रह्माण्ड अनादि काल से ऐसा ही चला आ रहा है और ऐसा ही चलता रहेगा। आइन्सटाइन का विश्व सम्बन्धी बेलन (सिलिण्डर ) सिद्धान्त में इसी प्रकार की मान्यता है । इस सिद्धान्त के अनुसार यह ब्रह्माण्ड तीन दिशाओं ( लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई) में सिलिंडर की तरह सीमित है किन्तु सीमा की दिशा में अनन्त है । दूसरे शब्दों में हमारा ब्रह्माण्ड अनन्त काल से एक सीमित पिण्ड की भांति विद्यमान है ।
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वैसे तो अगर हम यह सोचने लगें कि ये आसमान कितना ऊंचा होगा, तो उसकी सीमा की कोई कल्पना नहीं की जा सकती। हमारा मन कभी यह मानने को तैयार नहीं होगा कि कोई ऐसा स्थान भी है जिसके आगे आकाश नहीं है। जैन शास्त्रों में भी विश्व को अनादि अनन्त बताया है और उसके दो विभाग कर दिये हैंएक का नाम 'लोक' रखा है, जिसमें सूर्य, चन्द्रमा तारे आदि सभी पदार्थ गमित है और इसका आयतन 343 घनरज्जु है । आइन्सटाइन ने भी लोक का आयतन घन मीलों में दिया है। एक मील लम्बा, एक मील चौड़ा और एक मील ऊंचे आकाश खण्ड को एक घनमील कहते हैं। इसी प्रकार एक रज्जु लम्बी, एक रज्जु चौड़ी और एक रज्जु ऊंचे आकाश खण्ड को एक घनरज्जु कहते हैं आइन्सटाइन ने ब्रह्माण्ड का आयतन 1037X 10 घनमील बताया है अर्थात् 1037 लिवकर उसके आगे 63 बिन्दु लगाने से जो संख्या बनेगी (कुल अंकों की संख्या 67 ) उतने घनमील विश्व का आयतन है। इसको 343 के साथ समीकरण करने पर एक रज्जु 15 हजार पंख मील के बराबर होता है ।
ब्रह्माण्ड के दूसरे भाग को 'अलोक' कहा गया है । लोक से परे सीमा के बन्धनों से रहित यह अलोकाकाश लोक को चारों ओर से घेरे हुये है । यहां आकाश के सिवाय जीव, पुद्गल, धर्म, अधमं और काल किसी द्रव्य का अस्तित्व नहीं है।
लोक और अलोक के बीच की सीमा का निर्धारण करनेवाला धर्म द्रव्य अर्थात् 'ईयर' है। चूंकि लोक की सीमा से परे ईयर का अभाव है इस कारण लोक में विद्यमान कोई भी जीव या पदार्थ अपने सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप में अर्थात् एनर्जी के रूप में भी लोक की सोमा से बाहर नहीं जा सकता। इसका अनिवार्य परिणाम यह होता है कि विश्व के समस्त पदार्थ और उसकी सम्पूर्ण शक्ति लोक के बाहर नहीं बिखर सकती
और लोक अनादि काल तक स्थायी बना रहता है। यदि विश्व की शक्ति शनैः शनैः अनन्त आकाश में फैल जाती तो एक दिन इस लोक का अस्तित्व ही मिट जाता । इसी स्थायित्व को कायम रखने के लिये आइन्सटाइन ने कर्वेचर ऑफ स्पेस की कल्पना की । इस मान्यता के अनुसार आकाश के जिस भाग में जितना अधिक पुद्गल द्रव्य (मैटर) बिद्यमान रहता है उस स्थान पर आकाश उतना ही अधिक गोल हो जाता है। इस कारण ब्रह्माण्ड की सीमायें गोलाईदार हैं । शक्ति जब ब्रह्माण्ड की गोल सीमाओं से टकराती है तब उसका परावर्तन हो जाता है और वह ब्रह्माण्ड से बाहर नहीं निकल पाती। इस प्रकार ब्रह्माण्ड की शक्ति अक्षुण्ण बनी रहती है और इस तरह वह अनन्त काल तक चलती रहती है ।
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पुद्गल की विद्यमानता से आकाश का गोल हो जाना एक ऐसे लोहे की गोली है जिसे निगलना आसान नहीं आइन्सटाइन ने इस ब्रह्माण्ड को अनन्त काल तक स्थायी रूप देने के लिये ऐसी अनूठी कल्पना की । दूसरी ओर जैनाचार्यों ने इस मसले को यूं कहकर हल कर दिया कि जिस माध्यम में होकर वस्तुओं, जीवों और शक्ति का गमन होता है, लोक से परे वह हैं ही नहीं यह बड़ी युक्तिसंगत और बुद्धिगम्य बात है । जिस प्रकार जल के अभाव में कोई मछली तालाब की सीमा से बाहर नहीं जा सकती, उसी प्रकार लोक से अलोक में शक्ति का गमन ईथर के अभाव के कारण नहीं हो सकता जैन शास्त्रों का धर्म द्रव्य मंटर या ईथर के अभाव के कारण नहीं हो सकता। जैन शास्त्रों का धर्मध्य मैटर या एनर्जी नहीं है, किन्तु साइन्सवाले ईयर को एक सूक्ष्म पौद्गलिक माध्यम मानते आ रहे हैं और अनेकानेक प्रयोगों द्वारा उसके पौगलिक अस्तित्व को सिद्ध करने की चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु वे आज तक इस दिशा में सफल नहीं हो पाये हैं । हमारी दृष्टि से इसका एकमात्र कारण यह है कि ईथर अरूपी पदार्थ है। कहीं तो वैज्ञानिकों ने ईथर को हवा
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से भी पतला माना है और कहीं स्टील से भी अधिक की आयु मजबूत । ऐसे परस्पर विरोधी गुण वैज्ञानिकों का ईथर में पाये जाते हैं और चूंकि प्रयोगों के द्वारा वे उसके अस्तित्व को सिद्ध नहीं कर सके हैं इसलिये आवश्यकतानुसार वे कभी उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं। और कभी इन्कार वास्तविकता यही है जो जैनागम में बतलाई गई है कि ईथर एक अरूपी द्रव्य है जो ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण में समाया हुआ है और जिसमें से होकर जीव और पुद्गल का गमन होता है । यह ईथर द्रव्य प्रेरणात्मक नहीं है, यानी किसी जीव या पुद्गल को चलने की प्रेरणा नहीं करता वरन् स्वयं चलनेवाले जीव या पुद्गल की गति में सहायक हो जाता है, जैसे ऐंजिन के चलने में रेल की पटरी (लाइनें ) सहायक हैं । इस द्रव्य के बिना किसी द्रव्य की गति सम्भव नहीं है।
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अब हम पाठकों को विश्व की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ बातें बताते हैं हिन्दुओं के संकल्प मन्त्र के अनुसार इस पृथ्वी का जन्म आज से 1 अरब 97 करोड़ 29 लाख 49 हजार 76 वर्ष पूर्व हुआ संकल्प मंत्र इस प्रकार है— ओम् तत्सत् ब्रह्मणे द्विताये परार्द्ध, श्री श्वेत वाराह कल्पे वैवस्वत् मन्वन्तरे अष्टाविशतितमे युगे, कलियुगे, कलि प्रथम चरणे इत्यादि ।'
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(संकल्प मन्त्र में से सृष्टि सम्वत् की यह संख्या किस प्रकार निकलती है, लेख का कलेवर बढ़ जाने के भय से हम यहाँ बतलाना उचित नहीं समझते । )
4 अरब 60 करोड़ वर्ष निश्चित होती है । सृष्टि की आयु से अभिप्राय यह है कि आज जिस रूप में हम सृष्टि को देख रहे हैं वह रूप लगभग साढ़े चार अरब वर्ष पुराना है।
कुछ समय पूर्व साइन्स की भी यही धारणा थी कि पृथ्वी का जन्म लगभग 2 अरब वर्ष पूर्व हुआ, किन्तु अब यह मान्यता बदल गई है। एक मान्यता ऐसी है कि पृथ्वी के प्रशान्त महासागर से चन्द्रमा का जन्म हुआ । अमृत मंथन की कथा में इसी बात का संकेत मिलता है। जब चन्द्रमा पृथ्वी से पृथक् हुआ तो उसकी गति भिन्न थी और यह गति अब घट गई है और जिस रेट से यह घट रही हैं उसका हिसाब लगाने से सृष्टि
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सृष्टि की उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? विज्ञान के क्षेत्र में इस सम्बन्ध में मुख्य दो सिद्धान्त हैं – ( 1 ) महान आकस्मिक विस्फोट का सिद्धान्त, और (2) सतत् उत्पत्ति का सिद्धान्त ।
महान आकस्मिक विस्फोट का सिद्धान्त जिसे सन् 1922 में रूसी वैज्ञानिक डा० फेडमैन ने जन्म दिया,
हिन्दुओं की कल्पना से मेल खाता है । जिसके अनुसार ब्रह्माण्ड का जन्म हिरण्य गर्भ ( सोने का अण्डा) से हुआ। सोना धातुओं में सब से भारी है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जिस पदार्थ से विश्व की रचना हुई है वह बहुत भारी था। उसका घनत्व सब से अधिक था। बढ़ते-बढ़ते यही अण्डा विश्वरूप हो
गया ।
अमेरिका के प्रोफेसर चन्द्रशेखर ने गणित के आधार पर बतलाया है कि विश्व रचना के प्रारम्भ में पदार्थ का घनत्व लगभग 160 टन प्रति घन इंच था। जबकि 1 घन इंच सोने का तोल केवल 5 छटांक होता है । दूसरे शब्दों में वह पदार्थ अत्यन्त भारी था ।
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आजकल के वैज्ञानिक इस प्रश्न पर दो समुदायों में बँटे हुये हैं एक वह जिनका मत है कि यह ब्रह्माण्ड अनादिकाल से अपरिवर्तित रूप में चला आ रहा है और दूसरा वह जो यह विश्वास करते हैं कि आज से अनुमानतः 10 या 20 अरब वर्ष पूर्व एक महान आकस्मिक विस्फोट के द्वारा इस विश्व का जन्म हुआ । हाइड्रोजन गैस का एक बहुत बड़ा घधकता हुआ बबूला अकस्मात फट गया और उसका सारा पदार्थ चारों दिशाओं में दूर-दूर तक छिटक पड़ा और आज भी वह पदार्थ हम से दूर जाता हुआ दिखाई दे रहा है ।
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________________ ब्रह्माण्ड की सीमा पर जो क्वैसर नाम के तारक पिंडों इस समय इनमें से कोई सा भी सिद्धान्त सम्पूर्ण रूप से की खोज हुई है जो सूर्य से भी 10 करोड़ गुना अधिक वस्तु स्थिति का वर्णन नहीं करता।" चमकीले हैं, हम से इतनी तेजी से दूर भागे जा रहे हैं कि इनसे आकस्मिक विस्फोट के सिद्धान्त की पुष्टि इस सम्बन्ध में हम संसार के महान वैज्ञानिक होती है भागने की गति 70.000 से 150.000 मील प्रो० आइन्सटाइन का सिद्धान्त ऊपर वर्णन कर चुके हैं, प्रति सेकिंड)। किन्तु भागने की यह क्रिया एक दिन जिसके अनुसार यह संसार अनादि अनन्त सिद्ध समाप्त हो जायेगी और यह सारा पदार्थ पूनः पीछे होता है। की ओर गिरकर एक स्थान पर एकत्रित हो जायेगा विश्व की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लेख का निष्कर्ष और विस्फोट की पुनरावृत्ति होगी। इस सम्पूर्ण क्रिया यह निकलता है कि महान आकस्मिक विस्फोट सिद्धान्त में 80 अरब वर्ष लगेंगे क्षौर इस प्रकार के विस्फोट के अ के अनुसार इस ब्रह्माण्ड का प्रारम्भ एक ऐसे विस्फोट अनन्त काल तक होते रहेंगे / जैनाआर्यों ने इसे परिणमन के रूप में हुआ, जैसा आतिशबाजी के अनार में होता की क्रिया कहा है / इसमें षटगुणी हानि वृद्धि हाती है। अनार का विस्फोट तो केवल एक ही दिशा में रहती है। होता है। यह विस्फोट सब दिशाओं में हआ और जिस प्रकार विस्फोट के पदार्थ पुनः उसी बिन्दु की ओर गिर - दूसरा प्रमुख सिद्धान्त सतत् उत्पत्ति का सिद्धान्त है जिस अपारवतनशील अवस्था का सिद्धान्त भी कहा पड़ते हैं. इस विस्फोट में भी ऐसा ही होगा / सारा ब्रह्माण्ड पुन: अण्डे के रूप में संकुचित हो जायेगा / पुन: जाता है / इसके अनुसार यह ब्रह्माण्ड एक घास के विस्फोट होगा और इस प्रकार की पुनरावृत्ति होती खेत के समान है जहाँ पुराने घास क तिनके मरते रहते रहेगी। इस सिद्धान्त के अनुसार भी ब्रह्माण्ड की हैं और उसके स्थान पर नये तिनके जन्म लेते रहते है। उत्पत्ति शून्य में से नहीं हुई। पदार्थ का रूप चाहे जो परिणाम यह होता है कि घास के खेत की आकृति सदा रहा हो, इसका अस्तित्व अनादि अनन्त है। एक-सी बनी रहती है। यह सिद्धान्त जैन धर्म के 'ह सिद्धान्त से अधिक मेल खाता है / जिसके अनुसार इस दूसरा सिद्धान्त सतत उत्पत्ति का है। इसकी तो जगत का न तो कोई निमाण करनेवाला है और न यह मान्यता है ही कि ब्रह्माण्ड रूपी चमन अनादि काल .. किती काल विशेष में इसका जन्म हुआ। यह अनादि से ऐसा ही चला आ रहा है और चलता रहेगा। इस का। से एसा ही चला आ रहा है और अनन्त काल सिद्धान्त को आइन्सटाइन का आशीर्वाद भी प्राप्त है / तक ऐसा ही चलता रहगा / हमारी मान्यता गीता को अतएव जगत उत्पत्ति के सम्बन्ध में जैनाचार्यों का उस मान्यता के अनुकूल है, जिसमें कहा गया है - सिद्धान्त सोलहों आने पूरा उतरता है। "न कर्तृत्व न कर्माणि, न लोकस्य सृजति प्रभु / " इस लेख की समाप्ति हम यह कहकर कर रहे हैं एम० आई० टी० (अमरीका) के डा० फिलिप कि 343 घन रज्जु इस लोक में इलेक्ट्रोन, प्रोटीन ओर नोरीसन इस सम्बन्ध म कहते हैं-"ज्योतिषियों ने न्यूट्रोन आदि मूलभूत कणों की संख्या 107 से लेकर जो अब तक परीक्षण किये हैं उनके आधार पर यह 10deg तक है, अर्थात् 1 का अंक लिखकर 73 या 75 निर्णय नहीं किया जा सकता कि खगोल उत्पत्ति के बिन्दु लगाने से यह संख्या बनेगी। भिन्न-भिन्न सिद्धान्तों में से कौनसा सिद्धान्त सही है। अणुरणोयान महतोमहीयान 280