Book Title: Panna Samikkhae Dhammam
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf

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Page 2
________________ 2 मानव, धरती पर के प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। उससे बढ़कर अन्य कौन श्रेष्ठतर प्राणी है? स्पष्ट है, कोई नहीं है। चिन्तन-मनन करके यथोचित निर्णय पर पहुँचने के लिए उसके पास जैसा मन-मस्तिष्क है, वैसा धरती पर के किसी अन्य प्राणी के पास नहीं है। मानव अपनी विकास-यात्रा में कितनी दूर तक और ऊँचाइयों तक पहुँच गया है, यह आज सबके सामने प्रत्यक्ष है। कोई स्वप्न या कहानी नहीं है। आज मानव ऊपर चन्द्रलोक पर विचरण कर रहा है और नीचे महासागरों के तल को छू रहा है। एक-एक परमाणु की खोज जारी है। यह सब किसी शास्त्र या गुरु के आधार पर नहीं हुआ है। इसका मूल मनुष्य के मन की चिन्तन - यात्रा में ही है। अतः धर्म-तत्त्व की खोज भी इधर-उधर से हटाकर मानव-मस्तिष्क के अपने मुक्त चिन्तन पर ही आ खड़ी होती है । यह मैं नई बात नहीं कर रहा हूँ। आज से अढाई हजार वर्ष से भी कहीं अधिक पहले श्रावस्ती की महती सभा में दो महान् ज्ञानी मुनियों का एक महत्त्वपूर्ण संवाद है। मुनि हैं - केशी और गौतम । मैं देखता हूँ कि उक्त संवाद में कहीं पर भी अपने-अपने शास्ता एवं शास्त्रों को निर्णय के हेतु बीच में नहीं लाया गया है । सब निर्णय प्रज्ञा के आधार पर हुआ है। वहाँ स्पष्ट है, जो गौतम के द्वारा उपदिष्ट है कि प्रज्ञा के द्वारा ही ध र्म की समीक्षा होनी चाहिए। सूत्र है - " पण्णा समिक्खए धम्मं "" अर्थात् प्रज्ञा ही धर्म की समीक्षा करने में समर्थ है। और धर्म है भी क्या ? तत्त्व का अर्थात् सत्यार्थ का विशिष्ट निश्चय ही धर्म है। और यह विनिश्चय अन्ततः मानव की प्रज्ञा पर ही आधारित है। शास्त्र और गुरु संभवत: कुछ सीमा तक योग दे सकते हैं। किन्तु, सत्य की आखिरी मंजिल पर पहुँचने के लिए तो अपनी प्रज्ञा ही साथ देती है। 'प्र' अर्थात् प्रकृष्ट, उत्तम, निर्मल और 'ज्ञा' अर्थात् ज्ञान। जब मानव की चेतना पक्ष-मुक्त होकर इधर-उधर की प्रतिबद्धताओं से अलग होकर सत्याभिलाषी चिन्तन करती है, तो उसे अवश्य ही, धर्म तत्त्व की सही दृष्टि प्राप्त होती है। यह ऋतम्भरा प्रज्ञा है । ऋत् अर्थात् सत्य को वहन करने वाली शुद्ध ज्ञान चेतना । योग दर्शनकार पतंजलि ने इसी संदर्भ में एक सूत्र उपस्थित किया है—'ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा', 1, 48. उक्त सूत्र की व्याख्या भोजवृत्ति में इस प्रकार है 44 “ऋतं सत्यं विभर्तिं कदाचिदपि न विपर्ययेणाच्छाद्यते सा ऋतंभरा प्रज्ञा तस्मिन्सति भवतीत्यर्थः । " प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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