Book Title: Panna Samikkhae Dhammam
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf

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Page 7
________________ " न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । " अज्ञान तमस् को नष्ट करने के लिए ज्ञान की अग्नि ही सक्षम है। श्रीकृष्ण और भी बल देकर कहते हैं- " हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठ समूह को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञान रूप अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है “यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्व-कर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा । । " - गीता, 4, 37 उपनिषद् साहित्य में सर्व प्रथम मौलिक स्थान ईशोपनिषद् का है। यह उपनिषद् यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय है । उसका एक सूत्र वचन है - 'विद्ययाऽमृतमश्नुते' अर्थात् विद्या से ही अमृत-तत्त्व की उपलब्धि होती है। तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर ने भी ज्ञान - ज्योति पर ही अत्यधिक बल दिया है। मुनि शब्द की व्याख्या करते हुए उन्होंने अन्य किसी बाह्य क्रिया-काण्ड विशेष की चर्चा न करके मुनित्व के लिए सम्यग् - ज्ञान की ही हेतुता को स्वीकृत किया है नाणेण य मुणी होई । - उत्तराध्ययन, 25, 32. श्रमण आवश्यक सूत्र में एक पाठ है, जो हर भिक्षु को सुबह सायं प्रतिक्रमण के समय उपयोग में लाना होता है। वह पाठ है “मिच्छतं परियाणामि सम्मत्तं - उवसंपज्जामि । अबोहिं परियाणामि बोहिं उवसंपज्जामि । अन्नाणं परियाणामि, नाणं उवसंपज्जामि । " पाठ लम्बा है। उसमें का कुछ अंश ही यहाँ उद्धृत किया गया है। इसका भावार्थ है–“मैं मिथ्यात्व का परित्याग करता हूँ और सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ और सम्यक्-ज्ञान को स्वीकार करता हूँ। 11 कितने उदात्त वचन हैं ये । काश, यदि हम इन वचनों पर चलें, तो फिर धर्म के नाम पर चल रहे पाखण्डों के भ्रम का अंधेरा मानव मस्तिष्क को कैसे भ्रान्त कर सकता है? अपेक्षा है, आज प्रज्ञावाद के पुनः प्रतिष्ठा की ! जन-चेतना में प्रज्ञा की ज्योति प्रज्वलित होते ही जाति, पंथ तथा राष्ट्र के नाम पर आए दिन पणा समिक्ख धम्मं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org 7

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