Book Title: Pandulipiya
Author(s): Hindi Sahitya Sammelan
Publisher: Hindi Sahitya Sammelan

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Page 7
________________ ही हमारा यह ग्रन्थ-विभाग आज अनुसंधानकर्ता विद्वानों का आकर्षण केन्द्र बना हुआ है। रणवीर कक्ष की सम्पूर्ण पोथियों की संख्या संप्रति ५३०० से ऊपर है। जिनमें ३१४० के लगभग संस्कृत की, १५७१ के लगभग हिन्दी की और ५९० के लगभग अन्य भाषाओं की पोथियाँ हैं। प्रस्तुत सूची-ग्रन्थ में संस्कृत, हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं की सभी पोथियाँ और निकट में उपलब्ध कुछ पोथियों का समावेश नहीं हो सका है। सूची-ग्रन्थ के परिशिष्ट में हमने बाद में उपलब्ध संस्कृत एवं हिन्दी की पोथियों की विवरणिका भी जोड़ दी है। पोथियों का क्रम - ग्रन्थ-संग्रह के आधार पर विषय-विभाजन होना स्वाभाविक है। उपलब्ध सामग्री के आधार पर प्रत्येक विषय को हमने उसके उपांगों में अलग बाँटने का यथासाध्य यत्न किया है। उदाहरण के लिए एक ही काव्यशास्त्र विषय की पोथियों को सामान्य, रस, अलंकार, पिंगल और नायिकाभेद आदि उप-विषयों में अलग कर दिया गया है। इसी प्रकार एक ही काव्य विषय की पोथियों को काव्य, महाकाव्य, नाटक, संतकाव्य, रामकाव्य, कृष्णकाव्य आदि उपांगों में पृथक् कर दिया है। विषयों का अनुक्रम यद्यपि डिवी के अनुकरण पर है, फिर भी इस सूची में डिवी की दशमलव प्रणाली का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं समझी गई। अनुसंधानकर्ता विद्वानों की सुविधा-असुविधा को ही ध्यान में रखा गया है। प्रत्येक विषय की पोथियों को अकारादि क्रम से रखा गया है। एक शीर्षक की अनेक पोथियों को उनके निर्माताओं के नामाक्षरों पर आगे-पीछे रखा गया है। इसी प्रकार एक ही पुस्तक की अनेक प्रतियों में पहिले उस प्रति को रखा गया है, जिसका लिपिकाल सब से पुराना है; वह भले ही पूर्ण अपूर्ण किसी भी स्थिति में हो। उसके बाद उन पोथियों को रखा गया है, जिन पर लिपिकाल तो नहीं है, किन्तु जो पूर्ण हैं। प्रत्येक पोथी के साथ दो संख्याएँ दी गई हैं। ये संख्याएँ उसके निर्धारित स्थान का संकेत करती हैं। छोटी संख्या वेष्टन-संख्या और बड़ी संख्या ग्रन्थ-संख्या है। दोनों संख्याओं का आरम्भ एक साथ हुआ है; किन्तु वेष्टन संख्या से ग्रन्थसंख्या का बढ़ जाने का कारण यह है कि एक ही जिल्द में समेटी हुई अनेक पोथियों की संख्या बढ़ गयी, जबकि जिल्द की संख्या केवल एक ही रह गयी। पोथियों की नामावली शुद्ध रूप में लिखी गयी है। उदाहरणार्थ हस्तलिखित प्रतियों में जहाँ-तहाँ लिपिकारों ने 'भागवत भासा' आदि लिखकर मनमाने ढंग का प्रयोग किया है, वहाँ-वहाँ उनको सुधार कर उसकी जगह 'भागवत-भाषा' कर दिया गया है। ___ ग्रन्थकारों के कोष्टक में उन्हीं का नाम दिया गया है, जिनका मूल पोथी में उल्लेख हुआ है। कहीं-कहीं ग्रन्थकार का नामोल्लेख न होने पर भी अन्यत्र उल्लिखित प्रामाणिक खोजों के आधार पर या प्रतियों के मिलान करने पर अथवा ग्रन्थ की प्रसिद्धि के आधार पर, यथा 'रामचरित मानस' के कर्ता केवल गोस्वामी तुलसीदास ही हो सकते हैं तथा 'रघुवंश' को महाकवि कालिदास ने ही निर्मित किया है; ग्रंथकारों का नाम स्वयं भी लिख दिया गया है। ग्रन्थकारों की नामावली में मूल नाम पहले और उपाधि या ख्यात बाद में जोड़ी गयी है। यथा : रघुराज सिंह, महाराज। लिपिकाल को जहाँ-जहाँ कोष्टक में बन्द कर के लिखा गया है. वहाँ-वहाँ यह सचित किया गया है कि जिस जिल्द की एक लिपि द्वारा लिखी गई पोथियों में वह सम्मिलित है, उस जिल्द का वह लिपिकाल है। प्रायः होता यह है कि एक ही लिपिकर्ता द्वारा लिखी गयी अनेक पोथियों की एक जिल्द में किसी भी पोथी पर कभी-कभी लिपिकाल मिल जाता है। इससे यह निश्चित हो जाता है कि उस जिल्द की दूसरी पोथियाँ भी। उसी समय लिखी गयीं। क्योंकि ऐसी एक जिल्द की प्रत्येक पुस्तक की पुष्पिका में लिपिकाल नहीं लिखा रहता है; इसलिए ऐसी पुस्तकों का लिपिकाल कोष्टक में कर दिया गया है। पोथियों के कागद को दृष्टि में रख कर उनके मोटे दो भाग किए गए हैं : पुराना और नया। विक्रमी संवत् १८०० से पहले की सभी पोथियों को पुरानी और उसके बाद की पोथियों को नई माना गया है। यह आधार वैज्ञानिक न होकर सुविधा की दष्टि से किया गया है। विशेष विवरण के कालम में जहाँ आवश्यकता प्रतीत हुई, पोथी के संबंध में विशेष सूचना दे दी गई है।

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