Book Title: Panchastikay me Pudgal Author(s): Hukumchand P Sangave Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 2
________________ पंचास्तिकाय में पुद्गल ३५६ पहली विकृति ‘महत्' है । वह अहंकार, मनसमेत सारी सृष्टि का कारण है।६ २५ तत्वों में से पुरुष (आत्मा) न प्रकृति है, और न विकृति । प्रकृति केवल 'प्रकृति' है। महत्, अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ आदि सात तत्व प्रकृति और विकृति रूप हैं। अन्य १६ तत्वों को सांख्य ने विकृतरूप माना है।" शंकर के मत् में जगत् असत्य और ब्रह्म सत्य है। अतः तत्वों के संदर्भ में कार्य-कारणवाद, असत्कार्यवाद, सत्कार्यवाद, आरम्भवाद, विवर्तवाद, नित्यपरिणमनवाद, क्षणिकवाद, स्याद्वाद का विवेचन विभिन्न दार्शनिक विचारधारा में हुआ है। अजीव-द्रव्य : जैनदर्शन में षद्रव्य, सात तत्व और नौ पदार्थ माने गये हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये षट् द्रव्य हैं और जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये | सात तत्व हैं। इन सात तत्वों में पुण्य और पाप का समावेश करने से नौ पदार्थ बन जाते हैं। वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्य माने गये हैं, इन्हीं नौ का अन्तर्भाव जैनदर्शन के षद्रव्यों में किया जा सकता है। पृथ्वी, अप, तेज, वायु इन चार द्रव्यों का समावेश पुद्गल द्रव्य में हो जाता है। जैनदर्शन के अनुसार मन के दो भेद किये गये हैं --एक द्रव्यमन और दूसरा भावमन, द्रव्यमन का अन्त र्भाव पुद्गल में और भावमन को आत्मा में समाविष्ट किया जा सकता है। षट् द्रव्य, सात तत्व और नौ पदार्थ पर दृष्टि स्थिर करने से मुख्य दो तत्व सामने आते हैं। वे ये हैं-'जीव और अजीव' इन्हें जगत् के Fundamental Substance कहा जा सकता है। इन्हीं के वियोग और संयोग से अन्य सब तत्वों की रचना होती है। जीव का प्रतिपक्षी अजीव है। जीव चेतन, उपयोग, ज्ञान, दर्शन युक्त है तो अजीव अचेतन है। जीव १०ज्ञानवान होते हुए भी भोक्ता है, कर्ता है, सुख-दुःख का आस्वाद लेने वाला है, अजीव का लक्षण इसी से बिलकुल विपरीत है।'१ जीव के भी भेदप्रभेद बहुत होते हैं परन्तु यहाँ अजीव द्रव्य के कथन की अपेक्षा के कारण जीव द्रव्य का वर्णन गौण है । अजीव के पांच प्रकार हैं-(१) पुद्गल (Matter of energy), (२) धर्म (Medium of motion for soul and matter) (३) अधर्म (Medium of rest), (४) आकाश (Space) और (५) काल (Time)। इन्हीं पांचों को रूपी१२ और अरूपी के अन्तर्गत समाविष्ट किया जाता है। 'पुद्गल' रूपी है और धर्म, अधर्म, आकाश काल अरूपी हैं। 'रूपी' और 'अरूपी' के लिए आगम में क्रमशः 'मूर्त' और 'अमूर्त' शब्द का प्रयोग हुआ है। पुद्गल द्रव्य 'मूर्त' है और शेष अमूर्त १३ हैं। पुद्गल द्रव्य में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये चार गुण पाये जाते हैं। इसी का वर्णन हम आगे विस्तार से करेंगे। मूर्तिक गुणवाला पुद्गल इन्द्रियग्राह्य है और अमुर्तिक गुण वाले अजीव द्रव्य इन्द्रियग्राह्य नहीं हैं ।१४ ६ वही, पृ० १८२ ७ वही, पृ० १६४ ८ वही, पृ० २२० ६ स्थानांग २०१-५७, १० पंचास्तिकाय २११२२, ११ वही २।१२४-२५ १२ उत्तराध्ययन सूत्र ३६।४ और समवायांग सूत्र १४६ १३ वही ३६।६ और भगवती सूत्र १८७; ७/१० १४ प्रवचनसार २।३८, ३६, ४१, ४२ awra.ALIBan damana.ukALAnavrecashKARIRAMASOO . आपाप्रववअभियाआटीन्दा अन्य श्रीआनन्द आचाव जनआचार्य WAVIMIMiyo vivaaorawaranawar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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