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आप आमदेव श्रीआनन्द अन्थ
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डा० हुकुमचन्द पार्श्वनाथ संगवे, एम. ए., पी-एच. डी. [ संप्रति - प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली ]
पंचास्तिकाय में पुद्गल
अनादि काल से विश्व को पहचानने की कोशिश हो रही है । अनेक दर्शनों का जन्म हुआ । मनुष्य के मस्तिष्क में जगत् स्रष्टा की कल्पना प्रस्फुटित हुई और जिज्ञासा भी हुई, 'यह जगत् किन तत्वों से निर्मित है । इन्हीं तत्वों का प्रारम्भ और प्रलय कैसा होता है ? और विश्व के पदार्थ को भारतीय दार्शनिकों ने पृथ्वी, अप, तेज, वायु और आकाश इन पांच महाभूतों से निर्मित माना । यूनानी दार्शनिकों ने मिट्टी, जल, अग्नि और वायु इन चार मूल तत्वों को स्वीकार किया तो जैन दार्शनिकों ने षट् द्रव्य का मूलभूत तत्वों में - ( Fundamental realities of universe) विवेचन किया |
चार्वाकदर्शन जड़वादी है। उसके मत के अनुसार जड़ ही एक मात्र तत्व है, उससे ही चेतन आत्मा उत्पन्न होता है और मृत्यु के उपरान्त उसका नाश होता है । वह ईश्वर, स्वर्ग, नरक, जीवन की नित्यता और अमूर्त तत्वों को नहीं मानता।
बौद्धदर्शन में इस विश्व को चार आर्यसत्य से युक्त समझा गया है। उनका कहना है, 'जो नित्य स्थायी मालूम पड़ता है, उसका भी पतन है। जहाँ संयोग है, वहाँ वियोग है ।" दुनिया की हर चीज अनित्य धर्मों का संघात् मात्र है । उसी का उत्पाद, स्थिति और निरोध होता रहता है।' भवचक्र द्वादश निदान से बना है ।" तत्वों का सविस्तार विचार सौत्रान्तिक मत में हुआ है। 3
वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य गुण, कर्म का आधार और अपने सावयव कार्यों का समवायी कारण है । द्रव्य गुण, कर्म से भिन्न होते हुए भी उनका आधार है । उनके बिना गुण अथवा कर्म नहीं रह सकते | पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन ये नौ द्रव्य हैं । ४ सांख्य में प्रकृति अनादि अनन्त है। प्रकृति में जगत् उत्पत्ति के गुण मिलते । प्रकृति अव्यक्त है ।" प्रकृति और पुरुष के संगोग से ही संसार बनता है । पुरुष भोक्ता है, प्रकृति भोग्या है । पुरुष निष्क्रिय है, प्रकृति सक्रिय है। इसके अनुसार सत्व, रज तथा तम ये तीन गुण विकास में
१ भारतीय दर्शन की रूपरेखा - डा० वात्सायन, पृ० ७२ २ वही पृ० ८२
३ वही पृ० १००
४
भारतीय दर्शन की रूपरेखा - डा० वात्सायन, पृ० १५७
५ वही, पृ० १७०
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पंचास्तिकाय में पुद्गल
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पहली विकृति ‘महत्' है । वह अहंकार, मनसमेत सारी सृष्टि का कारण है।६ २५ तत्वों में से पुरुष (आत्मा) न प्रकृति है, और न विकृति । प्रकृति केवल 'प्रकृति' है। महत्, अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ आदि सात तत्व प्रकृति और विकृति रूप हैं। अन्य १६ तत्वों को सांख्य ने विकृतरूप माना है।"
शंकर के मत् में जगत् असत्य और ब्रह्म सत्य है। अतः तत्वों के संदर्भ में कार्य-कारणवाद, असत्कार्यवाद, सत्कार्यवाद, आरम्भवाद, विवर्तवाद, नित्यपरिणमनवाद, क्षणिकवाद, स्याद्वाद का विवेचन विभिन्न दार्शनिक विचारधारा में हुआ है।
अजीव-द्रव्य : जैनदर्शन में षद्रव्य, सात तत्व और नौ पदार्थ माने गये हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये षट् द्रव्य हैं और जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये | सात तत्व हैं। इन सात तत्वों में पुण्य और पाप का समावेश करने से नौ पदार्थ बन जाते हैं। वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्य माने गये हैं, इन्हीं नौ का अन्तर्भाव जैनदर्शन के षद्रव्यों में किया जा सकता है। पृथ्वी, अप, तेज, वायु इन चार द्रव्यों का समावेश पुद्गल द्रव्य में हो जाता है। जैनदर्शन के अनुसार मन के दो भेद किये गये हैं --एक द्रव्यमन और दूसरा भावमन, द्रव्यमन का अन्त
र्भाव पुद्गल में और भावमन को आत्मा में समाविष्ट किया जा सकता है। षट् द्रव्य, सात तत्व और नौ पदार्थ पर दृष्टि स्थिर करने से मुख्य दो तत्व सामने आते हैं। वे ये हैं-'जीव और अजीव' इन्हें जगत् के Fundamental Substance कहा जा सकता है। इन्हीं के वियोग और संयोग से अन्य सब तत्वों की रचना होती है। जीव का प्रतिपक्षी अजीव है। जीव चेतन, उपयोग, ज्ञान, दर्शन युक्त है तो अजीव अचेतन है। जीव १०ज्ञानवान होते हुए भी भोक्ता है, कर्ता है, सुख-दुःख का आस्वाद लेने वाला है, अजीव का लक्षण इसी से बिलकुल विपरीत है।'१ जीव के भी भेदप्रभेद बहुत होते हैं परन्तु यहाँ अजीव द्रव्य के कथन की अपेक्षा के कारण जीव द्रव्य का वर्णन गौण है ।
अजीव के पांच प्रकार हैं-(१) पुद्गल (Matter of energy), (२) धर्म (Medium of motion for soul and matter) (३) अधर्म (Medium of rest), (४) आकाश (Space) और (५) काल (Time)। इन्हीं पांचों को रूपी१२ और अरूपी के अन्तर्गत समाविष्ट किया जाता है। 'पुद्गल' रूपी है और धर्म, अधर्म, आकाश काल अरूपी हैं। 'रूपी' और 'अरूपी' के लिए आगम में क्रमशः 'मूर्त' और 'अमूर्त' शब्द का प्रयोग हुआ है। पुद्गल द्रव्य 'मूर्त' है और शेष अमूर्त १३ हैं। पुद्गल द्रव्य में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये चार गुण पाये जाते हैं। इसी का वर्णन हम आगे विस्तार से करेंगे। मूर्तिक गुणवाला पुद्गल इन्द्रियग्राह्य है और अमुर्तिक गुण वाले अजीव द्रव्य इन्द्रियग्राह्य नहीं हैं ।१४
६ वही, पृ० १८२ ७ वही, पृ० १६४ ८ वही, पृ० २२० ६ स्थानांग २०१-५७, १० पंचास्तिकाय २११२२, ११ वही २।१२४-२५ १२ उत्तराध्ययन सूत्र ३६।४ और समवायांग सूत्र १४६ १३ वही ३६।६ और भगवती सूत्र १८७; ७/१० १४ प्रवचनसार २।३८, ३६, ४१, ४२
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आपाप्रववअभियाआटीन्दा अन्य श्रीआनन्द
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सपा प्रवर अभिवसागप्रवरा अभिनय श्रीआनन्दाथाश्रीआनन्दान हि ३६० धर्म और दर्शन
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आकाश द्रव्य में पांचों अजीव द्रव्य और जीव द्रव्य ये षट् द्रव्य क्षेत्रावगाही और परस्पर ओत-प्रोत होकर रहते हैं। एक साथ रहते हुए भी ये षट् द्रव्य अपना-अपना स्वभाव और अस्तित्व खो नहीं पाते । हर एक द्रव्य अपने में अवस्थित है। जीव न कभी अजीव हुआ, न अजीव कभी जीव हुआ है। यही पंचास्तिकाय में स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'षट द्रव्य परस्पर एक दूसरे में प्रवेश करते है, परस्पर अवकाश दान करते हैं, सदा-सर्वदा काल मिल-जुल कर रहते हैं, तथापि वे कभी भी अपने स्वभाव से च्युत नहीं होते। १५ अजीव द्रव्य सत् है। इसमें यथार्थ की दृष्टि से उत्पाद और व्यय होते रहते हैं। एक पर्याय का नाश 'व्यय' कहलाता है। और नूतन पर्याय (Modification) उत्पन्न होना 'उत्पाद' कहलाता है। पर्याय और व्ययात्मक अवस्था में भी वस्तु के गुणों का अस्तित्व का अचल रहना ही 'ध्रौव्य' है। पंचास्तिकाय
षट् द्रव्यों में से पांच-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश अस्तिकाय हैं । 'कालद्रव्य' आस्तिकाय नहीं है। 'अस्ति+काय' अस्तिकाय यह एक यौगिक शब्द है। आस्ति का अर्थ है प्रदेश, काय का अर्थ है-'समूह' अर्थात् जो अनेक प्रदेशों का समूह हो वह अस्तिकाय ७ है। अन्यत्र दूसरी व्याख्या देखने में आती है। 'अस्ति' अर्थात् 'अस्तित्व' जिसका अस्तित्व है और 'काय' के समान जिसके बहुत प्रदेश हैं। इस प्रकार भी कह सकते हैं- 'जो है और जिसके प्रदेश बहुत हैं वह 'अस्तिकाय' है ।१८ अतएव काल द्रव्य के बिना शेष चार द्रव्य अपनी सत्ता में अनन्य हैं, अनेक प्रदेशी हैं और उनका सामान्य और विशेष अस्तित्व नियत है, गुण और पर्याय सहित अस्तित्व भाव रूप है।१६
जीव, धर्म, अधर्म के असंख्यात प्रदेश हैं। आकाश के भी असंख्यात प्रदेश हैं। पुद्गल के प्रदेश, संख्यात असंख्यात और अनन्त हैं । 'काल-द्रव्य' अस्तित्व रखता है परन्तु बहुप्रदेशी न होने के कारण उसका समावेश अस्तिकाय में नहीं किया।
___"एक पुद्गल-परमाणु जितने आकाश को स्पर्श करता है, उतने भाग को 'प्रदेश' कहा है।" पुद्गल परमाणु की व्याख्या हम आगे करेंगे। अतः पंच द्रव्य 'अस्तिकाय' हैं इसलिए पंचास्तिकाय का चलन हुआ। आचार्य कुन्दकुन्द ने इसी नाम से एक ग्रन्थ भी लिखा । भगवान महावीर के समय पंचास्तिकाय को लेकर वाद-विवाद हुआ२० था। पुद्गल-द्रव्य
अजीव द्रव्यों को अचेतन नाम से जाना जाता है। विज्ञान जिसको Matter और न्यायवैशेषिक भौतिक-तत्त्व और सांख्य में जिसे प्रकृति कहते हैं, उसे जैनदर्शन में पुद्गल संज्ञा दी गई है। बौद्धदर्शन में 'पुद्गल' शब्द का प्रयोग आलय-विज्ञान, चेतना, सन्तति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । जैनागम में भी उपचार से पुद्गलयुक्त (शरीरयुक्त) आत्मा को 'पुद्गल२१ कहा गया है। परन्तु सामान्यतया प्रमुखता से पुद्गल का प्रयोग अजीव मूर्तिक द्रव्य के लिए ही हुआ है ।
१५ पंचास्तिकाय ११७ १६ तत्त्वार्थसूत्र ५।१; द्रव्यसंग्रह-२३; स्थानांग ४।१।१२५ १७ भगवतीसार पृ० २३८. १८ द्रव्यसंग्रह २४, १६ पंचास्तिकाय ४१५ २० भगवती १८७; ७।१० २१ वही ८।१०-३६१
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पंचास्तिकाय में पुद्गल
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'पुद्गल' शब्द 'पुद् और गल' पद से बना है। 'पुद्' का अर्थ है 'पूरण', 'गल' का अर्थ है गलन-इस प्रकार जिसमें पूरण और गलन होता हो वही 'पुद्गल'२२ है। जैनदर्शन में प्रतिपादित षड् द्रव्यों से पुद्गल द्रव्य की अपनी विशेषता है। पुद्गल द्रव्य के बिना अन्य द्रव्यों में पूरण और गलन द्वारा सतत परिवर्तन नहीं होता । अन्य द्रव्य में परिवर्तन सतत होता है। परन्तु वह परिवर्तन पूरण-गलनात्मक नहीं होता । पुद्गल के सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणु से लेकर बड़े से बड़े पृथ्वी स्कन्ध तक में सतत पूरण-गलनात्मक परिवर्तन होता रहता है और उसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये चार गुण पाये जाते हैं । २ 3 यह हम पहले कह आये हैं । पुद्गल उसे कहते हैं, जो रूपी हो और जिसमें ऊपर निर्दिष्ट चार गुण पाये जाते हों। पुद्गल में पूरण-गलन (Combination & disintegration phenomena) होते समय इन चार गुणों का कभी भी नाश नहीं होता ।
इन चारों गुणों में से किसी में एक और किसी में दो और किसी में तीन गुण हों ऐसा नहीं। चारों गुण पुद्गल में एक साथ रहते हैं। अब प्रश्न यह कि ये चार गुण विद्यमान रहते हुए भी उनका प्रतिभास क्यों नहीं होता । विज्ञान के अनुसार हाइड्रोजन और नाइट्रोजन वर्ण, गंध एवं रस हीन हैं। इस संदर्भ में इसके दो प्रकार के कारण हो सकते हैं-(१) आन्तरिक तथा (२) बाह्य । इन्हीं दो कारणों से इन्द्रिय, मन में विकल्पावस्था आ सकती है। समझ में भी वृद्धि, हानि तथा अन्य दोष की भी संभावना है। मनुष्य इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करता है। इन्द्रियातीत को जानने के लिए आत्मज्ञान की आवश्यकता चाहिए। कर्मबद्ध परतंत्र अवस्था में अनुमानादि प्रमाणों का सहारा लेना पड़ता है । प्रयोगशाला में द्रव्यों के विघटन की प्रक्रिया भी की जाती है। वह भी इन्द्रिय शक्ति के अनुरूप ही होती है। इन्द्रियातीत ज्ञान ही यथार्थ और प्रत्यक्ष ज्ञान है। कर्ममल से ऊपर उठे हुए स्वतंत्र आत्मा में वह ज्ञान सम्भव होता है। वस्तु का ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की सीमाओं से आबद्ध होता है। परन्तु इससे वस्तु का वास्तविक स्वरूप प्रकट होता, नहीं ऐसा नहीं। सीमाओं में रहकर वस्तु के वास्तविक ज्ञान की अनेकान्त, नय, प्रमाण के आधार पर यथार्थ विचाराभिव्यक्ति की प्रगाढ़ संभावना हो सकती है।
किसी भी वस्तु का कथन मुख्य और गौण को लेकर होता है। हाइडोजन में विज्ञान ने तीन गुणों का अभाव बताया है। अतः उनका यह कथन गौण दृष्टिकोण से हुआ है। जगत् उत्पत्ति से लेकर आज तक की विद्यमान परिस्थिति में 'वर्ण' हीन पदार्थ देखने में नहीं आता । सप्त वर्ण में वर्गों का कथन सीमित नहीं अपितु उनसे परे भी और वर्णभेद की विद्यमानता रहती है। फिर भी अपनी अपूर्ण भाषा-रचना द्वारा प्रकट करने में असमर्थ है। पुद्गल जड़ है फिर भी वह वर्ण रहित है, ऐसा नहीं कह सकते ।।
हाइड्रोजन तथा नाइट्रोजन में स्पर्श गुण होता है। चूंकि जहाँ स्पर्श गुण रहता है वहाँ अन्य गुण भी रहते हैं, जैसे आम । अतः प्रयोगशाला में पदार्थों के गुणों की इस दृष्टिकोण से परीक्षा करने की अपेक्षा है।
एकांश हाइड्रोजन और तीन अंश नाइट्रोजन से अमोनिया पदार्थ की उत्पत्ति होती है। अमोनिया रस और गंध सहित है लेकिन जिनसे यह बना है उनमें रस और गंध नहीं है। प्रश्न उठता है कि गंध रहित तत्त्व हाइड्रोजन और नाइट्रोजन से बना अमोनिया में वह गुण कैसे पाया जाता है ? ऐसा है तो बालू के समूह से भी तेल की प्राप्ति होनी चाहिए। जो है और जिसमें उत्पादन
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२२ सर्वार्थसिद्धि अ० ५।१-२४; राजवार्तिक ५।१-२४ और धवला में देखिये २३ प्रवचनसार २।४०
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आचार्यप्रवविभिन्न श्रीआनन्दकन्याआनन्दपार
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श्री आनन्द अन्थ
धर्म और दर्शन
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की शक्ति है उसी से वह प्राप्त हो सकता है, कारण 'असत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् का नाश कभी नहीं होता।' यह सिद्धांत जैनागम, विज्ञान और गीता में प्रतिपादित है । अत: इसीसे यह सिद्ध होता है कि अमोनिया के अंश के जो गुण हैं वही अमोनिया में होना चाहिए । अणु, परमाणु या अन्य सूक्ष्म स्कन्ध पुद्गल में जो चार गुण रहते हैं वह प्रकट या अप्रकट रूप में रहते हैं ।
जैनागम में पुद्गल द्रव्य को सत् माना है । जो द्रव्य सत् है वह उत्पाद, व्यय, धोव्य गुण युक्त होता है । २४ जो अपने 'सत्' स्वभाव से च्युत नहीं होता, गुण पर्याय से युक्त है, वही द्रव्य २५ है । व्यय रहित उत्पाद नहीं और उत्पाद रहित व्यय नहीं होता, उत्पाद और व्यय होते रहते हुए भी धौव्य द्रव्य का गुण कभी नाश नहीं होता । उत्पाद और व्यय दोनों द्रव्य के पर्याय हैं । धौव्य ध्रुव है न इसका उत्पाद है और न व्यय । यही बात उदाहरण से समझाई जाती हैजैसे सुवर्ण से कटक बनाया फिर उसी कटक से कुंडल बनाया तो सुवर्ण का नाश या उत्पाद नहीं हुआ, जो सुवर्ण कटक में विद्यमान था वही कुंडल में भी विद्यमान है । अतः सुवर्ण सुवर्ण के रूप रहा । परन्तु उत्पाद और व्ययात्मक पर्याय बदलती रही सुवर्ण ध्रौव्य रहा । अतः जिसका अभाव हो उसकी १६ उत्पत्ति कैसी ? इसी धीव्य के बारे में भी विज्ञान का मत उल्लेखनीय है --- Nothing can made out of nothing and it is impossible to annihilate any thing. All that happens in the world depends on a change of forms (af) and upon the mixture or seperation of to the bodies' - अर्थात् सारांश रूप में इस प्रकार कह सकते हैं कि किसी भी वस्तु का सर्वथा नाश नहीं होता। सिर्फ परिवर्तन होता रहता है । इसी मत को एम्पीडोकल्स २७ ने अन्य ढंग से प्रस्तुत किया है
"There is only change of modification of the matter.'
इसी संदर्भ में मोमबत्ती का उदाहरण दिया गया है ।
विज्ञान युग ने अणु बम या एटम बम की अनोखी देन दी। इसी एटम बम का निर्माण
पुद्गल की गलन और पूरण शक्ति के आधार पर हुआ है ।
व फिशन या इन्टिग्रेशन व डिस्इन्टिग्रेशन (Fusion and disintegration) कहते हैं ।
इसी एटम बम में एटम के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं और तब शक्ति उत्पन्न होती है । और
हाइड्रोजन बम में एटम परस्पर मिलते हैं, तब उसमें शक्ति का प्रादुर्भाव होता है ।
परमाणुवाद
परमाणुओं की कल्पना आज से २ || हजार वर्ष पूर्व डिमोक्रिटस् आदि यूनानियों ने की थी और भारत में पदार्थों के अन्दर छिपे हुए कणों का ( परमाणुओं का ) संशोधन करने वाला कणाद् नामक ऋषि हो गया है। पाश्चात्य विद्वानों को जैन दर्शन के साहित्य के अध्ययन का सु-अवसर मिलता तो कणाद् और डिमोक्रिटस् आदि कतिपय विचारकों के 'परमाणुवाद का सिद्धान्त' का उद्गम इनके पहले का माना जाता । जैन दर्शन में भी इस दिशा में पर्याप्त प्रयास हुआ है - आगम में कहा है कि सूक्ष्म या स्थूल सब पुद्गल परमाणुओं से निर्मित हैं ।
अतः विज्ञान की भाषा में इसे पयुजन
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२४ भगवती ११४,
२५ प्रवचनसार २।१-११.
२६ पंचास्तिकाय २।११-१५
२७ General and Inorganic chemistry - by P. J. Durrant.
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पंचास्तिकाय में पुद्गल
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राजवार्तिक में २८ परमाणु का वर्णन सूक्ष्मता से किया है । परमाणु जो स्वयं आदि है स्वयं ही वह अपना मध्य है और स्वयं ही अन्त्य है । इसी के कारण वह इन्द्रियों से किसी भी तरह ग्राह्य नहीं हो सकता । ऐसा जो अविभागी पुद्गल है उसे परमाणु कहा है । आधुनिक युग के विज्ञान द्वारा जिस परमाणु का विस्फोट किया है, वह वास्तव में परमाणु नहीं अपितु यूरेनियम एवं हाइड्रोजन तत्त्वों के एक कण हैं। कण और परमाणु में बहुत अन्तर है । कण के टुकड़े हो सकते हैं, परन्तु परमाणु के नहीं । बौद्ध तथा वैशेषिक दर्शन ने इसी का समर्थन किया है ।
विज्ञान की मान्यतानुसार संसार के पदार्थ ९२ मूल तत्वों से बने हैं, जैसे सोना, चांदी आदि । इन तत्वों को उन्होंने अपरिवर्तनीय माना है । परन्तु जब रदरफोर्ड और टौमसन ने प्रयोगों द्वारा पारा के रूपान्तर से सोना बनाने की किमया सिद्ध की है और बताया कि सब द्रव्यों के परमाणु एक से ही कणों से मिलकर बने हैं और परमाणुओं में ये ( Alpha ) कण भरे पड़े हैं। इसी अल्फा (Alpha ) कणों का गलन-पूरण द्वारा परिवर्तन संभवनीय है । पारा, सोना, चांदी आदि पुद्गलद्रव्य की भिन्न-भिन्न पर्यायें हैं ।
पानी एक स्कन्ध है । संसार के सभी पुद्गल स्कन्धों का निर्माण परमाणुओं से हुआ है । यह हम पहले कह आये हैं । पानी की बूंद को खण्ड-खण्ड करते हुए एक इतना नन्हा सा अंश बनायेंगे कि जिसका पुनः खण्ड न हो । यही स्कन्ध ( Molecule) ऑक्सीजन और हाइड्रोजन से बना है । अतः जल के स्कन्ध में तीन परमाणु होते हैं । एक परमाणु ऑक्सीजन और दो परमाणु हाइड्रोजन के [H, O]। इसी प्रकार अन्य पदार्थों के स्कन्धों में भी परमाणुओं की संख्या भिन्न-भिन्न पाई जाती है । इन्हीं परमाणुओं के संघात से निर्मित स्कन्ध के छः भेद हैं । इसी का वर्णन हम निम्नोक्त वर्गीकरण के अन्तर्गत करेंगे
( १ ) परमाणु एक सूक्ष्मतम अंश है ।
( २ ) वह नित्य अविनाशी है ।
(३) परमाणुओं में रस, गंध, वर्ण और दो स्पर्श - स्निग्ध अथवा रूक्ष, शीत या उष्ण होते हैं । (४) परमाणुओं के अस्तित्व का अनुमान उससे निर्मित स्कन्धों से लगाया जा सकता है । परमाणुओं के या स्कन्धों २६ में बन्ध से बने स्कन्ध संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी या अनन्त प्रदेशी हो सकते | सबसे बड़ा स्कन्ध अनन्त प्रदेश वाला है । अनन्त प्रदेशी की यह विशेषता है कि वह एक प्रदेश में भी व्याप्त होकर या लोकव्यापी होकर रह सकता है । समस्त लोक में परमाणु 30 है, उसकी गति के विषय में भगवती में 39 कहा है कि 'वह एक समय में लोक के पूर्व अन्त से पश्चिम अंत तक, उत्तर अंत से दक्षिण अंत तक गमन कर सकता है । उसकी स्थिति कम से कम एक समय और अधिक से अधिक असंख्यात समय ३ २ तक है । यही बात उत्तराध्ययन में 33 अन्य ढंग से प्रस्तुत की गई है । स्कन्ध और परमाणु सन्तति की अपेक्षा अनादि- अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं ।
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२८ तत्त्वार्थराजवार्तिक ५।२५
२६ तत्त्वार्थसूत्र अ० ५,
३० उत्तराध्ययन ३६/११
३१ भगवती १८ / ११ ३२ वही ५ / ७
३३ उत्तराध्ययन ३६ / १३
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अभिनंदन आआनंदऋषि अभिनन्दन
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आचार्यप्रवभिनय ग्रन्थश्राआनन्दान्थर
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धर्म और दर्शन
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यही परमाणु विज्ञान युग का ऊर्जा रूप है। इसी की शक्ति के आधार पर उत्थान और पतन हो सकता है।
आताप (heat), उद्योत (light), विद्युत (Electricity), ये तीन शक्तियां अति सूक्ष्म हैं। इन्हीं शक्तियों का प्रतिपादन जर्मनी के प्रो० अलवर्ट आइन्सटाइन ने सबसे पहले सूत्र में प्रस्तुत किया। इसी को ऊर्जा व पदार्थ की समानता के सिद्धान्त नाम से जाना जाने लगा। (Principal of Equivalance between mass and energy) i
सूत्र का प्रतिपादन इस प्रकार है
E=m--2/c'E' का अर्थ एनर्जी और (m) का अर्थ 'मास' है और (c) प्रकाश की गति का द्योतक है। अतः जब पदार्थ अपने स्थूल रूप को नष्ट करके शक्ति के सूक्ष्मरूप में परिणत हो जाता है, तब हजारों टन कोयला जलाने से जो शक्ति उत्पन्न होती है वही शक्ति एक ग्राम पदार्थ में भी प्राप्त हो सकती है । इसी महान शक्तिशाली परमाणु की रचना विज्ञान के दृष्टिकोण से इस प्रकार है
गोम्मटसार में परमाणु को षटकोणी, खोखला और सदा दौड़ता हुआ बतलाया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में 'स्निग्ध' और रूक्षत्व गुणों के कारण को बंध कहा है। सर्वार्थसिद्धि में 'स्निग्धरूक्षगुणनिभित्तो विद्युत' ऐसा कहा है। अर्थात् स्निग्ध और रूक्ष के कारण ही विद्युत की उत्पत्ति होती है। स्निग्ध रूक्ष के चिकना या खुरदरा अर्थ न लेकर विज्ञान की भाषा के अनुसार Positive and Negative का प्रयोग आचार्य पूज्यपाद को मान्य था। हायड्रोजन के परमाणु के मध्य में धन (स्निग्ध) विद्युत कण (Proton) अल्पस्थान में स्थिर रहता है। यही उसी परमाणु का नाभि के रूप में है। (Nucleus नाभि) के चारों ओर कुछ दूरी पर रूक्ष अर्थात् ऋण-विद्युत कण (Electron) सतत् नाभि की ओर चक्कर लगाता रहता है । अतः स्निग्ध (Proton) और रूक्ष (Electron) के बीच जो खोखलापन है, उसी के कारण एक परमाणु के अन्दर दूसरा परमाणु प्रवेश कर सकता है। इसी क्रिया को सर्वार्थसिद्धिकारने सूक्ष्म-अवगाहन शक्ति नाम दिया। प्रदेश की व्याख्या पहले हम कर आये । एक प्रदेश में अनन्तानन्त परमाणु को स्थित करने की अवगाहन शक्ति है।
अतः इससे विज्ञान की मान्यता को जैनदर्शनानुसार किस ढंग से कहा है, पता लगता है। वैज्ञानिक दृष्टि से जैनदर्शन का अध्ययन होना चाहिए। न कि साम्प्रदायिक और धार्मिक दृष्टिकोण से। इसी की जंजीर में जैनदर्शन या पदार्थ-दर्शन का स्वरूप अंधकार में रहा और अनेक गलतफहमियां फैलती रहीं। सर्वार्थसिद्धि का पांचवां अध्याय पुद्गल परमाणु का यथार्थ स्वरूप प्रतिपादित करता है, जैसा कि विज्ञान में प्रतिपादित हुआ है।
स्कन्ध : बन्ध की प्रक्रिया--पुद्गल परमाणु के समूह से स्कन्ध बनता है और बंधने की प्रक्रिया का वर्णन जैन दर्शन में वैज्ञानिक ढंग से हुआ है। विज्ञान किसी धर्मग्रन्थ-आगम तथा दर्शन से जुड़ा हुआ नहीं है । विज्ञान के सिद्धान्त कोई भी अन्तिम नहीं हैं। वे समय-समय पर बदलते रहते हैं, वह एक सत्य की खोज करने वाला जिज्ञासु है। इसी के कारण अपनी कमजोरी को वह स्वीकार करने में हिचकता नहीं। बाइबिल, आगम, कुरान आदि आर्षग्रन्थ में प्रतिपादित तत्वों को विज्ञान ने कभी भी आंख मूंद कर स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसे सत्य की कसौटी पर कसने की कोशिश की और सत्य को सामने उपस्थित किया। छः हजार पुरानी पृथ्वी का बाइबिल द्वारा जो कथन हुआ था उसे विज्ञान ने ५० हजार वर्ष पुरानी सिद्ध कर दी।
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पचास्तिकाय में पुद्गल
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यह पृथ्वी सबसे बड़ा स्कन्ध है । संसार में जितने भी पुद्गल स्कन्ध दृष्टि में आते हैं वे सब स्निग्ध- रूक्ष गुणों से युक्त हैं । यह हम पहले परमाणु के बारे में कह आये हैं । उनकी रचना एक जैसी होने के कारण सब पुद्गल एक प्रकार के हैं । यही बात जैन दार्शनिकों का महत्त्वपूर्ण अविष्कार है । उमास्वाति जो ईसा की प्रथम शती में हुए उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र में ३५ कहा है कि पुद्गल स्कन्ध के टूटने से, भेद से अथवा छोटे-छोटे स्कन्धों के संघात से उत्पन्न होते हैं । इन संघात (Combination) के मूल कारण परमाणु के स्निग्ध और रूक्षगुण हैं । जितने भी भिन्न-भिन्न प्रकार के स्कन्ध हैं, उनका बन्ध इन्हीं के आधार पर हुआ है। पुद्गल स्कन्ध में अणुसमूह और वातियों आदि पुद्गलों में व्यूहाणु (Molecales ) की चलन क्रिया होती रहती है । ३६ इसी क्रिया का वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया है । ३७ उनमें से एक विस्रसा क्रिया होती है और दूसरी प्रयोग निर्मित क्रिया । विस्रसा गतिक्रिया प्राकृतिक है, विज्ञान में वतियों ( Gasses ) में जो व्यूहायुओं की क्रिया कही गई है उसे भी विस्रसा गतिक्रिया जान सकते हैं । प्रयोगनिर्मित क्रिया बाह्यशक्ति या कारणों से भी उत्पन्न होती है ।
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इसी वैज्ञानिक बन्ध - प्रक्रिया से संघातादि का जो सर्वार्थसिद्धि में नियम बताया गया है वह पूर्णतः इससे मिलता है। सूक्ष्म अणुओं की बन्ध प्रक्रिया को भी स्पष्ट किया गया है । अतः उसका कथन इस प्रकार है
'भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते भेदादणुः । स्निग्ध- रूक्षत्वात् बन्धः, न जघन्यगुणानाम्, गुणसाम्ये सदृशानाम्, द्वयधिकाधिगुणानां बंधेऽधिको पारिणामिकौ च ।
(१) अणु की उत्पत्ति सिर्फ भेद प्रक्रिया में ही हो सकती है, अन्य प्रकार की प्रक्रिया से नहीं ।
(२) स्निग्ध- रूक्ष के कारण ही बन्ध प्रक्रिया सम्भव है । अन्यथा स्कन्ध बन्ध ही न बनता । विजातीय से भी बन्ध होता या सजातीय का परस्पर बन्ध सम्भव है ।
(३) परन्तु एकाकी गुणों का होना बन्ध का कारण नहीं । दोनों गुण होना चाहिये । विजातीय गुण की संख्या का प्रमाण समान हो तो बन्ध नहीं होता । विज्ञान का Equal energy level व least energy level नियम यहां भी लागू होता है ।
(४) बन्ध उन्हीं परमाणुओं का सम्भव है जिसमें स्निग्ध और रूक्ष गुणों की संख्या में दो absolute units का अन्तर हो । ४ : ६ ।
जैन दर्शन में भेद, सघात और भेदसंघात इन्हीं तीन प्रक्रिया से बन्ध सम्भव बतलाया गया है । इसी की तुलना Molecules के लिए ( 1 ) electro Valency ( 2 ) Covalency और (3) Co-ordinate covalency से की जा सकती है । स्कन्धों से कुछ परमाणुओं का विघटित होना और दूसरे में मिल जाना भेद कहलाता है ( Disinte gration ) यही भेदात्मक प्रक्रिया की तुलना वैज्ञानिक Radioactivity प्रक्रिया से की जा सकती है । एक स्कन्ध के कुछ परमाणु का अन्य स्कन्ध के अणुओं के साथ जो मिलन होना बतलाया गया है उसी को संघात कहा
३४. तत्त्वार्थसूत्र अ० ५ / २६-३३ ३५. वही
३६. गोम्मटसार जीवकाण्ड ५६२
३७. तत्त्वार्थ राजवार्तिक ५/७
आचार्य प्रवल अगदी श्री आनन्द
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धर्म और दर्शन
जा सकता है। तीसरी प्रक्रिया में भेद और संघात की रचना एक साथ होती रहती है । जिसमें परमाणु विघटित होते हैं तो कुछ संघटित होते हैं। बन्ध का अर्थ यहाँ कर्म बन्ध प्रकृतियों की अपेक्षा न ग्रहण कर स्कन्ध का बन्ध-संयोग समझना चाहिये।
अवगाहनशक्ति-परमाणु की रचना में जो खोखलापन की चर्चा की गई है, उसी के कारण संकोच विस्तार की सम्भावना होती है। अतः आकाश द्रव्य में सब द्रव्यों को अवकाशदान मिलता है । आकाश के प्रदेश असंख्यात हैं, तो पुद्गल के प्रदेश अनन्त हैं । अतः यहाँ स्वाभाविक ही प्रश्न उपस्थित होता है कि असंख्यात प्रदेश में अनन्त प्रदेशों का समावेश कैसे सम्भव है ? इस सन्दर्भ में पुद्गल का एक अविभाग परिच्छेद परमाणु आकाश के एक प्रदेश को (unit space) घेरता है। उसी प्रदेश में और अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु अपने खोखलेपन के कारण या अवगाहन की शक्ति के कारण स्थित हो सकते हैं। इसी सूक्ष्म परिणमन शक्ति के कारण असंख्यात प्रदेश में अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु रह सकते हैं। तलवार या तलवार की धार पर स्थित परमाणु की वह धार उन्हें खण्डित नहीं कर सकती ।३६ वह अन्तिम भाग है। उसमें जुड़ने की और अलग होने की शक्ति है । वह कार्य रूप नहीं, कारण रूप है। उसमें अवगाहन की महान् शक्ति विद्यमान है।
पुद्गल का वर्गीकरण-परमाणु और स्कन्ध ये दो पुद्गल के प्रमुख भेद ० हैं । परमाणु का विभाजन तो हो नहीं सकता। स्कन्ध तो उसी के कारण बनता है। उसके छः भेद हैं४१
१. स्थूल स्थूल (Solid), २. स्थूल (Lequid), ३. सूक्ष्म-स्थूल (Gass), ४. स्थूल-सूक्ष्म (Energy), ५. सूक्ष्म (Fine matter beyound sense-pereepation), ६. सूक्ष्म-सूक्ष्म (Extra fine matter)।
प्रकृति, शक्ति, तम, प्रकाशादि को पुद्गल का पर्याय माना है। ४२ तम के बारे में मतभेद है। किसी ने उसे प्रकाश का अभाव माना तो किसी ने उसीकी अर्थात् प्रकाश की अनुपस्थिति स्वीकार किया।४३ सर्वार्थसिद्धि में अंधकार को भावात्मक न मानकर 'दृष्टिप्रतिबंध कारण व प्रकाशविरोधी' माना है। विज्ञान ने प्रकाश की भांति अंधकार को स्वतन्त्र रूप में स्वीकार किया।
'छाया' जिसे अंग्रेजी में (Shadow) कहते हैं, वह प्रकाश के निमित्त से होती है।४४ प्रकाश के दो-आतप और उद्योत भेद हैं।४५ सूर्य और अग्नि के उष्ण प्रकाश को आतप कहते हैं । जुगनू, चन्द्रमा आदि के शीतल प्रकाश को उद्योत कहते हैं। शब्द, तम, छाया, आतप, उद्योत ये सब स्थूल सूक्ष्म के पर्याय हैं। ये किसी के गुण नहीं। वैशेषिक दर्शन में४६ मात्र शब्द को आकाश का गुण माना है। जबकि शब्द पौद्गलिक है, वह कान से सुना जाता है। इसके सम्बन्ध में विज्ञान भी सहमत है।
३८. द्रव्यसंग्रह-जावदियं आयासं'... ३६. भगवती ५/७. ४०. तत्त्वार्थसूत्र, अ० ५ ४१. नियमसार-अतिस्थूलाः.......''सूक्ष्म इतिः । ४२. द्रव्यसंग्रह-सद्दोबंधो........"दव्वस्स पज्जाया । ४३. सर्वार्थसिद्धि-तमोदृष्टिः प्रतिबंध कारणं प्रकाश विरोधी। ४४. वही, ५/२४. ४५. वही, अ० ५. ४६. तर्कसंग्रह, पृ० ६ 'शब्दगुणकमाकाशम् ।'
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________________ पंचास्तिकाय में पुद्गल STER काटा शब्द तो एक स्कन्ध के दूसरे स्कन्ध से (Molecule) टकराने से उत्पन्न होता है।४७ इसी टकराव से वस्तु में कम्पन उत्पन्न होती है, कम्पन से वायु में तरंगें उत्पन्न होती हैं और ध्वनि फैलती है। जैसे शांत शीतल सरोवर में एक कंकड़ फेंकने से तरंगें उत्पन्न होती हैं, वैसे ही वायु में भी तरंगें उत्पन्न होती हैं। यही तरंगें उत्तरोत्तर पुद्गलवर्गणाओं में कम्पन उत्पन्न करने में समर्थ होती हैं, इसी प्रक्रिया से उद्भूत हुई ध्वनि से ही 'शब्द' सुनाई देता है।४८ शब्द के दो भेद किये गये हैं-(१) भाषात्मक और (2) आभाषात्मक / भाषात्मक शब्द के भी दो भेद--(१) अक्षरात्मक (2) अनक्षरात्मक हैं। अभाषा शब्द प्रायोगिक और वैससिक भेद से दो प्रकार के हैं। फिर प्रायोगिक के तत, वितत, घन और शुषिर ये चार भेद हैं। इन्हीं भेद-प्रभेदों का कथन स्थानांग४६ में अन्य ढंग से हआ है। वे इस प्रकार हैं। शब्द के प्रथम भाषा शब्द और नोभाषा शब्द भेद से दो भेद किये गये, तदन्तर नोभाषा शब्द के आतोद्य और नो-आतोद्य भेद कर फिर आतोद्य के तत, वितत ये भेद किये गये हैं। फिर तत के घन और शुषिर, वितत के भी यही भेद हैं। नो-आतोद्य के भूषण शब्द तथा नो-भूषण शब्द दो भेद किये गये हैं। नो-भूषण शब्द के तालशब्द और लतिकाशब्द / भाषा शब्द के कोई भेद-उपभेद नहीं हैं। यही पौद्गलिक शब्द का वर्गीकरण हुआ। इसी को आधुनिक विज्ञान ने प्रकारान्तर से स्वीकार किया है--उन्होंने शब्द को ध्वनि नाम से स्वीकार किया है। ध्वनि के दो भेद किये गये हैं-(१) कोलाहल ध्वनि (Noises), (2) संगीत ध्वनि (Musical) / संगीत ध्वनि (1) यंत्र की कम्पन से, (2) तनन की कम्पन से, (3) दण्ड और पट्ट के कम्पन से, (4) प्रतर के कम्पन से उत्पन्न होती है। इन्हीं भेदों का समावेश तत, वितत, घन, शुषिर में किया जा सकता है। जगत् में जीव अर्थात् आत्मा के बिना स्थूल, सूक्ष्म, दृश्य पदार्थ का समावेश पुद्गल में किया जा सकता है। अनंत शक्ति स्वरूपात्मक पुद्गल का विधायक कार्य में किस प्रकार उपयोग किया जाय और विनाशक प्रवृत्ति से बचाव किया जाय इसी को सोचना और उपयोग में लाना एकमात्र जीव का कार्य है। मन, बुद्धि, चिन्तनात्मक शक्ति भाव रूप से तो आत्मा और द्रव्य रूप से पुद्गल की है। यहाँ द्रव्य का अर्थ सत् न लेकर द्रव्य भाव ग्रहण करना चाहिए। पुद्गल जीव का उपकार कर सकता है। पुद्गल, पुद्गल का उपकार कर सकता है / जीव-जीवों का उपकार कर सकता है। पुद्गल में अनंतशक्ति है और वह जीव की भांति अविनाशी और अपने गुण पर्याय सहित विद्यमान है। पुद्गल का परिवर्तन होता रहता है, जीवों को जीव के भावों से कर्मवर्गणा बंधन बनते हैं परन्तु कर्मवर्गणा जीव का घात नहीं कर सकती, कारण वह भी पुदगल स्वरूपात्मक है / जड़ है, स्पर्शादि गुणों के सहित है / Y - HRI का वह 47. पंचास्तिकाय, 1176. 48. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 5. 46. स्थानांग, 81. maratAJammarAJARAN DUADADAJap hwanvrwwwwwwwwwwwmarm VOWDorariawaamaniancarna m a