________________ पंचास्तिकाय में पुद्गल STER काटा शब्द तो एक स्कन्ध के दूसरे स्कन्ध से (Molecule) टकराने से उत्पन्न होता है।४७ इसी टकराव से वस्तु में कम्पन उत्पन्न होती है, कम्पन से वायु में तरंगें उत्पन्न होती हैं और ध्वनि फैलती है। जैसे शांत शीतल सरोवर में एक कंकड़ फेंकने से तरंगें उत्पन्न होती हैं, वैसे ही वायु में भी तरंगें उत्पन्न होती हैं। यही तरंगें उत्तरोत्तर पुद्गलवर्गणाओं में कम्पन उत्पन्न करने में समर्थ होती हैं, इसी प्रक्रिया से उद्भूत हुई ध्वनि से ही 'शब्द' सुनाई देता है।४८ शब्द के दो भेद किये गये हैं-(१) भाषात्मक और (2) आभाषात्मक / भाषात्मक शब्द के भी दो भेद--(१) अक्षरात्मक (2) अनक्षरात्मक हैं। अभाषा शब्द प्रायोगिक और वैससिक भेद से दो प्रकार के हैं। फिर प्रायोगिक के तत, वितत, घन और शुषिर ये चार भेद हैं। इन्हीं भेद-प्रभेदों का कथन स्थानांग४६ में अन्य ढंग से हआ है। वे इस प्रकार हैं। शब्द के प्रथम भाषा शब्द और नोभाषा शब्द भेद से दो भेद किये गये, तदन्तर नोभाषा शब्द के आतोद्य और नो-आतोद्य भेद कर फिर आतोद्य के तत, वितत ये भेद किये गये हैं। फिर तत के घन और शुषिर, वितत के भी यही भेद हैं। नो-आतोद्य के भूषण शब्द तथा नो-भूषण शब्द दो भेद किये गये हैं। नो-भूषण शब्द के तालशब्द और लतिकाशब्द / भाषा शब्द के कोई भेद-उपभेद नहीं हैं। यही पौद्गलिक शब्द का वर्गीकरण हुआ। इसी को आधुनिक विज्ञान ने प्रकारान्तर से स्वीकार किया है--उन्होंने शब्द को ध्वनि नाम से स्वीकार किया है। ध्वनि के दो भेद किये गये हैं-(१) कोलाहल ध्वनि (Noises), (2) संगीत ध्वनि (Musical) / संगीत ध्वनि (1) यंत्र की कम्पन से, (2) तनन की कम्पन से, (3) दण्ड और पट्ट के कम्पन से, (4) प्रतर के कम्पन से उत्पन्न होती है। इन्हीं भेदों का समावेश तत, वितत, घन, शुषिर में किया जा सकता है। जगत् में जीव अर्थात् आत्मा के बिना स्थूल, सूक्ष्म, दृश्य पदार्थ का समावेश पुद्गल में किया जा सकता है। अनंत शक्ति स्वरूपात्मक पुद्गल का विधायक कार्य में किस प्रकार उपयोग किया जाय और विनाशक प्रवृत्ति से बचाव किया जाय इसी को सोचना और उपयोग में लाना एकमात्र जीव का कार्य है। मन, बुद्धि, चिन्तनात्मक शक्ति भाव रूप से तो आत्मा और द्रव्य रूप से पुद्गल की है। यहाँ द्रव्य का अर्थ सत् न लेकर द्रव्य भाव ग्रहण करना चाहिए। पुद्गल जीव का उपकार कर सकता है। पुद्गल, पुद्गल का उपकार कर सकता है / जीव-जीवों का उपकार कर सकता है। पुद्गल में अनंतशक्ति है और वह जीव की भांति अविनाशी और अपने गुण पर्याय सहित विद्यमान है। पुद्गल का परिवर्तन होता रहता है, जीवों को जीव के भावों से कर्मवर्गणा बंधन बनते हैं परन्तु कर्मवर्गणा जीव का घात नहीं कर सकती, कारण वह भी पुदगल स्वरूपात्मक है / जड़ है, स्पर्शादि गुणों के सहित है / Y - HRI का वह 47. पंचास्तिकाय, 1176. 48. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 5. 46. स्थानांग, 81. maratAJammarAJARAN DUADADAJap hwanvrwwwwwwwwwwwmarm VOWDorariawaamaniancarna m a Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org