Book Title: Panchashak Mulam
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
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श्रीज्योतिष्करंडके
॥३६७॥
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पव्वे पन्नरसगुणा तिहिसहिए पोरसीए आणयणे । छलसयसयविभत्ते जं लद्धं तं वियाणाहि ॥ ३६८ ॥ जइ होइ विसमलद्धं दक्खिणमयणं हविज्ज नायव्यं । अह हवइ समं लद्धं नायव्वं उत्तरं अयणं ।। ३६९ ।। अयणगए तिहिरासी चउरंगुणो पव्वपायभइयम्मि । जं लद्धमंगुलाण य खयबुड्डी पोरसीए उ || ३७० ॥ दक्खिणवुड्डी दुपया उ अंगुलाणं तु होइ नायव्वा । उत्तरअयणा हाणी कायव्वा चउहिं पायाहिं ।। ३७२ ।। सावणबहुलपडिवर दुपया पुण पोरसी धुवं होइ । चत्तारि अंगुलाई मासेणं बढए तत्तो ॥ ३७२ ॥ एकतीसहभागा तिहिए पुण अंगुलस्स चत्तारि । दक्खिण अयणे बुड्डी जाव चत्तारि उ पयाई ॥ ३७३ ॥ उत्तरअयणे हाणी चउहिं पायाहिं जाव दो पाया । एवं तु पोरसीए बुढिखया होंति नायव्वा ॥ ३७४ ॥ हाणी वा बुड्ढी वा जावइया पोरसीए दिट्ठा उ । तत्तो दिवसगएणं जं लद्धं तं खु अयणगयं ॥ ३७५ ॥ कालष्णाणसमासो पुव्वायरिएहि आणिओ एसो । दिणकरपण्णत्तीओ सीसजणविबोहणडाए || ३७६ || पोरिसीमाणं २१ । इति ज्योतिष्करण्डकप्रकीर्णकं समाप्तं ॥
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प्रणष्टपर्वपौरुषीप्राभृते
॥३६७॥

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