Book Title: Panch Parmeshthi ke Prati Bhav Vandana ka Mahattva Author(s): Jashkaran Daga Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 4
________________ 209 ||15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी है। कोटि-कोटि जन्मों से बँधा हुआ संसारी जीवों का पाप कर्म आपकी स्तुति के प्रभाव से क्षणभर में विनाश __ को उसी तरह प्राप्त हो जाता है, जिस प्रकार समग्र विश्व पर छाया हुआ, भौरे के समान अत्यन्त काला अमावस्या की रात्रि का सघन अंधकार, प्रातःकालीन सूर्य की उज्ज्वल किरणों के उदय होने से विनाश को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार जब मात्र आदिनाथ स्वामी की स्तुति में इतना चमत्कार है, तो जिस परमेष्ठी में अनंत तीर्थंकर, सिद्ध आदि समाहित हैं उनकी स्तुति वंदना करने से सर्व पापों का नाश हो, इसमें क्या संदेह हो सकता है? 9. साधना का सशक्त साधन- परमेष्ठी भाव वंदना से न केवल परमेष्ठी का पवित्र स्वरूप ध्यान में आता है, वरन् स्वयं परमेष्ठी रूप होने की, आत्मा से परमात्मा होने की प्रेरणा मिलती है। भाव से परमेष्ठी का साक्षात्कार भी होता है, जिससे उनके गुण वंदना-कर्ता के अंतर में विकसित होते हैं और वह बहिरात्मा से अंतरात्मा, अंतरात्मा से महात्मा और महात्मा से परमात्मा की भूमिका को उपलब्ध हो जाता है। अंत में यह ध्यान देने योग्य है कि कर्मास्रव पाँच हैं- मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग ! इनमें मिथ्यात्व के दोषों की निवृत्ति दर्शन समकित के पाठ से, अव्रत के दोषों की निवृत्ति पाँच अणुव्रतों के पाठों से, प्रमाद के दोषों की निवृत्ति तीन गुणव्रतों के पाठों से, चार कषायों के दोषों की निवृत्ति चार शिक्षाव्रत के पाठों से और अशुभ योग के दोषों की निवृत्ति भाव वंदना के पाठों से होती है। इससे प्रतिक्रमण में भाव वंदना बोलने की उपयोगिता और अनिवार्यता स्पष्ट ध्यान में आती है। अतः बिना भाव वंदना के प्रतिक्रमण अधूरा है। भावभक्ति एवं विधि पूर्वक पंच परमेष्ठी की भाव वंदना का महत्त्व अध्यात्म क्षेत्र में सर्वोपरि है। कारण कि परमेष्ठी की भक्ति में बड़ी अद्भुत शक्ति निहित है। जिसके अनेक उदाहरण जैसे सेठ सुदर्शन, सती सोमा आदि। महात्मा कबीर ने भी भक्ति को सबसे बड़ी शक्ति बताते हुए कहा है भाला बड़ी न तिलक बड़ो, न कोई बड़ो शरीर। सब ही से भक्ति बड़ी, कह गए दास कबीर / / चूँकि परमेष्ठी की भक्ति सर्वोत्तम है, अतएव परमेष्ठी के महत्त्व और उसकी भक्ति की गरिमा को ध्यान में लेकर उभयकाल पंचपरमेष्ठी की भाव वंदना प्रतिक्रमण के साथ एकाग्न भाव से बोली जानी चाहिए। संदर्भ १.विशेषावश्यक भाष्य 2. भावपाहुड,६६ 3. जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग 7, पृष्ठ 43-44 4. ज्ञातासूत्रकथांग अध्ययन 8/ प्रवचनसारोद्धार, द्वार 10, गाथा 310-319 __-डागा सदन, संघपुरा मौहल्ला टोंक (राज.) + मिथ्यात्वादि दोषों की निवृत्ति के पाटों हेतु द्रष्टव्य प्रश्नात्तर खण्ड। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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