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पंच परमेष्ठी के प्रति भाव - वंदना का महत्त्व
श्री जशकरण डागा
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15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 206
प्रतिक्रमण में पाँच पदों की भावपूर्वक वन्दना की जाती है । वन्दन द्रव्य और भाव रूप से दो प्रकार का है। लेखक ने भाव वन्दन की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा है कि भावों की उत्कृष्टता के साथ किया गया वन्दन पापनाशक, पुण्यार्जन में हेतु एवं मुक्तिसदृश अध्यात्म के उच्चतम स्तर की प्राप्ति कराने में सहायक होता है। -सम्पादक
"विणओ जिणसासणमूलो" के अनुसार धर्म का मूल विनय है। विनयपूर्वक नमन को जिनशासन में 'वन्दन' कहा गया है। पंच परमेष्ठी के पाँचों पदों के आरम्भ में 'णमो' शब्द वंदन का ही पर्याय है। मोक्ष मार्ग में गति हेतु भावपूर्वक परमेष्ठी का वंदन आवश्यक है, कारण कि इसके बिना ज्ञान व क्रिया भी फलीभूत नहीं होते हैं। कहा है- 'जे नमे 'ते गमे' अर्थात् नमता है वह ज्ञान प्राप्त करता है।
वंदना के प्रकार
द्रव्य और भाव की अपेक्षा वंदना के मुख्य दो भेद हैं। शरीर से पंचांग झुकाकर नमन करना द्रव्यवंदना है, जबकि पूज्य भाव से भक्तिपूर्वक मन से नमन को भाव-वंदना कहा है। वंदना के तीन प्रकार भी कहे हैं। यथा
१. जघन्य वंदना - हाथ जोड़कर मुख से मात्र 'मत्थएण वंदामि' कहना । मार्ग में साधु-साध्वियों के मिलने पर यह वंदना की जाती है।
२. मध्यम वंदना- यह स्थानक / उपाश्रय आदि स्थानों में विराजित साधु-साध्वियों को पंचाग नमाकर 'तिक्खुत्तो' के पाठ से की जाती है।
३. उत्कृष्ट वंदना- यह प्रतिक्रमण में 'इच्छामि खमासमणो' के पाठ से गुरुदेव को की जाती है।
पंच परमेष्ठी को भाव वंदना में तिक्खुत्तो के पाठ से पंचाग झुकाकर मध्यम वंदना का प्रयोग होता है। वर्तमान में प्रचलित 'पंच परमेष्ठी भाव वंदना' जो पूज्य तिलोकऋषि जी म.सा. द्वारा विरचित है ; भाषा, भाव और भक्ति की दृष्टि से बहुत उत्तम है। इसे बोलने और सुनने वाले सभी परमेष्ठी की भक्ति में तन्मय हो जाते हैं. जो इसकी एक बड़ी विशेषता है।
वंदना कैसे व किसे?
वंदना द्रव्य से यथाविधि पंचांग नमा कर भावपूर्वक की जानी चाहिए। बिना भाव के वंदना का कोई
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जिनवाणी लाभ नहीं होता है। प्रभु ने कहा है
पढिएणवि किं कीरइ, किं वा सुणिएण भावरहिएण!
भावो कारणभूदो, सायारणायारभूदाण ॥ अर्थात् भाव रहित होकर पढ़ने व सुनने से क्या लाभ? चाहे गृहस्थ हो या त्यागी, सभी की उन्नति का मूल कारण भाव है।
जो द्रव्य वंदन मात्र व्यवहार के पालनार्थ, लोकलज्जा या स्वार्थ अथवा शिष्टाचार से किया जाता है, वह आत्मकल्याण का कारण नहीं होता है। इस संदर्भ में एक ऐतिहासिक उदाहरण उल्लेखनीय है। एक बार श्री कृष्णवासुदेव भगवान् अरिष्टनेमि व उनके श्रमणों के दर्शनार्थ आए एवं उन्हें विशुद्ध भावों से श्रद्धा भक्तिपूर्वक सविधि वंदन किया। दूसरी ओर श्रीकृष्ण के साथ आए उनके भक्त वीरक कौलिक भी अपने स्वामी श्रीकृष्ण को खुश करने हेतु उनके पीछे-पीछे उनकी तरह ही (द्रव्य से) वंदना करते गये। तभी प्रभु से वंदना का फल पूछा गया। प्रभु ने फरमाया श्रीकृष्ण वासुदेव ने भाव सहित श्रद्धापूर्वक सविधि वंदना करने से क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर तीर्थंकर गोत्र अर्जित कर लिया है तथा सातवीं से चौथी नरक तक के कर्म-बंधन तोड़ दिये हैं। किन्तु वीरक ने जो अपने स्वामी की देखादेखी मात्र द्रव्य से वंदन किया है, उसका प्रतिफल मात्र श्री कृष्ण वासुदेव की संतुष्टि एवं प्रसन्नता मात्र है। उत्तम वंदना हेतु वंदना के अनादृत (अनादर), स्तब्ध (मद) आदि ३२ दोषों' को टालकर वंदना की जानी चाहिए। वंदना का महत्त्व
भावभक्ति एवं श्रद्धापूर्वक सविधि परमेष्ठी वंदना का बड़ा महत्त्व है, यथा१. मुक्ति प्राप्ति का सहज सर्वोत्तम साधन- श्री देवचन्द्र जी म. सा. ने कहा है
एक बार प्रभु वंदना रे, आगम रीते थाय!
कारण सत्ये कार्यनी २, सिद्धि प्रतीत कराय ।। अर्थात् एक बार आगम विधि अनुसार की गई प्रभु (परमेष्ठी) वंदना, सत्य (मोक्ष) का कारण होकर, उसकी सिद्धि कराने में समर्थ होती है। २. तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन का मुख्य हेतु- सर्वोत्कृष्ट पुण्य प्रकृति तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन बीस बोलों की आराधना से होता है। पंचपरमेष्ठी की भक्तिभावपूर्वक वंदना स्तुति करने से बीस बोलों में से आठ बोलों की आराधना निम्न प्रकार हो जाती है- १. अरिहंतों की भक्ति २. सिद्धों की भक्ति ३. प्रवचन-ज्ञानधारक संघ की भक्ति ४. गुरु महाराज की भक्ति ५. स्थविरों की भक्ति ६. बहुश्रुत मुनियों की भक्ति ७. तपस्वी मुनियों की भक्ति ८. परमेष्ठी व गुणियों का विनय। शेष बारह बोलों को भी भाव वंदना से देश आराधना हो जाती है। ३. स्वर्ग प्राप्ति का प्रमुख हेतु- शास्त्रकार कहते हैं
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15,17 नवम्बर 2006 स्मृतेन येन पापोऽपि, जन्तुः स्यान्तियतं सुरः।
परमेष्ठि - नमस्कार-मंत्र तं स्मर मानसे ।। अर्थात् जिसके स्मरण मात्र से पापी प्राणी भी निश्चित रूप से देवगति को प्राप्त करता है, उस परमेष्ठी महामंत्र को प्रथम स्मरण करो। इससे स्पष्ट है कि जब पापी जीव भी स्मरण मात्र से देवगति प्राप्त करता है, तो जो भक्तिपूर्वक परमेष्ठी की स्तुति वंदना करता है, उसे निःसंदेह स्वर्ग (वैमानिक देव गति) या मोक्ष की प्राप्ति होती है। ४. पुण्यानुबंधी पुण्य अर्जन का उत्तम हेतु- परमेष्ठी भाववंदना में साध्य व साधन दोनों श्रेष्ठ व सर्वोत्तम होने से उत्कृष्ट श्रद्धा व भक्ति पैदा कर वंदनाकर्ता के लिए यह निर्जरा के साथ पुण्यानुबंधी पुण्य अर्जन का हेतु भी होता है, जो उसे उत्तम निमित्त प्राप्त करा कर परम्परा से मोक्ष उपलब्धि में सहायक होता है। ५. आत्मिक सुप्त शक्तियों को जाग्रत करने में उत्तम हेतु- प्रत्येक मनुष्य में अनंत शक्तियाँ सत्ता में विद्यमान हैं। जब तक वह सुप्त दशा (अज्ञान व मोह से ग्रसित दशा) में रहता है, वे शक्तियाँ भी सुप्त रहती हैं। परमेष्ठी भाव वंदना भक्तिपूर्वक करने से, वे आत्म शक्तियाँ अनेक रूपों में जाग्रत हो जाती हैं। ६. अनिष्टरोधक और ग्रहशान्ति करने में सहायक- परमेष्ठी के स्मरण-वंदन स्तुति का महत्त्व दर्शाते हुए शास्त्रकारों ने कहा है
जिण सासणसारो, चउदस पुटयाण जो समुद्धरो।
जरस मणे नवकारो, संसारो तरस किं कुणइ।। अर्थात् जिनशासन का सार चौदह पूर्व के उद्धार रूप नवकार मंत्र जिसके मन में है, उसका संसार क्या कर सकता है अर्थात् संसार के उपद्रव उसे किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुंचा सकते हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार परमेष्ठी के नियिमित विधिपूर्वक जाप, स्तुति आदि से ग्रह शान्ति भी शीघ्र हो जाती है। ७. लौकिक सिद्धियों की प्राप्ति-यद्यपि परमेष्ठी महामंत्र लोकोत्तर सिद्धि प्रदायक है, तथापि इसकी भक्तिपूर्वक स्तुति वंदना से लौकिक सिद्धियाँ भी वैसे ही स्वतः प्राप्त हो जाती हैं जैसे गेहूँ की खेती करने वाले को खाखला प्राप्त हो जाता है। ८. सर्व पापनाशक- परमेष्ठी के पाँच पदों की स्तुति वंदना में समस्त पापों का नाश करने की अद्भुत शक्ति समाहित है। इसकी पुष्टि आचार्य मानतुंग स्वामी द्वारा रचित भक्तामर स्तोत्र के सातवें श्लोक से होता है, जिसमें कहा गया है
त्वत्संस्तवेन भवसंतति-सन्निबद्धं, पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीर-भाजाम् । आक्रान्त - लोकमलिनीलमशेधमाशु,
सूर्यांशुभिन्नमिव शावरमन्धकारम् ।। अर्थात् हे भगवन्! (जो परमेष्ठी के देव पद में समाहित है) आपकी स्तुति का चमत्कार अलौकिक
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________________ 209 ||15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी है। कोटि-कोटि जन्मों से बँधा हुआ संसारी जीवों का पाप कर्म आपकी स्तुति के प्रभाव से क्षणभर में विनाश __ को उसी तरह प्राप्त हो जाता है, जिस प्रकार समग्र विश्व पर छाया हुआ, भौरे के समान अत्यन्त काला अमावस्या की रात्रि का सघन अंधकार, प्रातःकालीन सूर्य की उज्ज्वल किरणों के उदय होने से विनाश को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार जब मात्र आदिनाथ स्वामी की स्तुति में इतना चमत्कार है, तो जिस परमेष्ठी में अनंत तीर्थंकर, सिद्ध आदि समाहित हैं उनकी स्तुति वंदना करने से सर्व पापों का नाश हो, इसमें क्या संदेह हो सकता है? 9. साधना का सशक्त साधन- परमेष्ठी भाव वंदना से न केवल परमेष्ठी का पवित्र स्वरूप ध्यान में आता है, वरन् स्वयं परमेष्ठी रूप होने की, आत्मा से परमात्मा होने की प्रेरणा मिलती है। भाव से परमेष्ठी का साक्षात्कार भी होता है, जिससे उनके गुण वंदना-कर्ता के अंतर में विकसित होते हैं और वह बहिरात्मा से अंतरात्मा, अंतरात्मा से महात्मा और महात्मा से परमात्मा की भूमिका को उपलब्ध हो जाता है। अंत में यह ध्यान देने योग्य है कि कर्मास्रव पाँच हैं- मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग ! इनमें मिथ्यात्व के दोषों की निवृत्ति दर्शन समकित के पाठ से, अव्रत के दोषों की निवृत्ति पाँच अणुव्रतों के पाठों से, प्रमाद के दोषों की निवृत्ति तीन गुणव्रतों के पाठों से, चार कषायों के दोषों की निवृत्ति चार शिक्षाव्रत के पाठों से और अशुभ योग के दोषों की निवृत्ति भाव वंदना के पाठों से होती है। इससे प्रतिक्रमण में भाव वंदना बोलने की उपयोगिता और अनिवार्यता स्पष्ट ध्यान में आती है। अतः बिना भाव वंदना के प्रतिक्रमण अधूरा है। भावभक्ति एवं विधि पूर्वक पंच परमेष्ठी की भाव वंदना का महत्त्व अध्यात्म क्षेत्र में सर्वोपरि है। कारण कि परमेष्ठी की भक्ति में बड़ी अद्भुत शक्ति निहित है। जिसके अनेक उदाहरण जैसे सेठ सुदर्शन, सती सोमा आदि। महात्मा कबीर ने भी भक्ति को सबसे बड़ी शक्ति बताते हुए कहा है भाला बड़ी न तिलक बड़ो, न कोई बड़ो शरीर। सब ही से भक्ति बड़ी, कह गए दास कबीर / / चूँकि परमेष्ठी की भक्ति सर्वोत्तम है, अतएव परमेष्ठी के महत्त्व और उसकी भक्ति की गरिमा को ध्यान में लेकर उभयकाल पंचपरमेष्ठी की भाव वंदना प्रतिक्रमण के साथ एकाग्न भाव से बोली जानी चाहिए। संदर्भ १.विशेषावश्यक भाष्य 2. भावपाहुड,६६ 3. जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग 7, पृष्ठ 43-44 4. ज्ञातासूत्रकथांग अध्ययन 8/ प्रवचनसारोद्धार, द्वार 10, गाथा 310-319 __-डागा सदन, संघपुरा मौहल्ला टोंक (राज.) + मिथ्यात्वादि दोषों की निवृत्ति के पाटों हेतु द्रष्टव्य प्रश्नात्तर खण्ड।