Book Title: Panch Parmeshthi ke Prati Bhav Vandana ka Mahattva
Author(s): Jashkaran Daga
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 3
________________ 208 | जिनवाणी 15,17 नवम्बर 2006 स्मृतेन येन पापोऽपि, जन्तुः स्यान्तियतं सुरः। परमेष्ठि - नमस्कार-मंत्र तं स्मर मानसे ।। अर्थात् जिसके स्मरण मात्र से पापी प्राणी भी निश्चित रूप से देवगति को प्राप्त करता है, उस परमेष्ठी महामंत्र को प्रथम स्मरण करो। इससे स्पष्ट है कि जब पापी जीव भी स्मरण मात्र से देवगति प्राप्त करता है, तो जो भक्तिपूर्वक परमेष्ठी की स्तुति वंदना करता है, उसे निःसंदेह स्वर्ग (वैमानिक देव गति) या मोक्ष की प्राप्ति होती है। ४. पुण्यानुबंधी पुण्य अर्जन का उत्तम हेतु- परमेष्ठी भाववंदना में साध्य व साधन दोनों श्रेष्ठ व सर्वोत्तम होने से उत्कृष्ट श्रद्धा व भक्ति पैदा कर वंदनाकर्ता के लिए यह निर्जरा के साथ पुण्यानुबंधी पुण्य अर्जन का हेतु भी होता है, जो उसे उत्तम निमित्त प्राप्त करा कर परम्परा से मोक्ष उपलब्धि में सहायक होता है। ५. आत्मिक सुप्त शक्तियों को जाग्रत करने में उत्तम हेतु- प्रत्येक मनुष्य में अनंत शक्तियाँ सत्ता में विद्यमान हैं। जब तक वह सुप्त दशा (अज्ञान व मोह से ग्रसित दशा) में रहता है, वे शक्तियाँ भी सुप्त रहती हैं। परमेष्ठी भाव वंदना भक्तिपूर्वक करने से, वे आत्म शक्तियाँ अनेक रूपों में जाग्रत हो जाती हैं। ६. अनिष्टरोधक और ग्रहशान्ति करने में सहायक- परमेष्ठी के स्मरण-वंदन स्तुति का महत्त्व दर्शाते हुए शास्त्रकारों ने कहा है जिण सासणसारो, चउदस पुटयाण जो समुद्धरो। जरस मणे नवकारो, संसारो तरस किं कुणइ।। अर्थात् जिनशासन का सार चौदह पूर्व के उद्धार रूप नवकार मंत्र जिसके मन में है, उसका संसार क्या कर सकता है अर्थात् संसार के उपद्रव उसे किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुंचा सकते हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार परमेष्ठी के नियिमित विधिपूर्वक जाप, स्तुति आदि से ग्रह शान्ति भी शीघ्र हो जाती है। ७. लौकिक सिद्धियों की प्राप्ति-यद्यपि परमेष्ठी महामंत्र लोकोत्तर सिद्धि प्रदायक है, तथापि इसकी भक्तिपूर्वक स्तुति वंदना से लौकिक सिद्धियाँ भी वैसे ही स्वतः प्राप्त हो जाती हैं जैसे गेहूँ की खेती करने वाले को खाखला प्राप्त हो जाता है। ८. सर्व पापनाशक- परमेष्ठी के पाँच पदों की स्तुति वंदना में समस्त पापों का नाश करने की अद्भुत शक्ति समाहित है। इसकी पुष्टि आचार्य मानतुंग स्वामी द्वारा रचित भक्तामर स्तोत्र के सातवें श्लोक से होता है, जिसमें कहा गया है त्वत्संस्तवेन भवसंतति-सन्निबद्धं, पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीर-भाजाम् । आक्रान्त - लोकमलिनीलमशेधमाशु, सूर्यांशुभिन्नमिव शावरमन्धकारम् ।। अर्थात् हे भगवन्! (जो परमेष्ठी के देव पद में समाहित है) आपकी स्तुति का चमत्कार अलौकिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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